मौन का खतरा
March 8, 2007 at 5:41 pm Leave a comment
रेयाज़-उल-हक
रसोई में रखे बरतन भी
नहीं खनकते
न ही कूकती है कोयल
बौर लगे आम के झुरमुट में
इस मार्च की दोपहरी में
कैसा मौन है हर तरफ़ ?
सब चुप हैं
मानों कहीं कुछ नहीं हो रहा है
देखते हैं एक दूसरे की तरफ़
जैसे देखते हैं पत्थर
जैसे अखबार छप रहे हों
सादे के सादे रोज़
या हो गये हों गूंगे सब
यह सन्नाटा इतना नीला है
मानों बगदाद का हरा आसमान
धधक न रहा हो इन दिनों
मानों फ़लस्तीन की सड़कों पर
फूट न रहा हो लावा
मानों बलूचिस्तान महज़ एक
घरौंदा भर हो रेत का
बच्चों का बनाया गया
मानों ग्वांतनामो और अबु गरेब में
बसते हों घोंघे
और केंचुए
मानों छत्तीसगढ़ में
उजाड़ी न जा रही हों बस्तियां
क्यों चुप
चीखता है खस्सी भी
ज़बह किये जाते वक़्त
और सूअर भी फेंकता है हाथ-पांव
पहचानो इस मौन के खतरे को
यह तुम्हारी ज़िंदगी के सुर
छीन लेने को है.
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