उठ शहरज़ाद

February 2, 2007 at 10:48 pm Leave a comment

उठ शहरज़ाद
रेयाज़-उल-हक
हज़ार रातों के किस्से
अब सो चुके हैं
और ज़ालिम बादशाह
एक बार फिर जग पड़ा है


बेबीलोन के पुराने खंडहरों पर
काली परछाइयां नाच रही हैं

दज़ला और फ़ुरात का रंग
हो चुका है रक्तिम
लहज़ीब और तमद्दुन के शहर को
तहज़ीब और
तमद्दुन की दुहाई देनेवालों ने
बरबाद करने की ठान ली है

तेरी कदीम गलियों में अब
माओं की लोरियां नहीं
भूखे और बीमार बच्चों की चीखें गूंजती हैं
तेरी फ़िज़ा में लोकगीतों की पुरकैफ़ सरगम
नहीं गूंजती अब
इनकी जगह बमबार हवाई जहाजों के सायरन
और तोपों की गरज ने ले ली है
यहां की हवा में ज़िन्दगी की खुशबू नहीं
बारूद और मौत की बदबू है
लोग अब जीने के लिए नहीं जीते
बल्कि मरने के लिए,
तेरी खुद्दार और आज़ाद ज़मीं
सात समन्दर पार से आये लुटेरे ज़ालिमों की कैद में है

और शहज़ाद
तू कहां है?

कभी अपने शहर को बचाने की खातिर तुमने
हज़ार रातों तक जग कर
एक ज़ालिम बादशाह को सुनायी थीं हज़ार कहानियां
और संवार दी थी तकदीर अपने शहर की

आज इन मासूम ज़िंदगियों का नवश्ता तेरे हाथ में है
आज फिर एक ज़ालिम बदशाह उठ खड़ा हुआ है
और खून में डुबो रहा है तेरे शहर को
उठ शहरज़ाद उठ
और छेड़ फिर से हज़ार रातों के नयी किस्से
ताकि बच सकें ये मासूम ज़िन्दगियां
इन मासूम होठों पर हंसी
ममता की लोरियां
मांओं के सीनों में दूध
धरती की कोख में अनाज
दज़ला-फ़ुरात में पानी
बेबीलोन की तहज़ीब
कदीम खंडहर
और अलिफ़ लैला की कहानियां

…इससे पहले कि देर हो जाये
शहरज़ाद.

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Entry filed under: मेरी कविताएं.

उठ शहरज़ाद इस तरह खत्म होते हैं लोग

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