Archive for March 20, 2007
सुनील/रेयाज़-उल-हक
नंदीग्राम : बदरंग लाल की आभा
लोग कितनी आसानी से मार दिये जाते हैं!
हालांकि उनकी चीख तब भी निकलती है और दूर तक पहुंचती है. नंदीग्राम में गैर सरकारी स्रोत बताते हैं कि डेढ़ सौ से ज़्यादा लोग मारे गये. लाशें नदी में बहा दी गयीं. दो सौ लोग अब भी लापता हैं. महिलाऒं के साथ बलात्कार हुए हैं और पत्रकारों को अभी भी वहां नहीं जाने दिया जा रहा है.
तो क्या हम लोकतंत्र में रह रहे हैं? 1947 के बाद संभवत: यह अकेली बडी़ घटना है, जिसमें एक पूरे गांवं को घेर कर उसे इस तरह कुचल दिया गया हो. और यह सब कौन कर रहा है? वही सीपीएम सरकार जो गरीबों-किसानों की पक्षधरता के दावे करती नहीं थकती. आप उसके नेताओं के चेहरों को देखिए-वे फक पडे़ हुए हैं, मगर कह रहे हैं-हत्याएं सही थीं.
याद आ रहा है वह अमेरिकी अधिकारी, जिसने कुछ दिन पहले बीबीसी पर सीपीएम को विकास की ज़रूरत और अमेरिकी हितों को सबसे अच्छी तरह समझनेवाली पार्टी कहा था. इससे समझा जा सकता है कि सीपीएम सरकार के हित किसके साथ गुत्थमगुत्था हैं, और सीपीएम विकास की जो अवधारणा पेश कर रही है वह कहां बनी है. मगर सिंगुर और नंदीग्राम के लोगों को समझने के लिए किसी अमेरिकी अधिकारी के बयान की ज़रूरत नहीं है. वे दरअसल उस आतंक को भोग रहे हैं, जो यह सरकार उन पर कर कर रही है. नंदीग्राम के लोग इंडोनेशियाई कंपनी सालिम को नहीं आने देने की कीमत चुका रहे हैं. यह वही सालिम ग्रुप है, जो इंडोनेशिया में 1965 कम्युनिस्टों के कत्लेआम के बाद अमेरिकी संरक्षण में फला-फूला. इसे भ्रष्ट सुहार्तो शासन ने विकसित होने में मदद की. अब सुदूर भारत में इसे एक ज़बरदस्त मददगार मिल गया है-बुद्धदेव भट्टाचार्य.
इधर बंगाल में कथित विकास की प्रक्रिया पर ध्यान दें, तो पायेंगे कि बडी़ सफ़ाई से आम किसानों, भूमिहीनों और मज़दूरों की कीमत पर शहरों का विस्तार किया ज रहा है. शापिंग माल और मल्टीप्लेक्स बनाये जा रहे हैं. कामरेड बुद्धा के विचार में यही विकास है, मगर वे जिस तरह के विकास की बात कर रहे हैं, वह लोगों को झांसा देने के लिए है. उनका कहना है कि वे राज्य को क्रिषि से उद्योग की तरफ़ ले जा रहे हैं. उनकी राय में विकास की यही प्रक्रिया है. मगर विकास की एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है. इसके लिए पहले क्रिषि को काफ़ी विकसित करना होता है, जिससे जमा अतिरिक्त संसाधन उद्योगों के विकास में लगाया जाता है. इससे आम आदमी की क्रयशक्ति भी बढ़ती है. इस प्रक्रिया में क्रिषि का अतिरिक्त श्रम उद्योगों के काम आता है. मगर भारत में क्रिषि का वैसा विकास नहीं हुआ है. इसके उलट क्रिषि संकट गहराता जा रहा है. इसलिए आज बेलगाम औद्योगिक विकास का सीधा मतलब किसानों को उजाड़ना है. नंदीग्राम के किसान इस उजड़ने से बचने के लिए संधर्ष कर रहे हैं. नंदीग्राम में हुई इस तरह की ज़ुल्म-ज़बर्दस्ती सिर्फ़ इसी का प्रमाण है कि यह सरकार किस हद तक अपने उद्देश्यों से दूर आ चुकी है और अपने लोगों के कितना खिलाफ़ जा सकती है. महाश्वेता देवी कहती हैं-‘यही सीपीएम है.’ मतलब यही सीपीएम का असली रंग है. देश के एक बड़े तबके में अब यह सवाल उठने लगा है कि भारत में संसदीय वामपंथ कहां आ पहुंचा है.
इस नरसंहार ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है. गुरुवार को कोलकाता की जादवपुर युनिवर्सिटी में गुस्साये छात्रों ने कैंपस से खदेड़ दिया. देश भर में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. नेट पर युवकों की एक बडी़ संख्या संसदीय वामपंथ के इस चेहरे पर अपने गुस्से का इजहार कर रही है.
आखिर यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि पुलिस के पांच हज़ार जवान किसलिए गांव में भेजे गये थे? हम कैसे समाज में रह रहे हैं? क्या हिंसा करना सत्ता का एकाधिकार है और जनता को, (क्या हम कह सकते हैं, निरीह जनता को?) हंसिये लहराने का भी अधिकार नहीं है? क्या वह रो भी नहीं सकती?
नंदीग्राम ने पूरे देश को दो संदेश दिये हैं-एक तो यह कि भारतीय संसदीय पार्टियां अमेरिकी साम्राज्यवाद के हितों की रक्षा में किस हद तक जा सकती हैं. दूसरा संदेश यह है कि ऐसी बेलगाम बर्बरता के खिलाफ़ जनता को किस तरह उठ खड़े होना चाहिए.
बांग्ला रंगकर्मी अर्पिता घोष का मानना है कि यह संघर्ष प्रकाश की रेखा है. वे कहती हैं-अगर हम इसके साथ नहीं हुए तो हम बच नहीं पायेंगे.
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