Archive for March, 2007
पार्टनर आपकी पक्षधरता क्या है
इधर बहुत कम लोगों का ध्यान इस खबर की ओर गया कि फ़िल्म ट्रैफ़िक सिग्नल को कुछ राज्यों में प्रतिबंधित कर दिया गया. शर्म की बात तो यह है कि इसके पीछे कुछ लेखकों का ही हाथ है. युवा लेखक-पत्रकार प्रमोद रंजन हाशिये पर पहली बार, इसी प्रसंग पर अपने लेख के साथ. प्रमोद फ़िलहाल जनविकल्प नामक पत्रिका के संपादकों में से एक हैं और पटना में रह रहे हैं.
प्रमोद रंजन
जनविकल्प से साभार
मधुर भंडारकर की फिल्म ट्रैफिक सिगनल पर हिमाचल प्रदेश सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है। यह फिल्म मुंबई के एक ट्रैफिक सिग्नल के सहारे रोजी-रोटी कमानेवालों के बारे में है, जिनके जीवन संघर्ष पर सभ्य समाज की नजर तक नहीं जाती। शर्तिया तौर पर फिल्म देखते हुए आपको हैरानी होगी कि इसे प्रतिबंधित करने के पक्षधर हिन्दी के वे लेखक, कवि हैं जो वंचितों के प्रति अपनी पक्षधरता साबित करने के लिए उठक-बैठक करते रहते है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की कसमें खाते जिनकी जुबानें नहीं थकतीं। सिनेमा के व्यवसायिक पर्दे पर ऐसी फिल्म कई वषों बाद आई है जिसमें चिपचिपाती गंदगी से भरे पिचके गालों पर लगातार फोकस रखने का जोखिम लिया गया है। वहां छोटे छोटे शॉर्टस में सैकडो बेनाम जिंदगियां कोलाज की तरह उभरती हैं, जिनके लिए मुंबई का एक ट्रैफिक सिग्नल ही सब कुछ है। सिग्नल के लाल होते ही उनका रोजगार चल पड्ता है। कोई अखबार बेचता है तो कोई कपडे। कोई पागल बनकर भीख मांगता है तो कोई बाप मर जाने का झूठा बहाना कर पैसे मांगता है। रात में इसी सिग्नल के आसपास सेक्स वर्करों को भी काम मिलता है। इस कोलाज में किन्नर भी हैं जो सिग्नल पर रूकी गाडियों में बैठे लोगों से भीख मांग कर पेट पालते हैं।
हिमाचल प्रदेश के लेखकों के एक गुट का कहना है कि हिमाचल प्रदेश में किन्नौर नामक एक जनजातीय जिला है। सो वहां के नागरिक किन्नर कहे जाएंगे। हिजडों को किन्नर कहे जाने से उस स्वर्गतुल्य जिले के सभ्य जनों का अपमान होता है। उनके इस शगूफे के वोट में तब्दील होने की संभावनाओं को देखते हुए हिमाचल की कांग्रेस सरकार ने ट्रैफिक सिग्नल को दो महीने के लिए प्रतिबंधित कर दिया है। जबकि वास्तविकता है कि उस जिले के लोगों को किन्नौरी अथवा किन्नौरी कहा जाता रहा है। स्थानीय स्तर पर उन्हें सवर्ण जाति सूचक उपाधि नेगी से भी संबांधित किया जाता है। बल्कि यही नाम अधिक प्रचलित है।
जिला किन्नौर कोई समानता का स्वर्ग नहीं है। यह इन्हीं विशेषाधिकार प्राप्त नेगी लोगों का स्वर्ग है, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था द्वारा प्रदत्त अधिकारों के बूते वहां प्रकृति द्वारा मुक्तहस्त होकर लुटाए गए वरदानों पर अपना अधिपत्य कायम रखा है। उस जनजातीय इलाके की समृद्धि के पीछे दलितों के अनवरत शोषण की कहानियां रही है। छुआछूत वहां अब भी मुखर रूप से कायम है। यहां तक कि उस इलाके के कुछ त्योहारों में दलितों की प्रतीकात्मक रूप से बलि भी दी जाती है कैसी विडंबना है कि इस प्रतिबंध के सूत्रधार लेखक ने इसी विषय पर एक उपन्यास भी लिखा है। किन्नर शब्द के हिजडों के लिए प्रयुक्त होने से कथित रूप अपमानित वे नेगी ही हो रहे हैं। वहां के दलितों की तो अपनी कोई पहचान ही विकसित नहीं हो पाई है। उस दुर्गम इलाके में मैदानी लोगों का आना जाना बढा तो उन्होंने भ्रमवश वहां के दलितों को भी नेगी संबांधित करना शुरू कर दिया। अब दलित स्वयं भी नेगी सरनेम रखने लगे हैं। नई हवा के चपेट में आए दलितों की इस प्रवति से भी वहां के असली नेगी अपमानित महसूस करते हैं।
अब जरा इस तथ्य पर गौर करें कि भारत में उभयलिंगी लोगों की तादाद लगभ्ाग 5 लाख है जबकि जिला किन्नौर की आबादी 80 हजार से भी कम है। प्रकति का क्रूरतम मजाक झेल रहे इन 5 लाख लोगों के लिए इन संवेदशील लेखक कवियों को अपमानजनम ध्वनि वाला हिजडा शब्द उचित लगता है। उनके लिए कतिपय सम्मानजनक किन्नर संज्ञा उन्हें नागवार गुजर रही है।
वास्तविक्ता यह भी हे कि किन्नौर के सवर्णों अथवा दलितों ने कभी भी स्वयं को किन्नर नहीं कहा। दूसरों ने भी हमेशा उन्हें किन्नौरी, किन्नौरा अथवा नेगी नाम से ही पुकारा है। यह शगूफा पहले पहल लगभग 5 वर्ष पूर्व हिमाचल के एक लेखक ने भारतीय जनता पार्टी के एक विधायक के साथ मिलकर छोडा था। आत्म-चर्चा लोभ से शुरू की गई इस कवायद ने इन वर्षों में कीडिया के सहयोग से किन्नौर वासियों में एक कृत्रिम अपमान बोध पैदा करने में आंशिक सफलता भी हासिल कर ली हैं मूल प्रकृति में यह विवाद वाटर,परजानिया आदि से अलग नहीं है। यह हिमाचली बिग्रेड इन दिनों किन्नौरियों को किन्नर साबित करने के लिए पुराणों को खंगाल रही है। नंगी सच्चाईयों को मिथ्या साबित करने वाले इन ग्रंथों की व्याख्याओं के भाषाई खेल में उलझने का अर्थ पहले मुर्गी या पहले अंडा जैसी पहेलियों को सुलझाने से अधिक कुछ नहीं होता। यहां सिर्फ इतना बता देना पर्याप्त होगा कि पुराणों में किन्नरों को घोडे जैसे लम्बे चेहरे और आदमी जैसे शरीर-सौष्ठव वाला बताया गया है, जो नाच-बजा कर राजा को प्रसन्न करते हैं। महाभारत में भी किन्नरों को अंत:पुर में भृत्यों के रूप में नियुक्त किए जाने का विवरण आता है। आप स्वयं तय करें कि यह साक्ष्य भी किसी दुर्भाग्यशाली जाति की ओर संकेत करते हैं। किन्नौर जिले के वासी तो कोमल, गौरवर्ण और सुदर्शन चेहरे वाले होते हैं। साहुल सांकतयायन ने भी एकाध जगह भाषा लोभ में पडकर किन्नौरवासियों के लिए किन्नर शब्द का इस्तेमाल किया है। फिल्म का विरोध कर रहे लेखक, कविगण अपने पक्ष में उन्हें भी उद्धत कर रहे हैं। राहुल जी के विचारों में आस्था रखने वालों को इन उद्धरणों को पढते हुए इन लेखकों के इतर अर्थों पर भी गौर करना चाहिए। उन्होंने उनके नाम से ‘राहुल’ गायब कर दिया है। इस विवाद के प्रवक्तओ द्वारा समाचार पत्रों में उन्हें ‘महापंडित’ सांस्कृत्यायन का यह नामाकरण इन लेखकों के अचेतन उद्देश्यों का तो पता देता ही है। पता नहीं कैसे अब तक उनके हाथ नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता बादल को घिरते देखा है नहीं लगी है। इस कविता में उन्होंने भी हिमालय के शिखरों पर बसे किन्नर-किन्नरियों का उल्लेख किया है। कविता के नाद को ध्यान में रखते हुए वह लिखते है ‘मदिरारूण आंखों वाले उन/उन्मद किन्नर-किन्न्रियों की मृदुल मनोरम अंगुलियों को वंशी पर फिरते देखा है..।‘ यह बस नजर नहीं पडने का मामला है अन्यथा वे भी पंडित नागार्जुन हो गए होते। ट्रैफिक सिग्नल पर प्रतिबंध का जश्न मनाने वाली चौकडी के अधिकांश सदस्य अपनी जातिगत और राजनीतिक पक्षधरताओं को स्वीकारने में शायद ना-नुकुर की गुंजाईश निकल लें क्योंकि इसके सूत्रधार लेखक जन्मना दलित हैं। लेकिन सवाल लेखकीय पक्षधरता का भी है। वह इस पूरे प्रकरण में प्रकृति की भीषणतम दुर्घटना का शिकार होकर हाशिए पर पडे भीख मांगने को विवश हिजडों के पक्ष में रही है या प्रभु वर्गों के पक्ष में। कृष्णमोहन झा की हिजडे शीर्षक कविता के पंक्तियां याद आती हैं: ‘उनकी गालियों और तालियों से भी उडते हैं खून के छींटे/और यह जो गाते-बजाते उधम मचाते/हर चौक-चौराहे पर/वे उठा देते हैं अपने कपड उपर/दरअसल उनकी अभद्रता नहीं/उस ईश्वर से प्रतिशोध लेने का उनका एक तरीका है/जिसने उन्हें बनाया है/या फिर नहीं बनाया….।‘ फिल्म के अंत में गंदी बस्ती का अन्नदाता ट्रैफिक सिग्नल तोड दिया जाता है। मधुर भंडारकर ने इस दृश्य को इतनी रचनात्मकता से फिलमाया हे कि लगता है महानगरपालिका क्रेन किसी निर्जीव सिग्नल को नहीं, बल्कि उस गंदी बस्ती के किसी महान बुर्जुग की लाश का खींच ले रहा हो। पक्षधरता की तो बात छोडिए, क्या इस फिल्म अथवा उपरोक्त कविता जैसी संवेदनशीलता भी इन लेखकों में है, जो स्वयं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पक्षधर कहते नहीं अघाते। एक ओर वे हाशिए पर फेंक दिए गए लोगों के पक्ष में जाने वाली फिलम का विरोध कर रहे हैं तो दूसरी ओर प्रकृति के क्रूरतम अभिशाप के साथ-साथ समाज का वहिष्कार भी झोल रहे उभ्यलिंगियों का अपमान करने में भी कोई कसर नहीं छोड रहे। इतना ही नहीं। आपको यह जानना भी बेहद रोचक लगेगा कि उन्होंने जिस किन्नर शब्द के कारण ट्रैफिक सिग्नल को प्रतिबंधित करवाया है, उसका उच्चारण तक फिल्म में नहीं हुआ है। इस शब्द का प्रयोग मधुर भंडारकर ने महज एक इंटरव्यू में किया था। लेकिन वे रट लगाए हैं कि फिल्म से किन्नर शब्द को हटाए बिना इसे चलने नहीं देंगे। चूंकि यह रट विद्वान लेखकों की है इसलिए यह उजबक-प्रश्न व्यर्थ है कि उन्हेंने फिल्म देखी है अथवा नहीं। बेहतर होगा कि हम सिर्फ उनके बारीक निहितार्थों पर ध्यान केंद्रित रखें।
पार्टनर आपकी पक्षधरता क्या है
इधर बहुत कम लोगों का ध्यान इस खबर की ओर गया कि फ़िल्म ट्रैफ़िक सिग्नल को कुछ राज्यों में प्रतिबंधित कर दिया गया. शर्म की बात तो यह है कि इसके पीछे कुछ लेखकों का ही हाथ है. युवा लेखक-पत्रकार प्रमोद रंजन हाशिये पर पहली बार, इसी प्रसंग पर अपने लेख के साथ. प्रमोद फ़िलहाल जनविकल्प नामक पत्रिका के संपादकों में से एक हैं और पटना में रह रहे हैं.
प्रमोद रंजन
जनविकल्प से साभार
मधुर भंडारकर की फिल्म ट्रैफिक सिगनल पर हिमाचल प्रदेश सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है। यह फिल्म मुंबई के एक ट्रैफिक सिग्नल के सहारे रोजी-रोटी कमानेवालों के बारे में है, जिनके जीवन संघर्ष पर सभ्य समाज की नजर तक नहीं जाती। शर्तिया तौर पर फिल्म देखते हुए आपको हैरानी होगी कि इसे प्रतिबंधित करने के पक्षधर हिन्दी के वे लेखक, कवि हैं जो वंचितों के प्रति अपनी पक्षधरता साबित करने के लिए उठक-बैठक करते रहते है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की कसमें खाते जिनकी जुबानें नहीं थकतीं। सिनेमा के व्यवसायिक पर्दे पर ऐसी फिल्म कई वषों बाद आई है जिसमें चिपचिपाती गंदगी से भरे पिचके गालों पर लगातार फोकस रखने का जोखिम लिया गया है। वहां छोटे छोटे शॉर्टस में सैकडो बेनाम जिंदगियां कोलाज की तरह उभरती हैं, जिनके लिए मुंबई का एक ट्रैफिक सिग्नल ही सब कुछ है। सिग्नल के लाल होते ही उनका रोजगार चल पड्ता है। कोई अखबार बेचता है तो कोई कपडे। कोई पागल बनकर भीख मांगता है तो कोई बाप मर जाने का झूठा बहाना कर पैसे मांगता है। रात में इसी सिग्नल के आसपास सेक्स वर्करों को भी काम मिलता है। इस कोलाज में किन्नर भी हैं जो सिग्नल पर रूकी गाडियों में बैठे लोगों से भीख मांग कर पेट पालते हैं।
हिमाचल प्रदेश के लेखकों के एक गुट का कहना है कि हिमाचल प्रदेश में किन्नौर नामक एक जनजातीय जिला है। सो वहां के नागरिक किन्नर कहे जाएंगे। हिजडों को किन्नर कहे जाने से उस स्वर्गतुल्य जिले के सभ्य जनों का अपमान होता है। उनके इस शगूफे के वोट में तब्दील होने की संभावनाओं को देखते हुए हिमाचल की कांग्रेस सरकार ने ट्रैफिक सिग्नल को दो महीने के लिए प्रतिबंधित कर दिया है। जबकि वास्तविकता है कि उस जिले के लोगों को किन्नौरी अथवा किन्नौरी कहा जाता रहा है। स्थानीय स्तर पर उन्हें सवर्ण जाति सूचक उपाधि नेगी से भी संबांधित किया जाता है। बल्कि यही नाम अधिक प्रचलित है।
जिला किन्नौर कोई समानता का स्वर्ग नहीं है। यह इन्हीं विशेषाधिकार प्राप्त नेगी लोगों का स्वर्ग है, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था द्वारा प्रदत्त अधिकारों के बूते वहां प्रकृति द्वारा मुक्तहस्त होकर लुटाए गए वरदानों पर अपना अधिपत्य कायम रखा है। उस जनजातीय इलाके की समृद्धि के पीछे दलितों के अनवरत शोषण की कहानियां रही है। छुआछूत वहां अब भी मुखर रूप से कायम है। यहां तक कि उस इलाके के कुछ त्योहारों में दलितों की प्रतीकात्मक रूप से बलि भी दी जाती है कैसी विडंबना है कि इस प्रतिबंध के सूत्रधार लेखक ने इसी विषय पर एक उपन्यास भी लिखा है। किन्नर शब्द के हिजडों के लिए प्रयुक्त होने से कथित रूप अपमानित वे नेगी ही हो रहे हैं। वहां के दलितों की तो अपनी कोई पहचान ही विकसित नहीं हो पाई है। उस दुर्गम इलाके में मैदानी लोगों का आना जाना बढा तो उन्होंने भ्रमवश वहां के दलितों को भी नेगी संबांधित करना शुरू कर दिया। अब दलित स्वयं भी नेगी सरनेम रखने लगे हैं। नई हवा के चपेट में आए दलितों की इस प्रवति से भी वहां के असली नेगी अपमानित महसूस करते हैं।
अब जरा इस तथ्य पर गौर करें कि भारत में उभयलिंगी लोगों की तादाद लगभ्ाग 5 लाख है जबकि जिला किन्नौर की आबादी 80 हजार से भी कम है। प्रकति का क्रूरतम मजाक झेल रहे इन 5 लाख लोगों के लिए इन संवेदशील लेखक कवियों को अपमानजनम ध्वनि वाला हिजडा शब्द उचित लगता है। उनके लिए कतिपय सम्मानजनक किन्नर संज्ञा उन्हें नागवार गुजर रही है।
वास्तविक्ता यह भी हे कि किन्नौर के सवर्णों अथवा दलितों ने कभी भी स्वयं को किन्नर नहीं कहा। दूसरों ने भी हमेशा उन्हें किन्नौरी, किन्नौरा अथवा नेगी नाम से ही पुकारा है। यह शगूफा पहले पहल लगभग 5 वर्ष पूर्व हिमाचल के एक लेखक ने भारतीय जनता पार्टी के एक विधायक के साथ मिलकर छोडा था। आत्म-चर्चा लोभ से शुरू की गई इस कवायद ने इन वर्षों में कीडिया के सहयोग से किन्नौर वासियों में एक कृत्रिम अपमान बोध पैदा करने में आंशिक सफलता भी हासिल कर ली हैं मूल प्रकृति में यह विवाद वाटर,परजानिया आदि से अलग नहीं है। यह हिमाचली बिग्रेड इन दिनों किन्नौरियों को किन्नर साबित करने के लिए पुराणों को खंगाल रही है। नंगी सच्चाईयों को मिथ्या साबित करने वाले इन ग्रंथों की व्याख्याओं के भाषाई खेल में उलझने का अर्थ पहले मुर्गी या पहले अंडा जैसी पहेलियों को सुलझाने से अधिक कुछ नहीं होता। यहां सिर्फ इतना बता देना पर्याप्त होगा कि पुराणों में किन्नरों को घोडे जैसे लम्बे चेहरे और आदमी जैसे शरीर-सौष्ठव वाला बताया गया है, जो नाच-बजा कर राजा को प्रसन्न करते हैं। महाभारत में भी किन्नरों को अंत:पुर में भृत्यों के रूप में नियुक्त किए जाने का विवरण आता है। आप स्वयं तय करें कि यह साक्ष्य भी किसी दुर्भाग्यशाली जाति की ओर संकेत करते हैं। किन्नौर जिले के वासी तो कोमल, गौरवर्ण और सुदर्शन चेहरे वाले होते हैं। साहुल सांकतयायन ने भी एकाध जगह भाषा लोभ में पडकर किन्नौरवासियों के लिए किन्नर शब्द का इस्तेमाल किया है। फिल्म का विरोध कर रहे लेखक, कविगण अपने पक्ष में उन्हें भी उद्धत कर रहे हैं। राहुल जी के विचारों में आस्था रखने वालों को इन उद्धरणों को पढते हुए इन लेखकों के इतर अर्थों पर भी गौर करना चाहिए। उन्होंने उनके नाम से ‘राहुल’ गायब कर दिया है। इस विवाद के प्रवक्तओ द्वारा समाचार पत्रों में उन्हें ‘महापंडित’ सांस्कृत्यायन का यह नामाकरण इन लेखकों के अचेतन उद्देश्यों का तो पता देता ही है। पता नहीं कैसे अब तक उनके हाथ नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता बादल को घिरते देखा है नहीं लगी है। इस कविता में उन्होंने भी हिमालय के शिखरों पर बसे किन्नर-किन्नरियों का उल्लेख किया है। कविता के नाद को ध्यान में रखते हुए वह लिखते है ‘मदिरारूण आंखों वाले उन/उन्मद किन्नर-किन्न्रियों की मृदुल मनोरम अंगुलियों को वंशी पर फिरते देखा है..।‘ यह बस नजर नहीं पडने का मामला है अन्यथा वे भी पंडित नागार्जुन हो गए होते। ट्रैफिक सिग्नल पर प्रतिबंध का जश्न मनाने वाली चौकडी के अधिकांश सदस्य अपनी जातिगत और राजनीतिक पक्षधरताओं को स्वीकारने में शायद ना-नुकुर की गुंजाईश निकल लें क्योंकि इसके सूत्रधार लेखक जन्मना दलित हैं। लेकिन सवाल लेखकीय पक्षधरता का भी है। वह इस पूरे प्रकरण में प्रकृति की भीषणतम दुर्घटना का शिकार होकर हाशिए पर पडे भीख मांगने को विवश हिजडों के पक्ष में रही है या प्रभु वर्गों के पक्ष में। कृष्णमोहन झा की हिजडे शीर्षक कविता के पंक्तियां याद आती हैं: ‘उनकी गालियों और तालियों से भी उडते हैं खून के छींटे/और यह जो गाते-बजाते उधम मचाते/हर चौक-चौराहे पर/वे उठा देते हैं अपने कपड उपर/दरअसल उनकी अभद्रता नहीं/उस ईश्वर से प्रतिशोध लेने का उनका एक तरीका है/जिसने उन्हें बनाया है/या फिर नहीं बनाया….।‘ फिल्म के अंत में गंदी बस्ती का अन्नदाता ट्रैफिक सिग्नल तोड दिया जाता है। मधुर भंडारकर ने इस दृश्य को इतनी रचनात्मकता से फिलमाया हे कि लगता है महानगरपालिका क्रेन किसी निर्जीव सिग्नल को नहीं, बल्कि उस गंदी बस्ती के किसी महान बुर्जुग की लाश का खींच ले रहा हो। पक्षधरता की तो बात छोडिए, क्या इस फिल्म अथवा उपरोक्त कविता जैसी संवेदनशीलता भी इन लेखकों में है, जो स्वयं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पक्षधर कहते नहीं अघाते। एक ओर वे हाशिए पर फेंक दिए गए लोगों के पक्ष में जाने वाली फिलम का विरोध कर रहे हैं तो दूसरी ओर प्रकृति के क्रूरतम अभिशाप के साथ-साथ समाज का वहिष्कार भी झोल रहे उभ्यलिंगियों का अपमान करने में भी कोई कसर नहीं छोड रहे। इतना ही नहीं। आपको यह जानना भी बेहद रोचक लगेगा कि उन्होंने जिस किन्नर शब्द के कारण ट्रैफिक सिग्नल को प्रतिबंधित करवाया है, उसका उच्चारण तक फिल्म में नहीं हुआ है। इस शब्द का प्रयोग मधुर भंडारकर ने महज एक इंटरव्यू में किया था। लेकिन वे रट लगाए हैं कि फिल्म से किन्नर शब्द को हटाए बिना इसे चलने नहीं देंगे। चूंकि यह रट विद्वान लेखकों की है इसलिए यह उजबक-प्रश्न व्यर्थ है कि उन्हेंने फिल्म देखी है अथवा नहीं। बेहतर होगा कि हम सिर्फ उनके बारीक निहितार्थों पर ध्यान केंद्रित रखें।
इराक : उम्मीद से हताशा तक का सफ़र
बग़दाद की गलियों में सबसे अधिक आवाज़ छोटे जेनरेटरों के शोर की सुनाई देती है. पुलिस और सेना के रोड ब्लॉक के अलावा सबसे ज़्यादा काले बैनर दिखाई देते हैं जिसपर लोगों के मरने का जिक्र होता है.
और सबसे आम भावना लोगों में आक्रोश और उदासी की दिखाई देती है.
ये सारी चीजें ये बताती हैं कि इराक़ियों में चार साल पहले जो आशा और उम्मीदें बंधी थीं वे ख़त्म हो चुकी है.
जेनरेटर के शोर इस बात के गवाह हैं कि अमरीका और इराक़ की सरकारें बिजली समस्या का हल निकालने में विफल रही हैं.
लगातार हो रही मौतें इस बात का प्रमाण है कि वे यहाँ शांति स्थापित नहीं कर सके हैं.
शायद ये भूलना आसान है कि एक समय इराक़ के लोगों को कितनी उम्मीदें थी.
उम्मीद
बग़दाद में अमरीकी सेना के घुसने के एक दिन बाद वहाँ हाइफ़ा स्ट्रीट के एक दुकानदार ने मुझसे कहा था, ”मुझे यह सोचकर अच्छा नहीं लग रहा है कि मेरे देश पर हमला हुआ है लेकिन भगवान का शुक्र है कि यह अमरीकियों ने किया है. अमरीका दुनिया का सबसे धनी देश है और वे अब हमारी मदद करेंगे.”
लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. वे मंत्रालयों, सार्वजनिक भवनों और संग्रहालयों को भी लुटने से नहीं बचा सके.
हमनें एक फ़िल्म शूट की है जिसमें चोर अस्पताल से महंगे उपकरण चोरी करके भाग रहे हैं और लोग एक अमरीकी सेना से कुछ करने की गुहार लगा रहे हैं लेकिन वह अपना मुंह फेर लेता है.
हमले के बाद पहले साल अव्यवस्था और अमरीकी ठेकेदारों और इराक़ी नेताओं की खुलेआम चोरी से लोगों में काफ़ी आक्रोश था.
बदल चुका है मंज़र
जब मैं मई, 2003 में हाइफ़ा स्ट्रीट दुकानदार से मिलने पहुँचा तो अकेले गया था और वहाँ छोटे हथियारों से फ़ायरिंग की आवाज़ आ रही थी. कुछ लोग नाराज़गी भरी निगाह से मेरी ओर देख रहे थे लेकिन मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मेरी जान को ख़तरा है.
दो दिन पहले मैं हाइफ़ा स्ट्रीट फिर गया. यहाँ कुछ दिनों पहले ही सुन्नियों और अमरीकी और इराक़ी सेना के बीच संघर्ष हुआ था.
अब एक पश्चिमी व्यक्ति के लिए बिना हथियार के यहाँ पहुँचना काफ़ी कठिन हो चुका है. मुझे खिड़कियों पर पर्दे लगे गाड़ियों में दो ब्रिटिश सैनिकों की सुरक्षा में जाना पड़ा.
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अमरीकी सेना इराक के लोगों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी |
जिस दुकानदार से चार साल पहले मैं मिला था उसकी बात छोड़ दीजिए वहाँ सारी दुकानें बंद हो चुकी थीं और कोई भी नहीं था जिससे मैं कुछ पूछ सकूं.
अगली सुबह मैं शहर के एक बड़े अस्पताल में पहुँचा. मेरे एक घंटा वहाँ रुकने के दौरान छह शव लाए गए जो गलियों में सुबह से मिले थे. अब यह यहाँ सामान्य बात है.
जब बग़दाद पर हमला हुआ था और एक या दो लोग भी मरते थे तो मैं सैटेलाइट फ़ोन से लंदन को इसकी सूचना देता था. उस समय यह बड़ी ख़बर होती थी.
निर्दयी शहर
गत गुरुवार को मध्य बग़दाद में जहाँ बीबीसी का ऑफिस है एक विस्फोट हुआ और उसमें कम से कम आठ लोग मारे गए और 25 घायल हो गए.
हमारे पास इसकी अच्छी तस्वीरें भी थीं लेकिन मैंने लंदन को फ़ोन करके रिपोर्ट करने की जहमत नहीं उठाई.
आज ख़बर बनने के लिए काफ़ी लोगों को मरना होगा. अभी यह आँकड़ा 60 या 70 है और मैं दावे से कह सकता हूँ कि यह लीड ख़बर नहीं होगी.
ऐसा इसलिए नहीं है कि संपादकों को परवाह नहीं है बल्कि ऐसी घटनाएं अब इतनी हो रही हैं कि ख़बर नहीं लगती.
अमरीकी नियंत्रण के चार साल बाद बग़दाद अब ख़तरनाक, निर्दयी, भयभीत और चिंतित शहर है.
अमरीकी सैनिकों की संख्या बढ़ने से हिंसा में जो कमी आई है उसे लेकर लोग सशंकित है.
ज़्यादातर लोगों का मानना है कि कई विद्रोही समूह जो अभी शांत हैं बाद में अमरीकी सेना की वापसी के बाद सिर उठा सकते हैं.
लेकिन ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ शंका और आक्रोश की ही भावनाएं है.
मैंने अस्पताल में एक डॉक्टर से पूछा था, “आपके बहुत सारे साथियों ने देश छोड़ दिया है क्या आप भी ऐसा करना चाहते हैं”?
तो उन्होंने जवाब दिया, ”अगर मुझे यह पता हो कि कल मेरी हत्या हो जाएगी तो भी मैं यही रहूँगा. ये मेरा कर्तव्य है.”
इस तरह के लोग और यह जज़्बा एक बार फिर इराक़ को गौरवशाली देश बनाएगा लेकिन हाल-फ़िलहाल तो ऐसा होता नहीं दिख रहा है.
बीबीसी से साभार
मंडल रिपोर्ट : कब क्या हुआ
मंडल रिपोर्ट : कब क्या हुआ
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![]() आरक्षण की घोषणा होते ही प्रदर्शनों की शुरुआत हो गई. कुछ पक्ष में और ज़्यादा विरोध में
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सामाजिक शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति की समीक्षा के लिए मोरारजी देसाई सरकार ने बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में छह सदस्यीय पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन की घोषणा की. यह मंडल आयोग के नाम से चर्चित हुआ.
1 जनवरी 1978
आयोग के गठन की अधिसूचना जारी.
दिसंबर 1980
मंडल आयोग ने गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह की रिपोर्ट सौंपी. इसमें अन्य पिछड़े वर्गों को 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश.
1982
रिपोर्ट संसद में पेश.
1989
लोकसभा चुनाव में जनता दल ने आयोग की सिफारिशों को चुनाव घोषणापत्र में शामिल किया.
7 अगस्त 1990
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने रिपोर्ट लागू करने की घोषणा की.
9 अगस्त 1990
विश्वनाथ प्रताप सिंह से मतभेद के बाद उपप्र्धानमंत्री देवीलाल ने इस्तीफ़ा दिया.
10 अगस्त 1990
आयोग की सिफारिशों के तहत सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था करने के ख़िलाफ़ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन शुरू.
13 अगस्त 1990
मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने की अधिसूचना जारी.
14 अगस्त 1990
अखिल भारतीय आरक्षण विरोधी मोर्चे के अध्यक्ष उज्जवल सिंह ने आरक्षण प्रणाली के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की.
19 सितंबर 1990
दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र एसएस चौहान ने आरक्षण के विरोध में आत्मदाह किया. एक अन्य छात्र राजीव गोस्वामी बुरी तरह झुलस गए.
17 जनवरी 1991
केंद्र सरकार ने पिछड़े वर्गों की सूची तैयार की.
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![]() वीपी सिंह सरकार ने आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने की घोषणा की थी
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8 अगस्त 1991
रामविलास पासवान ने केंद्र सरकार पर आयोग की सिफ़ारिशों को पूर्ण रूप से लागू करने में विफलता का आरोप लगाते हुए जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया. पासवान गिरफ़्तार किए गए.
25 सितंबर 1991
नरसिंह राव सरकार ने सामाजिक शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान की. आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 59.5 प्रतिशत करने का फ़ैसला. इसमें ऊँची जातियों के अति पिछड़ों को भी आरक्षण देने का प्रावधान किया गया.
24 सितंबर 1990
पटना में आरक्षण विरोधियों और पुलिस के बीच झड़प. पुलिस फायरिंग में चार छात्रों की मौत.
25 सितंबर 1991
दक्षिण दिल्ली में आरक्षण का विरोध कर रहे छात्रों पर पुलिस फायरिंग में दो की मौत.
1 अक्टूबर 1991
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से आरक्षण के आर्थिक आधार का ब्यौरा माँगा.
2 अक्टूबर 1991
आरक्षण विरोधियों और समर्थकों के बीच कई राज्यों में झड़प. गुजरात में शैक्षणिक संस्थान बंद किए गए.
10 अक्टूबर 1991
इंदौर के राजवाड़ा चौक पर स्थानीय छात्र शिवलाल यादव ने आत्मदाह की कोशिश की.
30 अक्टूबर 1991
मंडल आयोग की सिफारिशों के ख़िलाफ़ दायर याचिका की सुनवाई कर रही सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने यह मामला नौ न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया.
17 नवंबर 1991
राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और उड़ीसा में एक बार फिर उग्र विरोध प्रदर्शन. उत्तर प्रदेश में एक सौ गिरफ़्तार. प्रदर्शनकारियों ने गोरखपुर में 16 बसों में आग लगाई.
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![]() सुप्रीम कोर्ट ने भी मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की अनुमति दे दी थी
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19 नवंबर 1991
दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर में पुलिस और छात्रों के बीच झड़प. लगभग 50 लाख घायल. मुरादाबाद में दो छात्रों ने आत्मदाह का प्रयास किया.
16 नवंबर 1992
सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फ़ैसले में मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने के फ़ैसले को वैध ठहराया. साथ ही आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत रखने और पिछड़ी जातियों के उच्च तबके को इस सुविधा से अलग रखने का निर्देश दिया.
8 सितंबर 1993
केंद्र सरकार ने नौकरियों में पिछड़े वर्गों को 27 फीसदी आरक्षण देने की अधिसूचना जारी की.
20 सितंबर 1993
दिल्ली के क्राँति चौक पर राजीव गोस्वामी ने इसके ख़िलाफ़ एक बार फिर आत्मदाह का प्रयास किया.
23 सितंबर 1993
इलाहाबाद की इंजीनियरिंग की छात्रा मीनाक्षी ने आरक्षण व्यवस्था के विरोध में आत्महत्या की.
20 फरवरी 1994
मंडल आयोग की रिफारिशों के तहत वी राजशेखर आरक्षण के जरिए नौकरी पाने वाले पहले अभ्यार्थी बने. समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी ने उन्हें नियुक्ति पत्र सौंपा.
1 मई 1994
गुजरात में राज्य सरकार की नौकरियों में मंडल आयोग की सिरफारिशों के तहत आरक्षण व्यवस्था लागू करने का फ़ैसला.
2 सितंबर 1994
मसूरी के झुलागढ़ इलाके में आरक्षण विरोधी.
प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच संघर्ष में दो महिलाओं समेत छह की मौत, 50 घायल.
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![]() लंबे समय तक विरोध प्रदर्शन चलता रहा
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13 सितंबर 1994
उत्तरप्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी द्वारा घोषित राज्यव्यापी बंद के दौरान भड़की हिंसा में पाँच मरे.
15 सितंबर 1994
बरेली कॉलेज के छात्र उदित प्रताप सिंह ने आत्महत्या का प्रयास किया.
11 नवंबर 1994
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की नौकरियों में 73 फीसदी आरक्षण के कर्नाटक सरकार के फ़ैसले पर रोक लगाई.
24 फरवरी 2004
आरक्षण विरोधी आंदोलन के अगुआ रहे राजीव गोस्वामी का लंबी बीमारी के बाद निधन.
बीबीसी से साभार
आज भी मैला ढोने पर विवश हैं दलित
आज भी मैला ढोने पर विवश हैं दलित
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![]() वे छोड़ना भी चाहें तो काम छोड़ नहीं पा रहे हैं
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ज़ाहिर है ऐसा कहने और करने वाली शांतिदेवी अकेली नहीं हैं.
सरकारी आंकड़ों के आधार पर देश में आज भी लगभग दस लाख लोग ऐसे हैं जो इंसानी मैला ढोकर गुज़ारा चलाते हैं.
आज भी हमारा समाज जाति के आधार पर बँटा हुआ है. अभी भी कुछ काम ऐसे हैं जिन्हें सिर्फ नीची जाति के कहलाने वाले दलित ही करते हैं. समाज में बराबरी का दर्जा देना तो दूर आज भी उन्हें अछूत माना जाता है.
ग़लती से उनके छू जाने पर गंगाजल से शुद्धि आज भी एक कड़वी सच्चाई है. रामदेवी दूसरों से खुद को मैला ढुलवाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानती हैं- “मैं खुद क्यों करूँ, मैं तो साफ नहीं करूंगी. यह काम मेहतरानी से करवाऊँगी, सदियों से करती आई हैं तो वे ही करेंगी.”
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देश में कई जगहों पर जाति व्यवस्था आज भी इस तरह क़ायम है कि अगर इससे कोई बाहर निकलना भी चाहे तो ये आसान नहीं है. शांति हालातों के चलते मजबूर और न चाहते हुए भी ये काम करती हैं- आखिर उनकी मज़बूरी क्या है?
शांतिदेवी बताती हैं, “एक बार काम छोड़ा तो इन्होंने हमें शौच के लिए खेतों में भी नहीं जाने दिया गया, दुक़ान में सामान नहीं ख़रीद सकते थे, खेतों में घास लेने भी नहीं जाने दिया जाता था, बच्चों को मारा, कुल मिलाकर हमें बहुत तंग किया गया.”
क्रूर व्यवहार
रायपुर ग्राम की प्रेमा मानती हैं कि ये एक कुप्रथा है और इसका खत्म होना जरूरी है. ज़रूरत है तो थोड़ी सरकारी सहायता की जो सिर्फ़ फाइलों तक ही सीमित रह जाती है.
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वे कहती हैं, “बातों से नहीं हो जाता. फ्लश लगाने के लिए पैसों की भी ज़रूरत होती है. सन् 2001 से अब तक बहुत लोग आए लेकिन काम नहीं हो रहा. अभी तक किसी को पैसा नहीं मिला है.”
यूँ तो सरकार ने 1993 में इस नारकीय प्रथा को समाप्त करने के लिए क़ानून बनाया था और कई योजनाएँ भी चलाईं लेकिन देश के कई हिस्सों में खुलेआम इस कानून की अवेलहना हो रही है.
कानून के ठीक तरह से लागू न होने पर एस. मुरलीधर ने हाल ही में उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है.
वे कहते हैं, “1993 में जो क़ानून बना था, दस साल होने के बाद भी इसका पालन नहीं हो रहा है. ज़रूरत है कि क़ानून लागू हो और इनको नए सिरे से जीवन शुरू करने का अवसर दिया जाए.”
बीबीसी से साभार
दलित होने का मतलब और मर्म
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मुद्राराक्षस बताते हैं कि दलित होना दास होने से भी बदतर स्थिति है |
दलित होना दास होने से भी बदतर था. हालांकि दास भी समाज की मुख्य धारा का हिस्सा नहीं होते थे पर इतना तो था कि वे घरों में आ-जा सकते थे. भले ही बाँध कर रखा जाए पर उस घर में रह सकता था लेकिन अछूत के साथ तो इससे भी बदतर स्थिति रही है.
उसे तो बाँधकर भी नहीं रखा जाएगा और काम भी कराया जाएगा, सेवा भी कराई जाएगी. दासता भी कराई जाएगी और इस तरह बहिष्कृत होना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है.
इस दलित समाज की यह कठिनाई है जो आज भी बनी हुई है.
इसमें एक मुद्दा और भी है कि इस दलित समाज में कुछ ऐसी पिछड़ी जातियाँ भी हैं जो पूरी तरह से बहिष्कृत नहीं है. ये जातियाँ उनकी सेवा में लगी रहती हैं जो इस पूरे दलित समाज को बहिष्कृत बनाकर रखते हैं.
उदाहरण के तौर पर राजनीति में मुलायम सिंह यादव या नीतीश कुमार का उदाहरण लिया जा सकता है. ये उन्हीं के साथ खड़े हैं जो समूचे दलित समाज को बहिष्कृत करने वाला वर्ग है.
इनकी वजह से बहिष्कृत समाज की स्थितियाँ और ज़्यादा ख़राब हो जाती हैं.
हाँ, एक बात ज़रूर है कि गाँवों में भी भले ही सौ में से एक या दो पर पढ़ने की ललक दलितों में बढ़ी है. मैट्रिक तक ही सही, पढ़ाई के लिए कुछ दलितों के घरों के बच्चे स्कूल पहुँचे हैं.
दलित होने का दंश
चिंताजनक यह है कि थोड़ा बहुत पढ़-लिखकर जिस दलित ने भी अपने अस्तित्व को पहचानने की कोशिश की है या अपने स्वाभिमान को समझा है, वहाँ अलगाव और भी बढ़ गया है. उसे सवर्ण वर्ग से और अधिक हमले झेलने पड़े हैं.
इसका एक बड़ा उदाहरण 1970 के दशक में भोजपुर में देखने को मिलता है. वहाँ अगर कोई दलित बाहर से पढ़कर और शिक्षक बनकर आ गया तो उसे और ज़्यादा प्रताड़ित किया गया. पटना में हॉस्टलों में पढ़ने गए दलित छात्रों को मारा गया. बाद में इनमें से कुछ नक्सली आंदोलन में शामिल हो गए.
ऐसा शहरों में भी है और आज भी है. शहरों में भी अगर कोई सफाईकर्मी किसी मुद्दे पर आज भी कुछ बोल दे तो लोग कहते हैं कि देखो कितना बोल रहा है जबकि सवर्ण वर्ग का व्यक्ति किसी भी भाषा में बोले, उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है और न ही उसे कोई टोकता है.
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ग्रामीण स्तर पर ही नहीं बल्कि विकसित और शिक्षित शहरी परिवेश में भी स्थितियाँ बदली हुई नज़र नहीं आती हैं.
आज दलित समाज का जिलाधिकारी भी उसी बुरी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक स्थिति में रहता है जिसमें कि सड़क के किनारे जूता सिलने वाला दलित.
सामाजिक स्थिति स्वाभाविक नहीं होती. उदाहरण के तौर पर देखें तो अगर कोई दलित अधिकारी अपने नीचे दो दलितों को नौकरी दे दे तो यह चर्चा का विषय बन जाता है पर किसी सवर्ण जाति के अधिकारी के नीचे मुश्किल से दो दलित कर्मचारी काम करते मिलेंगे.
रही बात उद्योग जगत की तो आज भी दलितों का बाज़ार में मालिक के तौर पर कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. इस देश में एक भी बड़ा उद्योगपति ऐसा नहीं है जो कि दलित हो.
राजनीतिक पहचान का संकट
विडंबना यह है कि आज का दलित नेतृत्व इस आम दलित की मनोवैज्ञानिक पीड़ा, सामाजिक और आर्थिक दुर्दशा और शोषण पर ध्यान देने के बजाए ब्राह्मणवाद से तालमेल की राजनीति कर रहा है.
वो स्वायत्त समुदाय की अस्मिता को बचाकर रखने के लिए सक्रिय नहीं है. न तो यह काम मायावती कर रही हैं, न रामविलास पासवान कर रहे हैं और न ही आरपीआई जैसी पार्टी कर रही हैं.
ये नेतृत्व अपने इन नेताओं के झंडे तो लेकर चलता है पर इसकी बातों को न तो वह समझ रहा है, न समझना चाह रहा है और न ही उस दिशा में कोई ईमानदार कोशिश कर रहा है.
दलित राजनीति को कुछ लोग अपने निजी हितों को साधने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं जो कि बहुत चिंता का विषय है.
वैचारिक संकट
अंबेडकर का मानना था कि तर्कों को वैज्ञानिकता की कसौटी पर कसा जाए और ब्राह्मणवाद के असली चेहरे को समाज के सामने लाया जाए. आज किसी दलित नेतृत्व में इतनी समझ ही नहीं है कि इस दुर्व्यवस्था को सामने ला सके.
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कठिनाई यह भी है कि इस दलित नेतृत्व के पास न तो वैचारिक समझ है और न ही वर्तमान सामाजिक ढांचे का कोई विकल्प, जैसा कि अंबेडकर और पेरियार के पास था. उस बौद्धिक तैयारी का पूरी तरह से अभाव है.
दलितों की अस्मिता में कुछ सुधार का श्रेय भारत में अंग्रेज़ों के शासनकाल को भी जाता है क्योंकि उनके ढांचे में जाति जैसी चीज़ नहीं थी और इसका दलितों को लाभ मिला.
पर अंग्रेज़ों से तब मिले इस लाभ पर कुछ दलित संगठन आज भी कहते हैं कि जो अंग्रेज़ कर रहे हैं, विश्व बैंक कर रहा है या आईएमएफ़ कर रहा है, वो ही सही है. ऐसा नहीं है. ये इकाइयाँ दलितों के हितों को भी बराबर नुकसान पहुँचा रही हैं.
मुझे लगता है कि दक्षिण भारत में दलित आंदोलन ज़्यादा प्रभावी है लेकिन उत्तर भारत में तो मुझे लगता ही नहीं है कि वो ब्राह्मणपंथ से समझौता किए बिना कोई काम करेंगे. इन्हें तो अपने खाते से मतलब है.
(पाणिनी आनंद से बातचीत पर आधारित)
बीबीसी से साभार
बाबा साहेब का दलित आंदोलन को योगदान
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अंबेडकर के बाद उनके क़द को कोई नेता दलित आंदोलन को नहीं मिल सका है |
महात्मा ज्योतिबा फूले सवर्णों में से कहलाते थे. हालांकि ऐसे भी लोग थे जो उन्हें सवर्ण नहीं मानते थे. उन्होंने सामाजिक समता के लिए अपने घर के पानी का हौद सबके लिए खोल दिया. दलित बच्चों और लड़कियों के लिए स्कूल खोले.
पेरियार का काम भी दलित चेतना को जगाने का ही था पर उनका तरीका थोड़ा आक्रामक था.
अंबेडकर का इन दोनों लोगों से कुछ अलग दृष्टिकोण था. वो चाहते थे कि भारत की संस्कृति को नुकसान भी न पहुँचे और दलितों को जो अधिकार मिलने चाहिए, वे उन्हें हासिल हों, देश-समाज में उनका सम्मान बढ़े. वो चाहते थे कि समाज में दलितों का स्तर ऊँचा उठे और उन्हें बराबरी का दर्जा हासिल हो. उच्च वर्ग उन्हें अपने बराबर रखकर देखे.
उन्होंने सबसे पहले बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की और उसके माध्यम से सबको संगठित करने की कोशिश की. दलित समुदाय को समझाने की कोशिश की कि तुम गुलामों बनकर रह रहे हो और इसका कारण तुम्हारी अस्पृश्यता है. उन्होंने उनके दिमाग में यह बात भर दी कि जबतक तुम इसके दंश से नहीं उबरोगे, तुम गुलाम ही बने रहोगे.
उनकी आवाज़ को प्रचारित करने के लिए उन्होंने ‘मूक नायक’, ‘समता’, ‘जनता’ और ‘बहिस्कृत भारत’ जैसे पत्र भी निकाले.
उन्होंने यह कोशिश भी की कि दलित समुदाय को पता चले कि हमारे हक़ क्या हैं और इसके लिए उन्होंने नासिक में मंदिर में प्रवेश का सत्याग्रह किया.
उन्होंने देखा कि महाड़ में एक ऐसा तालाब, जहाँ जानवर पानी पी सकते हैं, वहाँ आदमी को, जो कि दलित हैं, पानी पीने का अधिकार नहीं था. वहाँ उन्होंने इसके लिए आंदोलन किया.
इस तरह बाबा अंबेडकर ने उन्हें ध्यान दिलाया कि इस देश के वे भी नागरिक हैं और उन्हें भी एक आम नागरिक जैसे अधिकार हासिल हैं.
अधूरी सफलता
अंबेडकर के काम का यही दुर्भाग्य रहा कि दलितों की हीन भावना को तो निकालने में वो काफ़ी हद तक कामयाब रहे पर सवर्णों के मन से उच्च होने की या श्रेष्ठ होने की मानसिकता को वो ख़त्म नहीं कर सके.
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मैं साफ़ तौर पर कह सकता हूँ कि अंबेडकर जी को अपने मकसद में आधी सफलता तो मिल गई पर सवर्णों ने उनके समता के सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया.
अंबेडकर को पूरी तरह से सफल उसी दिन कहा जाएगा जिस दिन सवर्ण दलितों को और अंबेडकर के इस सिद्धांत को स्वीकार कर लेंगे.
दलित और शोषित समुदायों के लिए उन्होंने संविधान में कई बातों को शामिल किया पर उनकी भी चिंता यही थी कि अगर ये बातें सही तरीके के साथ लागू नहीं होती हैं तो इनका लाभ अंतिम व्यक्ति तक नहीं पहुँच पाएगा.
अगर इस दिशा में हमें पूरी सफलता नहीं मिली है तो इसकी वजह क़ानून नहीं, उसे लागू करवाने वाले लोग हैं.
दरअसल वो समझते थे कि भारत के लोग धार्मिक और संवेदनशील हैं. इसलिए उनकी पूरी कोशिश रही कि लोगों पर चीज़ों को ज़बरदस्ती न थोपा जाए बल्कि लोग इसे स्वयं स्वीकार कर लें.
जहाँ तक उनके आंदोलन की परिणति का सवाल है, बाबा साहेब दलितों में चेतना जगाने में तो सफल रहे. इसी का ताज़ा उदाहरण है कि ख़ैरलांजी में पिछले दिनों हुई दलितों की हत्या के बाद नेतृत्व की अनुपस्थिति में भी महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि देशभर में दलितों ने आंदोलन किया.
वो जिन्ना की तरह देश को बाँटना नहीं चाहते थे पर जिन्ना ने जिस तरह देश में अल्पसंख्यकों को एक सम्मान और जगह दिलवाई, उस तरह से अंबेडकर दलितों के लिए सफल नहीं हो सके.
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इसकी एक वजह यह भी रही कि वो केवल दलितों के हिसाब से ही नहीं सोचते थे बल्कि समाज के सभी शोषित वर्गों के लिए वो काम करना चाहते थे. उन्होंने सवर्णों में महिलाओं की स्थिति को लेकर भी चिंता जताई और इसके लिए विधि मंत्रालय तक को ठोकर मार दी थी.
दुर्भाग्य ही था कि अंबेडकर की इस मंशा और उनके सिद्धांतों को देश का रूढ़िवादी सनातनी समाज नहीं समझ पाया. बाबा साहेब चाहते थे कि वो इसी धर्म में रहें पर उन्हें कामयाबी नहीं मिली और इसीलिए उन्हें मजबूरन बौद्ध धर्म की ओर जाना पड़ा.
टूट गया क्रम
बाबा साहेब के जाने के बाद उनके ही लोग या तो राजनीतिक चालों का शिकार हो गए या फिर प्रलोभनों में पड़ गए.
एक विडंबना यह भी रही कि बाबा साहेब के बाद कोई भी नेता उनके कद का दलित आंदोलन को नहीं मिला.
उदाहरण के तौर पर देखें तो गुरु नानकदेव के बाद सिखों को 10 गुरू मिले पर अंबेडकर के बाद जिस तरह से एक-एक नेता पनपना चाहिए था वो नहीं हुआ. अंदरूनी कलह, जलन और राजनीतिक घातों के चलते वे बिखरते चले गए.
लोहिया के साथ उन्होंने भविष्य की राजनीति को दिशा देने के लिए रिपब्लिकन पार्टी जैसा विकल्प तो रखा पर वो भी बाद में कामयाब नहीं रहा.
काशीराम कुछ हद तक कामयाब रहे और एक बड़े राजनीतिक मंच के तौर पर वो बहुजन समाज पार्टी को लेकर आए. पर आरपीआई सहित लगभग सभी पार्टियाँ थोड़ी बहुत सफलताओं के बाद ही अपने रास्ते से फिसल गईं और अपने मूल मकसद में कामयाब नहीं हो सकीं.
(पाणिनी आनंद से बातचीत पर आधारित)
बीबीसी से साभार
‘आरक्षण की व्यवस्था एक सफल प्रयोग है’
देश की न्यायपालिका जिस तरह प्रतिगामी फ़ैसले दे रही है, वह उसके सामंती ताकतों की आगे साष्टांग हो जाने का परिचायक है. हद तो यह है कि आप उसके फ़ैसलों की आलोचना भी नहीं कर सकते, आप अंदर किये जा सकते हैं. तो माननीयों, जो लोग सदियों से पांव की धूल बने रहे उनको अब तुम्हारी कानूनी किताबों की गुलामी स्वीकार नहीं, क्योंकि उन्होंने अपने अधिकार लड़ कर लिये थे, खैरात में नहीं, और उन्हें ऐसे ही बेकार नहीं हो जाने दिया जा सकता. आरक्षण पर नये फ़ैसले के विरोधस्वरूप यह आयोजन. संपादक-हाशिया
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योगेंद्र मानते हैं कि यदि आरक्षण न होता तो दलितों की स्थिति और भी बदतर होती |
ये वे लोग हैं जिन्होंने न तो हमारा समाज देखा है और न ही अवसरों की ग़ैर-बराबरी को समझने की कोशिश की है. ध्यान रहे कि किसी भी समाज में भिन्नताओं को स्वीकार करना उस समाज की एकता को बढ़ावा देता है न कि विघटन करता है.
मिसाल के तौर पर अमरीकी समाज ने जबतक अश्वेत और श्वेत के सवाल को स्वीकार नहीं किया, तबतक वहाँ विद्रोह की स्थिति थी और जब इसे सरकारी तौर पर स्वीकार कर लिया गया, तब से स्थितियाँ बहुत सुधर गई हैं.
हाँ, अगर आप भिन्नताओं की ओर से आँख मूँदना समाज को तोड़ने का एक तयशुदा फ़ार्मूला है.
अगर पिछले 50 साल के अनुभव पर एक मोटी बात कहनी हो तो मैं एक बात ज़रूर कहूँगा कि आरक्षण की व्यवस्था एक बहुत ही सफल प्रयोग रहा है, समाज के हाशियाग्रस्त लोगों को समाज में एक स्थिति पर लाने का.
सफल कैसे, इसे समझने के लिए इसके उद्देश्य को समझना बहुत ज़रूरी है.
आरक्षण का उद्देश्य
आरक्षण की व्यवस्था पूरे दलित समाज की सामाजिक स्थिति को बदलने का आधार न तो थी और न हो सकती है. आरक्षण की व्यवस्था ग़रीबी की समस्या का समाधान भी न तो कभी थी न बन सकती है.
कुछ सरकारी महकमों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण की व्यवस्था इस उद्देश्य से बनाई गई थी कि समाज में, राजनीति में और आधुनिक अर्थव्यवस्था के जो शीर्ष पद हैं, उनमें जो सत्ता का केंद्र है, वहाँ दलित समाज की एक न्यूनतम उपस्थिति बन सके.
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इस उद्देश्य को लेकर चलाई गई यह व्यवस्था इस न्यूनतम उद्देश्य में सफल रही है.
आज अगर हम सिविल सेवाओं से लेकर चिकित्सकों, इंजीनियरों के रूप में दलित समाज के कुछ लोगों को देख पा रहे हैं तो इसका श्रेय आरक्षण को जाता है. बल्कि यूँ कह सकते हैं कि अगर यह व्यवस्था नहीं होती तो शायद दलित समाज की स्थिति वर्तमान स्थिति से भी बदतर होती.
वैश्विक रूप से देखें तो दुनिया के जिन देशों में हाशिए पर पड़े लोगों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए जो प्रयोग हुए हैं, भारत में आरक्षण की व्यवस्था उनमें सबसे सफल प्रयोग के रूप में देखा जाएगा और दुनिया के बाकी देश इससे सीख सकते हैं.
चिंता
दिक्कत की बात यह है कि इतने वर्षों तक प्रयोग चलाने के बाद आरक्षण हमारे समाज में सामाजिक न्याय का पर्याय बन गया है. कई मायनों में उसका विकल्प बन गया है. यह दुखद स्थिति है.
यह तो उस तरह है कि कोई सर्जन एक ही कैंची से हर तरह की सर्जरी करे.
असल में आरक्षण एक विशेष स्थिति से निपटने का औजार है और वह विशेष स्थिति यह है कि समाज का जो वर्ग सिर्फ़ पिछड़ा ही नहीं रहा बल्कि जिसे बहिष्कृत किया गया हो, उसे अगर कुछ चुनिंदा कुर्सियों पर बैठाना है तो उन कुर्सियों पर निशान लगाकर उन्हें आरक्षित कर देना एक बेहतर तरीका है.
अब होता यह जा रहा है कि हर वर्ग की समस्याओं के लिए आरक्षण ही एकमात्र विकल्प से रूप में सुझाया जा रहा है. सामाजिक न्याय के पक्षधर लोग भी इसके बारे में सोचते नहीं हैं और केवल इसके बारे में आरक्षण को ही विकल्प मानते हैं.
आवश्यकता इस बात की है कि हम आरक्षण की व्यवस्था को और उसके इर्द-गिर्द जो ज़रूरतें हैं, उन्हें मज़बूत करें ताकि आरक्षण की व्यवस्था का सही अर्थों में सही लोगों तक लाभ पहुँच सके.
आरक्षण से आगे
आरक्षण सरकारी नौकरियों और राजनीति तक के सीमित क्षेत्र में लाभप्रद रहा है पर और भी मुद्दे हैं जिनका समाधान आरक्षण नहीं है और उनपर काम होना बाकी है.
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इनमें भूमि के बँटवारे की समस्या, शिक्षा में ग़ैर-बराबरी की समस्या और आर्थिक क्षेत्र में ग़ैर बराबरी की समस्या जैसे सवाल आते हैं जिनका समाधान आरक्षण नहीं है और हम इन सवालों पर कुछ नहीं कर रहे हैं.
जो वर्ग वर्जना और वंचना का शिकार नहीं रहे हैं, जैसे अन्य पिछड़ी जातियाँ हैं, जैसे महिलाएँ हैं, उनके लिए प्रारंभिक शिक्षा को बेहतर बनाने की ज़रूरत है.
इन वर्गों के लोगों को उससे ऊपर जाने पर जाति आधारित आरक्षण देने की ज़रूरत नहीं है बल्कि हम इसे मापने की कोशिश करें कि उसे किस तरह के पिछड़ेपन से गुज़रा है और उस आधार पर उसे वरीयता दी जाए.
साथ ही आरक्षण की व्यवस्था में कुछ बदलाव भी करने होंगे. जैसे एक पीढ़ी में जो लोग आरक्षण का लाभ उठा चुके हैं, उनकी दूसरी पीढ़ी को उस स्तर तक इस व्यवस्था का लाभ न मिले.
मसलन, अगर आरक्षण के ज़रिए कोई अध्यापक बन जाता है तो उसकी संतान को अध्यापक बनने तक के प्रयास में आरक्षण का लाभ न मिले. हाँ, अगर वो आईएएस बनना चाहता है तो ज़रूर दिया जाना चाहिए क्योंकि वहाँ स्थितियाँ दूसरी हो जाएंगी.
साथ ही जो जातियाँ राष्ट्रीय औसत से बेहतर हो चुकी हैं उनके लिए इस व्यवस्था को समाप्त करना चाहिए.
इराक : उम्मीद से हताशा तक का सफ़र
बग़दाद की गलियों में सबसे अधिक आवाज़ छोटे जेनरेटरों के शोर की सुनाई देती है. पुलिस और सेना के रोड ब्लॉक के अलावा सबसे ज़्यादा काले बैनर दिखाई देते हैं जिसपर लोगों के मरने का जिक्र होता है.
और सबसे आम भावना लोगों में आक्रोश और उदासी की दिखाई देती है.
ये सारी चीजें ये बताती हैं कि इराक़ियों में चार साल पहले जो आशा और उम्मीदें बंधी थीं वे ख़त्म हो चुकी है.
जेनरेटर के शोर इस बात के गवाह हैं कि अमरीका और इराक़ की सरकारें बिजली समस्या का हल निकालने में विफल रही हैं.
लगातार हो रही मौतें इस बात का प्रमाण है कि वे यहाँ शांति स्थापित नहीं कर सके हैं.
शायद ये भूलना आसान है कि एक समय इराक़ के लोगों को कितनी उम्मीदें थी.
उम्मीद
बग़दाद में अमरीकी सेना के घुसने के एक दिन बाद वहाँ हाइफ़ा स्ट्रीट के एक दुकानदार ने मुझसे कहा था, ”मुझे यह सोचकर अच्छा नहीं लग रहा है कि मेरे देश पर हमला हुआ है लेकिन भगवान का शुक्र है कि यह अमरीकियों ने किया है. अमरीका दुनिया का सबसे धनी देश है और वे अब हमारी मदद करेंगे.”
लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. वे मंत्रालयों, सार्वजनिक भवनों और संग्रहालयों को भी लुटने से नहीं बचा सके.
हमनें एक फ़िल्म शूट की है जिसमें चोर अस्पताल से महंगे उपकरण चोरी करके भाग रहे हैं और लोग एक अमरीकी सेना से कुछ करने की गुहार लगा रहे हैं लेकिन वह अपना मुंह फेर लेता है.
हमले के बाद पहले साल अव्यवस्था और अमरीकी ठेकेदारों और इराक़ी नेताओं की खुलेआम चोरी से लोगों में काफ़ी आक्रोश था.
बदल चुका है मंज़र
जब मैं मई, 2003 में हाइफ़ा स्ट्रीट दुकानदार से मिलने पहुँचा तो अकेले गया था और वहाँ छोटे हथियारों से फ़ायरिंग की आवाज़ आ रही थी. कुछ लोग नाराज़गी भरी निगाह से मेरी ओर देख रहे थे लेकिन मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मेरी जान को ख़तरा है.
दो दिन पहले मैं हाइफ़ा स्ट्रीट फिर गया. यहाँ कुछ दिनों पहले ही सुन्नियों और अमरीकी और इराक़ी सेना के बीच संघर्ष हुआ था.
अब एक पश्चिमी व्यक्ति के लिए बिना हथियार के यहाँ पहुँचना काफ़ी कठिन हो चुका है. मुझे खिड़कियों पर पर्दे लगे गाड़ियों में दो ब्रिटिश सैनिकों की सुरक्षा में जाना पड़ा.
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अमरीकी सेना इराक के लोगों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी |
जिस दुकानदार से चार साल पहले मैं मिला था उसकी बात छोड़ दीजिए वहाँ सारी दुकानें बंद हो चुकी थीं और कोई भी नहीं था जिससे मैं कुछ पूछ सकूं.
अगली सुबह मैं शहर के एक बड़े अस्पताल में पहुँचा. मेरे एक घंटा वहाँ रुकने के दौरान छह शव लाए गए जो गलियों में सुबह से मिले थे. अब यह यहाँ सामान्य बात है.
जब बग़दाद पर हमला हुआ था और एक या दो लोग भी मरते थे तो मैं सैटेलाइट फ़ोन से लंदन को इसकी सूचना देता था. उस समय यह बड़ी ख़बर होती थी.
निर्दयी शहर
गत गुरुवार को मध्य बग़दाद में जहाँ बीबीसी का ऑफिस है एक विस्फोट हुआ और उसमें कम से कम आठ लोग मारे गए और 25 घायल हो गए.
हमारे पास इसकी अच्छी तस्वीरें भी थीं लेकिन मैंने लंदन को फ़ोन करके रिपोर्ट करने की जहमत नहीं उठाई.
आज ख़बर बनने के लिए काफ़ी लोगों को मरना होगा. अभी यह आँकड़ा 60 या 70 है और मैं दावे से कह सकता हूँ कि यह लीड ख़बर नहीं होगी.
ऐसा इसलिए नहीं है कि संपादकों को परवाह नहीं है बल्कि ऐसी घटनाएं अब इतनी हो रही हैं कि ख़बर नहीं लगती.
अमरीकी नियंत्रण के चार साल बाद बग़दाद अब ख़तरनाक, निर्दयी, भयभीत और चिंतित शहर है.
अमरीकी सैनिकों की संख्या बढ़ने से हिंसा में जो कमी आई है उसे लेकर लोग सशंकित है.
ज़्यादातर लोगों का मानना है कि कई विद्रोही समूह जो अभी शांत हैं बाद में अमरीकी सेना की वापसी के बाद सिर उठा सकते हैं.
लेकिन ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ शंका और आक्रोश की ही भावनाएं है.
मैंने अस्पताल में एक डॉक्टर से पूछा था, “आपके बहुत सारे साथियों ने देश छोड़ दिया है क्या आप भी ऐसा करना चाहते हैं”?
तो उन्होंने जवाब दिया, ”अगर मुझे यह पता हो कि कल मेरी हत्या हो जाएगी तो भी मैं यही रहूँगा. ये मेरा कर्तव्य है.”
इस तरह के लोग और यह जज़्बा एक बार फिर इराक़ को गौरवशाली देश बनाएगा लेकिन हाल-फ़िलहाल तो ऐसा होता नहीं दिख रहा है.
बीबीसी से साभार
मंडल रिपोर्ट : कब क्या हुआ
मंडल रिपोर्ट : कब क्या हुआ
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![]() आरक्षण की घोषणा होते ही प्रदर्शनों की शुरुआत हो गई. कुछ पक्ष में और ज़्यादा विरोध में
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सामाजिक शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति की समीक्षा के लिए मोरारजी देसाई सरकार ने बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में छह सदस्यीय पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन की घोषणा की. यह मंडल आयोग के नाम से चर्चित हुआ.
1 जनवरी 1978
आयोग के गठन की अधिसूचना जारी.
दिसंबर 1980
मंडल आयोग ने गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह की रिपोर्ट सौंपी. इसमें अन्य पिछड़े वर्गों को 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश.
1982
रिपोर्ट संसद में पेश.
1989
लोकसभा चुनाव में जनता दल ने आयोग की सिफारिशों को चुनाव घोषणापत्र में शामिल किया.
7 अगस्त 1990
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने रिपोर्ट लागू करने की घोषणा की.
9 अगस्त 1990
विश्वनाथ प्रताप सिंह से मतभेद के बाद उपप्र्धानमंत्री देवीलाल ने इस्तीफ़ा दिया.
10 अगस्त 1990
आयोग की सिफारिशों के तहत सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था करने के ख़िलाफ़ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन शुरू.
13 अगस्त 1990
मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने की अधिसूचना जारी.
14 अगस्त 1990
अखिल भारतीय आरक्षण विरोधी मोर्चे के अध्यक्ष उज्जवल सिंह ने आरक्षण प्रणाली के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की.
19 सितंबर 1990
दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र एसएस चौहान ने आरक्षण के विरोध में आत्मदाह किया. एक अन्य छात्र राजीव गोस्वामी बुरी तरह झुलस गए.
17 जनवरी 1991
केंद्र सरकार ने पिछड़े वर्गों की सूची तैयार की.
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![]() वीपी सिंह सरकार ने आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने की घोषणा की थी
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8 अगस्त 1991
रामविलास पासवान ने केंद्र सरकार पर आयोग की सिफ़ारिशों को पूर्ण रूप से लागू करने में विफलता का आरोप लगाते हुए जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया. पासवान गिरफ़्तार किए गए.
25 सितंबर 1991
नरसिंह राव सरकार ने सामाजिक शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान की. आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 59.5 प्रतिशत करने का फ़ैसला. इसमें ऊँची जातियों के अति पिछड़ों को भी आरक्षण देने का प्रावधान किया गया.
24 सितंबर 1990
पटना में आरक्षण विरोधियों और पुलिस के बीच झड़प. पुलिस फायरिंग में चार छात्रों की मौत.
25 सितंबर 1991
दक्षिण दिल्ली में आरक्षण का विरोध कर रहे छात्रों पर पुलिस फायरिंग में दो की मौत.
1 अक्टूबर 1991
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से आरक्षण के आर्थिक आधार का ब्यौरा माँगा.
2 अक्टूबर 1991
आरक्षण विरोधियों और समर्थकों के बीच कई राज्यों में झड़प. गुजरात में शैक्षणिक संस्थान बंद किए गए.
10 अक्टूबर 1991
इंदौर के राजवाड़ा चौक पर स्थानीय छात्र शिवलाल यादव ने आत्मदाह की कोशिश की.
30 अक्टूबर 1991
मंडल आयोग की सिफारिशों के ख़िलाफ़ दायर याचिका की सुनवाई कर रही सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने यह मामला नौ न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया.
17 नवंबर 1991
राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और उड़ीसा में एक बार फिर उग्र विरोध प्रदर्शन. उत्तर प्रदेश में एक सौ गिरफ़्तार. प्रदर्शनकारियों ने गोरखपुर में 16 बसों में आग लगाई.
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![]() सुप्रीम कोर्ट ने भी मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की अनुमति दे दी थी
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19 नवंबर 1991
दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर में पुलिस और छात्रों के बीच झड़प. लगभग 50 लाख घायल. मुरादाबाद में दो छात्रों ने आत्मदाह का प्रयास किया.
16 नवंबर 1992
सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फ़ैसले में मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने के फ़ैसले को वैध ठहराया. साथ ही आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत रखने और पिछड़ी जातियों के उच्च तबके को इस सुविधा से अलग रखने का निर्देश दिया.
8 सितंबर 1993
केंद्र सरकार ने नौकरियों में पिछड़े वर्गों को 27 फीसदी आरक्षण देने की अधिसूचना जारी की.
20 सितंबर 1993
दिल्ली के क्राँति चौक पर राजीव गोस्वामी ने इसके ख़िलाफ़ एक बार फिर आत्मदाह का प्रयास किया.
23 सितंबर 1993
इलाहाबाद की इंजीनियरिंग की छात्रा मीनाक्षी ने आरक्षण व्यवस्था के विरोध में आत्महत्या की.
20 फरवरी 1994
मंडल आयोग की रिफारिशों के तहत वी राजशेखर आरक्षण के जरिए नौकरी पाने वाले पहले अभ्यार्थी बने. समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी ने उन्हें नियुक्ति पत्र सौंपा.
1 मई 1994
गुजरात में राज्य सरकार की नौकरियों में मंडल आयोग की सिरफारिशों के तहत आरक्षण व्यवस्था लागू करने का फ़ैसला.
2 सितंबर 1994
मसूरी के झुलागढ़ इलाके में आरक्षण विरोधी.
प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच संघर्ष में दो महिलाओं समेत छह की मौत, 50 घायल.
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![]() लंबे समय तक विरोध प्रदर्शन चलता रहा
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13 सितंबर 1994
उत्तरप्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी द्वारा घोषित राज्यव्यापी बंद के दौरान भड़की हिंसा में पाँच मरे.
15 सितंबर 1994
बरेली कॉलेज के छात्र उदित प्रताप सिंह ने आत्महत्या का प्रयास किया.
11 नवंबर 1994
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की नौकरियों में 73 फीसदी आरक्षण के कर्नाटक सरकार के फ़ैसले पर रोक लगाई.
24 फरवरी 2004
आरक्षण विरोधी आंदोलन के अगुआ रहे राजीव गोस्वामी का लंबी बीमारी के बाद निधन.
बीबीसी से साभार
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