Archive for March, 2007
आज भी मैला ढोने पर विवश हैं दलित
आज भी मैला ढोने पर विवश हैं दलित
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![]() वे छोड़ना भी चाहें तो काम छोड़ नहीं पा रहे हैं
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ज़ाहिर है ऐसा कहने और करने वाली शांतिदेवी अकेली नहीं हैं.
सरकारी आंकड़ों के आधार पर देश में आज भी लगभग दस लाख लोग ऐसे हैं जो इंसानी मैला ढोकर गुज़ारा चलाते हैं.
आज भी हमारा समाज जाति के आधार पर बँटा हुआ है. अभी भी कुछ काम ऐसे हैं जिन्हें सिर्फ नीची जाति के कहलाने वाले दलित ही करते हैं. समाज में बराबरी का दर्जा देना तो दूर आज भी उन्हें अछूत माना जाता है.
ग़लती से उनके छू जाने पर गंगाजल से शुद्धि आज भी एक कड़वी सच्चाई है. रामदेवी दूसरों से खुद को मैला ढुलवाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानती हैं- “मैं खुद क्यों करूँ, मैं तो साफ नहीं करूंगी. यह काम मेहतरानी से करवाऊँगी, सदियों से करती आई हैं तो वे ही करेंगी.”
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देश में कई जगहों पर जाति व्यवस्था आज भी इस तरह क़ायम है कि अगर इससे कोई बाहर निकलना भी चाहे तो ये आसान नहीं है. शांति हालातों के चलते मजबूर और न चाहते हुए भी ये काम करती हैं- आखिर उनकी मज़बूरी क्या है?
शांतिदेवी बताती हैं, “एक बार काम छोड़ा तो इन्होंने हमें शौच के लिए खेतों में भी नहीं जाने दिया गया, दुक़ान में सामान नहीं ख़रीद सकते थे, खेतों में घास लेने भी नहीं जाने दिया जाता था, बच्चों को मारा, कुल मिलाकर हमें बहुत तंग किया गया.”
क्रूर व्यवहार
रायपुर ग्राम की प्रेमा मानती हैं कि ये एक कुप्रथा है और इसका खत्म होना जरूरी है. ज़रूरत है तो थोड़ी सरकारी सहायता की जो सिर्फ़ फाइलों तक ही सीमित रह जाती है.
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वे कहती हैं, “बातों से नहीं हो जाता. फ्लश लगाने के लिए पैसों की भी ज़रूरत होती है. सन् 2001 से अब तक बहुत लोग आए लेकिन काम नहीं हो रहा. अभी तक किसी को पैसा नहीं मिला है.”
यूँ तो सरकार ने 1993 में इस नारकीय प्रथा को समाप्त करने के लिए क़ानून बनाया था और कई योजनाएँ भी चलाईं लेकिन देश के कई हिस्सों में खुलेआम इस कानून की अवेलहना हो रही है.
कानून के ठीक तरह से लागू न होने पर एस. मुरलीधर ने हाल ही में उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है.
वे कहते हैं, “1993 में जो क़ानून बना था, दस साल होने के बाद भी इसका पालन नहीं हो रहा है. ज़रूरत है कि क़ानून लागू हो और इनको नए सिरे से जीवन शुरू करने का अवसर दिया जाए.”
बीबीसी से साभार
दलित होने का मतलब और मर्म
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मुद्राराक्षस बताते हैं कि दलित होना दास होने से भी बदतर स्थिति है |
दलित होना दास होने से भी बदतर था. हालांकि दास भी समाज की मुख्य धारा का हिस्सा नहीं होते थे पर इतना तो था कि वे घरों में आ-जा सकते थे. भले ही बाँध कर रखा जाए पर उस घर में रह सकता था लेकिन अछूत के साथ तो इससे भी बदतर स्थिति रही है.
उसे तो बाँधकर भी नहीं रखा जाएगा और काम भी कराया जाएगा, सेवा भी कराई जाएगी. दासता भी कराई जाएगी और इस तरह बहिष्कृत होना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है.
इस दलित समाज की यह कठिनाई है जो आज भी बनी हुई है.
इसमें एक मुद्दा और भी है कि इस दलित समाज में कुछ ऐसी पिछड़ी जातियाँ भी हैं जो पूरी तरह से बहिष्कृत नहीं है. ये जातियाँ उनकी सेवा में लगी रहती हैं जो इस पूरे दलित समाज को बहिष्कृत बनाकर रखते हैं.
उदाहरण के तौर पर राजनीति में मुलायम सिंह यादव या नीतीश कुमार का उदाहरण लिया जा सकता है. ये उन्हीं के साथ खड़े हैं जो समूचे दलित समाज को बहिष्कृत करने वाला वर्ग है.
इनकी वजह से बहिष्कृत समाज की स्थितियाँ और ज़्यादा ख़राब हो जाती हैं.
हाँ, एक बात ज़रूर है कि गाँवों में भी भले ही सौ में से एक या दो पर पढ़ने की ललक दलितों में बढ़ी है. मैट्रिक तक ही सही, पढ़ाई के लिए कुछ दलितों के घरों के बच्चे स्कूल पहुँचे हैं.
दलित होने का दंश
चिंताजनक यह है कि थोड़ा बहुत पढ़-लिखकर जिस दलित ने भी अपने अस्तित्व को पहचानने की कोशिश की है या अपने स्वाभिमान को समझा है, वहाँ अलगाव और भी बढ़ गया है. उसे सवर्ण वर्ग से और अधिक हमले झेलने पड़े हैं.
इसका एक बड़ा उदाहरण 1970 के दशक में भोजपुर में देखने को मिलता है. वहाँ अगर कोई दलित बाहर से पढ़कर और शिक्षक बनकर आ गया तो उसे और ज़्यादा प्रताड़ित किया गया. पटना में हॉस्टलों में पढ़ने गए दलित छात्रों को मारा गया. बाद में इनमें से कुछ नक्सली आंदोलन में शामिल हो गए.
ऐसा शहरों में भी है और आज भी है. शहरों में भी अगर कोई सफाईकर्मी किसी मुद्दे पर आज भी कुछ बोल दे तो लोग कहते हैं कि देखो कितना बोल रहा है जबकि सवर्ण वर्ग का व्यक्ति किसी भी भाषा में बोले, उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है और न ही उसे कोई टोकता है.
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ग्रामीण स्तर पर ही नहीं बल्कि विकसित और शिक्षित शहरी परिवेश में भी स्थितियाँ बदली हुई नज़र नहीं आती हैं.
आज दलित समाज का जिलाधिकारी भी उसी बुरी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक स्थिति में रहता है जिसमें कि सड़क के किनारे जूता सिलने वाला दलित.
सामाजिक स्थिति स्वाभाविक नहीं होती. उदाहरण के तौर पर देखें तो अगर कोई दलित अधिकारी अपने नीचे दो दलितों को नौकरी दे दे तो यह चर्चा का विषय बन जाता है पर किसी सवर्ण जाति के अधिकारी के नीचे मुश्किल से दो दलित कर्मचारी काम करते मिलेंगे.
रही बात उद्योग जगत की तो आज भी दलितों का बाज़ार में मालिक के तौर पर कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. इस देश में एक भी बड़ा उद्योगपति ऐसा नहीं है जो कि दलित हो.
राजनीतिक पहचान का संकट
विडंबना यह है कि आज का दलित नेतृत्व इस आम दलित की मनोवैज्ञानिक पीड़ा, सामाजिक और आर्थिक दुर्दशा और शोषण पर ध्यान देने के बजाए ब्राह्मणवाद से तालमेल की राजनीति कर रहा है.
वो स्वायत्त समुदाय की अस्मिता को बचाकर रखने के लिए सक्रिय नहीं है. न तो यह काम मायावती कर रही हैं, न रामविलास पासवान कर रहे हैं और न ही आरपीआई जैसी पार्टी कर रही हैं.
ये नेतृत्व अपने इन नेताओं के झंडे तो लेकर चलता है पर इसकी बातों को न तो वह समझ रहा है, न समझना चाह रहा है और न ही उस दिशा में कोई ईमानदार कोशिश कर रहा है.
दलित राजनीति को कुछ लोग अपने निजी हितों को साधने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं जो कि बहुत चिंता का विषय है.
वैचारिक संकट
अंबेडकर का मानना था कि तर्कों को वैज्ञानिकता की कसौटी पर कसा जाए और ब्राह्मणवाद के असली चेहरे को समाज के सामने लाया जाए. आज किसी दलित नेतृत्व में इतनी समझ ही नहीं है कि इस दुर्व्यवस्था को सामने ला सके.
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कठिनाई यह भी है कि इस दलित नेतृत्व के पास न तो वैचारिक समझ है और न ही वर्तमान सामाजिक ढांचे का कोई विकल्प, जैसा कि अंबेडकर और पेरियार के पास था. उस बौद्धिक तैयारी का पूरी तरह से अभाव है.
दलितों की अस्मिता में कुछ सुधार का श्रेय भारत में अंग्रेज़ों के शासनकाल को भी जाता है क्योंकि उनके ढांचे में जाति जैसी चीज़ नहीं थी और इसका दलितों को लाभ मिला.
पर अंग्रेज़ों से तब मिले इस लाभ पर कुछ दलित संगठन आज भी कहते हैं कि जो अंग्रेज़ कर रहे हैं, विश्व बैंक कर रहा है या आईएमएफ़ कर रहा है, वो ही सही है. ऐसा नहीं है. ये इकाइयाँ दलितों के हितों को भी बराबर नुकसान पहुँचा रही हैं.
मुझे लगता है कि दक्षिण भारत में दलित आंदोलन ज़्यादा प्रभावी है लेकिन उत्तर भारत में तो मुझे लगता ही नहीं है कि वो ब्राह्मणपंथ से समझौता किए बिना कोई काम करेंगे. इन्हें तो अपने खाते से मतलब है.
(पाणिनी आनंद से बातचीत पर आधारित)
बीबीसी से साभार
बाबा साहेब का दलित आंदोलन को योगदान
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अंबेडकर के बाद उनके क़द को कोई नेता दलित आंदोलन को नहीं मिल सका है |
महात्मा ज्योतिबा फूले सवर्णों में से कहलाते थे. हालांकि ऐसे भी लोग थे जो उन्हें सवर्ण नहीं मानते थे. उन्होंने सामाजिक समता के लिए अपने घर के पानी का हौद सबके लिए खोल दिया. दलित बच्चों और लड़कियों के लिए स्कूल खोले.
पेरियार का काम भी दलित चेतना को जगाने का ही था पर उनका तरीका थोड़ा आक्रामक था.
अंबेडकर का इन दोनों लोगों से कुछ अलग दृष्टिकोण था. वो चाहते थे कि भारत की संस्कृति को नुकसान भी न पहुँचे और दलितों को जो अधिकार मिलने चाहिए, वे उन्हें हासिल हों, देश-समाज में उनका सम्मान बढ़े. वो चाहते थे कि समाज में दलितों का स्तर ऊँचा उठे और उन्हें बराबरी का दर्जा हासिल हो. उच्च वर्ग उन्हें अपने बराबर रखकर देखे.
उन्होंने सबसे पहले बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की और उसके माध्यम से सबको संगठित करने की कोशिश की. दलित समुदाय को समझाने की कोशिश की कि तुम गुलामों बनकर रह रहे हो और इसका कारण तुम्हारी अस्पृश्यता है. उन्होंने उनके दिमाग में यह बात भर दी कि जबतक तुम इसके दंश से नहीं उबरोगे, तुम गुलाम ही बने रहोगे.
उनकी आवाज़ को प्रचारित करने के लिए उन्होंने ‘मूक नायक’, ‘समता’, ‘जनता’ और ‘बहिस्कृत भारत’ जैसे पत्र भी निकाले.
उन्होंने यह कोशिश भी की कि दलित समुदाय को पता चले कि हमारे हक़ क्या हैं और इसके लिए उन्होंने नासिक में मंदिर में प्रवेश का सत्याग्रह किया.
उन्होंने देखा कि महाड़ में एक ऐसा तालाब, जहाँ जानवर पानी पी सकते हैं, वहाँ आदमी को, जो कि दलित हैं, पानी पीने का अधिकार नहीं था. वहाँ उन्होंने इसके लिए आंदोलन किया.
इस तरह बाबा अंबेडकर ने उन्हें ध्यान दिलाया कि इस देश के वे भी नागरिक हैं और उन्हें भी एक आम नागरिक जैसे अधिकार हासिल हैं.
अधूरी सफलता
अंबेडकर के काम का यही दुर्भाग्य रहा कि दलितों की हीन भावना को तो निकालने में वो काफ़ी हद तक कामयाब रहे पर सवर्णों के मन से उच्च होने की या श्रेष्ठ होने की मानसिकता को वो ख़त्म नहीं कर सके.
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मैं साफ़ तौर पर कह सकता हूँ कि अंबेडकर जी को अपने मकसद में आधी सफलता तो मिल गई पर सवर्णों ने उनके समता के सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया.
अंबेडकर को पूरी तरह से सफल उसी दिन कहा जाएगा जिस दिन सवर्ण दलितों को और अंबेडकर के इस सिद्धांत को स्वीकार कर लेंगे.
दलित और शोषित समुदायों के लिए उन्होंने संविधान में कई बातों को शामिल किया पर उनकी भी चिंता यही थी कि अगर ये बातें सही तरीके के साथ लागू नहीं होती हैं तो इनका लाभ अंतिम व्यक्ति तक नहीं पहुँच पाएगा.
अगर इस दिशा में हमें पूरी सफलता नहीं मिली है तो इसकी वजह क़ानून नहीं, उसे लागू करवाने वाले लोग हैं.
दरअसल वो समझते थे कि भारत के लोग धार्मिक और संवेदनशील हैं. इसलिए उनकी पूरी कोशिश रही कि लोगों पर चीज़ों को ज़बरदस्ती न थोपा जाए बल्कि लोग इसे स्वयं स्वीकार कर लें.
जहाँ तक उनके आंदोलन की परिणति का सवाल है, बाबा साहेब दलितों में चेतना जगाने में तो सफल रहे. इसी का ताज़ा उदाहरण है कि ख़ैरलांजी में पिछले दिनों हुई दलितों की हत्या के बाद नेतृत्व की अनुपस्थिति में भी महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि देशभर में दलितों ने आंदोलन किया.
वो जिन्ना की तरह देश को बाँटना नहीं चाहते थे पर जिन्ना ने जिस तरह देश में अल्पसंख्यकों को एक सम्मान और जगह दिलवाई, उस तरह से अंबेडकर दलितों के लिए सफल नहीं हो सके.
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इसकी एक वजह यह भी रही कि वो केवल दलितों के हिसाब से ही नहीं सोचते थे बल्कि समाज के सभी शोषित वर्गों के लिए वो काम करना चाहते थे. उन्होंने सवर्णों में महिलाओं की स्थिति को लेकर भी चिंता जताई और इसके लिए विधि मंत्रालय तक को ठोकर मार दी थी.
दुर्भाग्य ही था कि अंबेडकर की इस मंशा और उनके सिद्धांतों को देश का रूढ़िवादी सनातनी समाज नहीं समझ पाया. बाबा साहेब चाहते थे कि वो इसी धर्म में रहें पर उन्हें कामयाबी नहीं मिली और इसीलिए उन्हें मजबूरन बौद्ध धर्म की ओर जाना पड़ा.
टूट गया क्रम
बाबा साहेब के जाने के बाद उनके ही लोग या तो राजनीतिक चालों का शिकार हो गए या फिर प्रलोभनों में पड़ गए.
एक विडंबना यह भी रही कि बाबा साहेब के बाद कोई भी नेता उनके कद का दलित आंदोलन को नहीं मिला.
उदाहरण के तौर पर देखें तो गुरु नानकदेव के बाद सिखों को 10 गुरू मिले पर अंबेडकर के बाद जिस तरह से एक-एक नेता पनपना चाहिए था वो नहीं हुआ. अंदरूनी कलह, जलन और राजनीतिक घातों के चलते वे बिखरते चले गए.
लोहिया के साथ उन्होंने भविष्य की राजनीति को दिशा देने के लिए रिपब्लिकन पार्टी जैसा विकल्प तो रखा पर वो भी बाद में कामयाब नहीं रहा.
काशीराम कुछ हद तक कामयाब रहे और एक बड़े राजनीतिक मंच के तौर पर वो बहुजन समाज पार्टी को लेकर आए. पर आरपीआई सहित लगभग सभी पार्टियाँ थोड़ी बहुत सफलताओं के बाद ही अपने रास्ते से फिसल गईं और अपने मूल मकसद में कामयाब नहीं हो सकीं.
(पाणिनी आनंद से बातचीत पर आधारित)
बीबीसी से साभार
‘आरक्षण की व्यवस्था एक सफल प्रयोग है’
देश की न्यायपालिका जिस तरह प्रतिगामी फ़ैसले दे रही है, वह उसके सामंती ताकतों की आगे साष्टांग हो जाने का परिचायक है. हद तो यह है कि आप उसके फ़ैसलों की आलोचना भी नहीं कर सकते, आप अंदर किये जा सकते हैं. तो माननीयों, जो लोग सदियों से पांव की धूल बने रहे उनको अब तुम्हारी कानूनी किताबों की गुलामी स्वीकार नहीं, क्योंकि उन्होंने अपने अधिकार लड़ कर लिये थे, खैरात में नहीं, और उन्हें ऐसे ही बेकार नहीं हो जाने दिया जा सकता. आरक्षण पर नये फ़ैसले के विरोधस्वरूप यह आयोजन. संपादक-हाशिया
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योगेंद्र मानते हैं कि यदि आरक्षण न होता तो दलितों की स्थिति और भी बदतर होती |
ये वे लोग हैं जिन्होंने न तो हमारा समाज देखा है और न ही अवसरों की ग़ैर-बराबरी को समझने की कोशिश की है. ध्यान रहे कि किसी भी समाज में भिन्नताओं को स्वीकार करना उस समाज की एकता को बढ़ावा देता है न कि विघटन करता है.
मिसाल के तौर पर अमरीकी समाज ने जबतक अश्वेत और श्वेत के सवाल को स्वीकार नहीं किया, तबतक वहाँ विद्रोह की स्थिति थी और जब इसे सरकारी तौर पर स्वीकार कर लिया गया, तब से स्थितियाँ बहुत सुधर गई हैं.
हाँ, अगर आप भिन्नताओं की ओर से आँख मूँदना समाज को तोड़ने का एक तयशुदा फ़ार्मूला है.
अगर पिछले 50 साल के अनुभव पर एक मोटी बात कहनी हो तो मैं एक बात ज़रूर कहूँगा कि आरक्षण की व्यवस्था एक बहुत ही सफल प्रयोग रहा है, समाज के हाशियाग्रस्त लोगों को समाज में एक स्थिति पर लाने का.
सफल कैसे, इसे समझने के लिए इसके उद्देश्य को समझना बहुत ज़रूरी है.
आरक्षण का उद्देश्य
आरक्षण की व्यवस्था पूरे दलित समाज की सामाजिक स्थिति को बदलने का आधार न तो थी और न हो सकती है. आरक्षण की व्यवस्था ग़रीबी की समस्या का समाधान भी न तो कभी थी न बन सकती है.
कुछ सरकारी महकमों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण की व्यवस्था इस उद्देश्य से बनाई गई थी कि समाज में, राजनीति में और आधुनिक अर्थव्यवस्था के जो शीर्ष पद हैं, उनमें जो सत्ता का केंद्र है, वहाँ दलित समाज की एक न्यूनतम उपस्थिति बन सके.
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इस उद्देश्य को लेकर चलाई गई यह व्यवस्था इस न्यूनतम उद्देश्य में सफल रही है.
आज अगर हम सिविल सेवाओं से लेकर चिकित्सकों, इंजीनियरों के रूप में दलित समाज के कुछ लोगों को देख पा रहे हैं तो इसका श्रेय आरक्षण को जाता है. बल्कि यूँ कह सकते हैं कि अगर यह व्यवस्था नहीं होती तो शायद दलित समाज की स्थिति वर्तमान स्थिति से भी बदतर होती.
वैश्विक रूप से देखें तो दुनिया के जिन देशों में हाशिए पर पड़े लोगों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए जो प्रयोग हुए हैं, भारत में आरक्षण की व्यवस्था उनमें सबसे सफल प्रयोग के रूप में देखा जाएगा और दुनिया के बाकी देश इससे सीख सकते हैं.
चिंता
दिक्कत की बात यह है कि इतने वर्षों तक प्रयोग चलाने के बाद आरक्षण हमारे समाज में सामाजिक न्याय का पर्याय बन गया है. कई मायनों में उसका विकल्प बन गया है. यह दुखद स्थिति है.
यह तो उस तरह है कि कोई सर्जन एक ही कैंची से हर तरह की सर्जरी करे.
असल में आरक्षण एक विशेष स्थिति से निपटने का औजार है और वह विशेष स्थिति यह है कि समाज का जो वर्ग सिर्फ़ पिछड़ा ही नहीं रहा बल्कि जिसे बहिष्कृत किया गया हो, उसे अगर कुछ चुनिंदा कुर्सियों पर बैठाना है तो उन कुर्सियों पर निशान लगाकर उन्हें आरक्षित कर देना एक बेहतर तरीका है.
अब होता यह जा रहा है कि हर वर्ग की समस्याओं के लिए आरक्षण ही एकमात्र विकल्प से रूप में सुझाया जा रहा है. सामाजिक न्याय के पक्षधर लोग भी इसके बारे में सोचते नहीं हैं और केवल इसके बारे में आरक्षण को ही विकल्प मानते हैं.
आवश्यकता इस बात की है कि हम आरक्षण की व्यवस्था को और उसके इर्द-गिर्द जो ज़रूरतें हैं, उन्हें मज़बूत करें ताकि आरक्षण की व्यवस्था का सही अर्थों में सही लोगों तक लाभ पहुँच सके.
आरक्षण से आगे
आरक्षण सरकारी नौकरियों और राजनीति तक के सीमित क्षेत्र में लाभप्रद रहा है पर और भी मुद्दे हैं जिनका समाधान आरक्षण नहीं है और उनपर काम होना बाकी है.
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इनमें भूमि के बँटवारे की समस्या, शिक्षा में ग़ैर-बराबरी की समस्या और आर्थिक क्षेत्र में ग़ैर बराबरी की समस्या जैसे सवाल आते हैं जिनका समाधान आरक्षण नहीं है और हम इन सवालों पर कुछ नहीं कर रहे हैं.
जो वर्ग वर्जना और वंचना का शिकार नहीं रहे हैं, जैसे अन्य पिछड़ी जातियाँ हैं, जैसे महिलाएँ हैं, उनके लिए प्रारंभिक शिक्षा को बेहतर बनाने की ज़रूरत है.
इन वर्गों के लोगों को उससे ऊपर जाने पर जाति आधारित आरक्षण देने की ज़रूरत नहीं है बल्कि हम इसे मापने की कोशिश करें कि उसे किस तरह के पिछड़ेपन से गुज़रा है और उस आधार पर उसे वरीयता दी जाए.
साथ ही आरक्षण की व्यवस्था में कुछ बदलाव भी करने होंगे. जैसे एक पीढ़ी में जो लोग आरक्षण का लाभ उठा चुके हैं, उनकी दूसरी पीढ़ी को उस स्तर तक इस व्यवस्था का लाभ न मिले.
मसलन, अगर आरक्षण के ज़रिए कोई अध्यापक बन जाता है तो उसकी संतान को अध्यापक बनने तक के प्रयास में आरक्षण का लाभ न मिले. हाँ, अगर वो आईएएस बनना चाहता है तो ज़रूर दिया जाना चाहिए क्योंकि वहाँ स्थितियाँ दूसरी हो जाएंगी.
साथ ही जो जातियाँ राष्ट्रीय औसत से बेहतर हो चुकी हैं उनके लिए इस व्यवस्था को समाप्त करना चाहिए.
मैं नास्तिक क्यों हूं?
शहीद भगत सिंह का यह चर्चित लेख इस इरादे से कि नेट पर भी हिन्दी में भगत सिंह की सामग्री आये. कई कारणों से यह पूरा लेख मैं नहीं दे पा रहा हूं. जो यह लेख पूरा पढ़ना चाहते हैं, अंगरेज़ी में, वे यहां क्लिक करें. जल्दी ही यह पूरा लेख हिंदी में हाशिया पर उपलब्ध होगा.
भगत सिंह
एक नया सवाल उभर कर आया है। क्या मैं एक मिथ्याभिमान के कारण सर्वशक्तिमान, विश्वव्यापी, त्रिकालदर्शी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता? मैं ने कभी यह कल्पना तक नहीं की थी कि मेरा सामना ऐसे किसी प्रश्न से होगा। लेकिन कुछ मित्रों के साथ बातचीत के दौरान मुझे यह संकेत मिला कि मेरे कुछ साथी, जिनके बारे में मैं ज्यादा समझने का दावा नहीं करता और जिनसे कि मेरा बहुत कम सम्पर्क रहा था, वो यह सोचने पर विवश थे कि मेरे द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को नकार देना मेरे द्वारा की गई एक ज्यादती थी तथा साथ ही कुछ अंश मिथ्याभिमान का भी था जिसने मुझे अविश्वास की ओर प्रवृत्त किया है। खैरसमस्या थोडी ग़म्भीर है। मैं यह भी नहीं कहता कि मैं इन सब मानवीय गुणों से परे हूं। मैं एक पुरुष हूं, उससे अधिक कुछ नहीं। उससे अधिक होने का कोई भी दावा नहीं कर सकता। मेरे अन्दर भी यह कमजोरी है। मिथ्याभिमान भी मेरे स्वभाव का एक छोटा सा हिस्सा है। मैं अपने कॉमरेड्स के बीच तानाशाह के नाम से जाना जाता था। यहां तक कि मेरे मित्र श्री बी के दत्त ने भी कभी कभी मुझे ऐसा कहा। कुछ अवसरों पर मैं एक आततायी के रूप में भी कोसा गया। मेरे कुछ मित्र बडी ग़ंभीरता से शिकायत करते थे कि मैं उनकी इच्छा के विरुध्द उन पर अपनी राय थोपता था और अपने प्रस्ताव स्वीकार करा लेता था। हालांकि कुछ अंश तक यह सच भी है, मैं इस बात से इनकार नहीं करता। यह अहम का भाव भी हो सकता था। मेरे अन्दर मिथ्याभिमान है वैसा ही जैसे कि हमारे क्रान्तिकारी समुदाय में है जो कि दूसरे लोकप्रिय मतानुयायियों में नहीं है। किन्तु यह व्यक्तिगत अहम् नहीं है। शायद यह हमारे क्रान्तिकारी समुदाय का वैधानिक गर्व है जो कि मिथ्याभिमान कदापि नहीं हो सकता।
मिथ्याभिमान और अगर ज्यादा सटीक होकर कहें तो अहंकार स्वयं में व्यर्थ गर्व की अत्याधिक भावना को कहते हैं। या तो यह व्यर्थ अभिमान का ही भाव है जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया या फिर यह इस विषय पर किया गया गहन अध्ययन व चिन्तन मुझे ईश्वर में अविश्वास के निष्कर्ष पर लेकर आया है, यही एक प्रश्न है, जिसकी मैं यहां पर चर्चा करना चाहता हूं। सर्वप्रथम मुझे यह स्पष्ट करने दें कि स्वाभिमान और मिथ्याभिमान दो अलग अलग चीजें हैं।
सबसे पहले, मैं यह समझने में असफल रहा हूं कि व्यर्थ का अभिमान और व्यर्थ की भव्यता भी कभी ईश्वर को मानने की राह में आडे अा सकती है। मैं किसी महान आदमी की महानता को पहचानने से इनकार कर सकता हूं अगर मैंने भी बिना किसी योग्यता के, बिना उन गुणों को प्राप्त किये जो कि इस उद्देश्य के लिये अति आवश्यक हैं, कुछ हद तक लोकप्रियता हासिल की हो। इतना तो सोचा जा सकता है। लेकिन किस प्रकार एक भगवान में विश्वास करने वाला व्यक्ति, अपने मिथ्याभिमान के कारण विश्वास करना बन्द कर सकता है? इसके दो ही कारण हैं। या तो व्यक्ति स्वयं को भगवान का प्रतिद्वन्द्वी समझने लगे या फिर स्वयं को ही भगवान मान ले। इन दोनों ही स्थितियों में वह एक सच्चा नास्तिक नहीं हो सकता। पहले मामले में वह भगवान के अस्तित्व को नकार नहीं रहा और दूसरे मामले में भी वह यह स्वीकार करता है कि कोई तो चैतन्य अस्तित्व है जो परदे के पीछे से प्रकृति के सारे क्रियाकलापों को नियन्त्रित करता है। यहां यह महत्वहीन है कि या तो वह स्वयं को परमात्मा समझे या वह यह सोचे कि परमात्मा कोई है जो उससे भिन्न है। यहां उसका मूल उपस्थित है। यहां उसका विश्वास है। वह किसी भी अर्थ में नास्तिक नहीं। और मैं दोनों में से किसी वर्ग से ताल्लुक नहीं रखता।
मैं परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास को ही अस्वीकार करता हूं। मैं यह क्यों अस्वीकार करता हूं, इस बारे में बाद में चर्चा करेंगे। यहां मैं एक चीज स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि यह मिथ्याभिमान कतई नहीं है जिसने कि मुझे नास्तिकता के मत की ओर प्रेरित किया। न तो मैं उस परमात्मा का प्रतिद्वन्द्वी हूं, न ही कोई उसका अवतार और न ही स्वयं परमात्मा हूं। यहां यह बिन्दु स्पष्ट हो चुका है कि किसी अभिमान की वजह ने मुझे इस सोचने के तरीके की ओर नहीं ढकेला है। मुझे सत्यों की जांच कर लेने दें ताकि मैं अपने ऊपर लगे इन आरोपों को गलत सिध्द कर सकूं। मेरे इन मित्रों के अनुसार मैं वृथाभिमान के साथ बडा हुआ हूं शायद अनापेक्षित लोकिप्रियता प्राप्त करने की वजह से जो कि मुकदमों के दौरान दोनों केसों, दिल्ली बम काण्ड तथा लाहौर काण्ड के बाद मिली थी। ठीक है चलिये देखते हैं कि क्या उनके वक्तव्य सही है!
मेरी नास्तिकता अभी हाल ही में नहीं आरंभ हुई है। मैंने ईश्वर में विश्वास करना तभी छोड दिया था जब मैं एक अप्रसिध्द युवक था, जिसके अस्तित्व के बारे में मेरे उल्लेखित मित्रों को कुछ पता भी नहीं था। कम से कम एक कॉलेज का सामान्य छात्र तो अनपेक्षित अहंकार को पोषित नहीं कर सकता जो कि उसे नास्तिकता की ओर ले जाये। हालांकि कुछ प्रोफेसर्स का मैं प्रिय छात्र था और कुछ मुझे नापसन्द करते थे, मैं कभी एक परिश्रमी तथा पढाकू लडक़ा नहीं रहा। मुझे ऐसा कोई मौका ही नहीं मिला कि मैं वृथाभिमान जैसी किसी भावना में डूबता। बल्कि मैं तो एक शर्मीले स्वभाव का लडक़ा था, जिसका भविष्य को लेकर कोई आशाजनक प्रबन्ध नहीं था। और उन दिनों मैं एक पूर्ण नास्तिक भी नहीं था। मेरे दादा जी जिनके प्रभाव में पला बढा वे घोर आर्यसमाजी थे। और एक आर्यसमाजी कुछ भी हो सकता है पर नास्तिक नहीं। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद मैं पूरा एक साल लाहौर के डी ए वी स्कूल में पढा और हॉस्टल में रहा, वहां सुबह से लेकर शाम की प्रार्थना तक मैं गायत्री मंत्र” का जाप किया करता था घण्टों तक। तब मैं पूरी तरह श्रध्दालू था। बाद में मैं अपने पिता के साथ रहने लगा। जहां तक धार्मिक रूढिवादिता का सम्बन्ध है वे थोडे स्वतन्त्र विचारों के हैें। यह उनकी ही शिक्षा थी कि मैंने अपना जीवन स्वतन्त्रता प्राप्ति की महत्वाकांक्षा में लगा दिया। पर वे नास्तिक नहीं हैं। वे दृढ विश्वासी हैं। वे मुझे प्रेरित करते थे कि मैं रोज प्रार्थना किया करुं। तो, इस तरह मैं पला बढा। असहयोग आन्दोलन के समय मैंने नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया। यह तभी कि बात है कि मैंने स्वतन्त्र तौर पर सोचना और सभी धार्मिक समस्याओं तथा ईश्वर के बारे में चर्चा और आलोचना करना शुरु किया था। पर तब तक भी मैं धर्मविश्वासी था। तब तक मैं ने अपने अपने लम्बे केशों को बांधना शुरु कर दिया था पर मैं कभी पौराणिक गाथाओं तथा सिख धर्म या अन्य धर्म के मतों में विश्वास नहीं कर सका। पर मेरा दृढ विश्वास था कि ईश्वर का अस्तित्व तो है।
बाद में मैं रिवोल्यूशनरी पार्टी में शामिल हुआ। पहले नेता जिनके सम्पर्क में मैं आया, उनके सामने हालांकि मैं पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाया था किन्तु ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस भी मुझमें न था। मेरे ईश्वर को लेकर दुराग्रही पू छताछ के कारण वे कहा करते, ” जब चाहो प्रार्थना करो।” अब यह नास्तिकता है, इस समुदाय के मत को स्वीकार करने लिये कम साहस की आवश्यकता होती है। दूसरे नेता जिनके सम्पर्क में मैं आया वे ईश्वर के प्रति दृढ विश्वासी थे। उनका नाम था – आदरणीय कामरेड सचिन्द्र नाथ सान्याल, जो कि आजकल कराची काण्ड के सन्दर्भ में कालापानी की सजा काट रहे हैं। उनकी एकमात्र प्रसिध्द पुस्तक बन्दी जीवन के प्रथम पृष्ठ से ही ईश्वर भव्यता की स्तुति का गुणगान बढाचढा कर किया गया है। इस पुस्तक के दूसरे भाग का आखिरी पृष्ठ वेदान्तिक प्रशंसा और ईश्वर की रहस्यवादिता से ओत प्रोत है जो कि उनके विचारों का एक बहुत ही पवित्र हिस्सा है।
‘ क्रान्तिकारी पर्चे जो कि 28 जनवरी 1925 को पूरे भारत में वितरित किये गये, अभियोजन पक्ष की कहानी के अनुसार ये उनकी बौध्दिक मेहनत का नतीजा थे, इस गुप्त कार्य में प्रमुख नेता ने ही अपने विचार व्यक्त किये हैं। ये विचार उनके स्वयं के व्यक्तित्व के बेहद करीब हैं और अब यह अपरिहार्य था कि बाकि के सभी कार्यकर्ताओं को उनसे मतभेद होते हुए भी इनसे साम्यता रखनी होगी। इन परचों में एक पूरा पैराग्राफ परमात्मा की प्रशंसा में समर्पित था। यह पूरा रहस्यवाद था। यहां मैं यह इंगित करना चाहता था कि ईश्वर में अविश्वास का विचार क्रान्तिकारी पार्टी में अभी अंकुरित तक न हुआ था। काकोरी के प्रसिध्द शहीद – चारों ने अपने अंतिम दिन प्रार्थना करते हुए बिताए। रामप्रसाद बिस्मिल एक रूढिवादी आर्यसमाजी थे, समाजवाद और कम्यूनिज्म के बारे में व्यापक अध्ययन किये हुए होने के बावजूद भी। राजन लाहिडी भी उपनिषदों तथा गीता के श्लोकों के वाचन की अपनी इच्छा को न दबा सके। मैंने उन सब में सिर्फ एक व्यक्ति को देखा जिसने कभी प्रार्थना नहीं की, वे कहा करते थे, ” दर्शनशास्त्र मानवीय कमजाेरियों और ज्ञान की सीमाओं का ही परिणाम है।” वे भी कालापानी की सजा काट रहे हैं। किन्तु वे भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस नहीं कर सके।
उस समय तक मैं भी एक उदात्त, आदर्शवादी क्रान्तिकारी था। तब तक हमें महज अनुसरण ही करना होता था। अब वह समय आया जबकि जब कन्धों पर पूरी जिम्मेदारी का बोझ उठाना था। कुछ अपरिहार्य प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप पार्टी का अस्तित्व असंभव सा प्रतीत होने लगा था। उत्साही कामरेडों – विरोधी नेताओं ने हमारा उपहास उडाना शुरु कर दिया था। कुछ समय के लिये मैं भी डर गया था कि कहीं एक दिन मैं भी अपने कार्यक्रमों की निरर्थकता में विश्वास न करने लगूं। यह मेरे क्रान्तिकारी जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड था। ”अध्ययन” मेरे दिमाग के गलियारोें में यही आवाज गूंज रही थी। अपने आपको अपने विरोधियों के द्वारा दिये हुए तर्कों का मुकाबला करने के लिये अध्ययन करो। अपने समुदाय के पक्ष में तर्क करने के लिये अपने आपको समर्थ करने के लिये मैं ने पढना शुरु किया। मेरे पिछले विश्वास और सही गलत समझने की क्षमता में एक गज़ब का बदलाव आया। हमारी पिछली पीढी क़े क्रान्तिकारियों में हिंसा के मार्ग के प्रति एकमात्र लगाव जो प्रमुख था, अब गंभीर विचारों में बदलने लगा था। अब कोई रहस्यवाद न था, न ही अंधविश्वास! यथार्थ ही अब हमारा मत था।
बल का प्रयोग तभी न्यायोचित है जब वह अत्यन्त आवश्यक हो। अहिंसा की नीति सभी जनआन्दोलनों के लिये अपरिहार्य है। तरीकों के बारे में काफी कह चुका।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह आदर्श जिसके लिये कि हम लड रहे हैं उसकी साफ तसवीर हमारे जहन में हो। जबकि लडाई में कोई महत्वपूर्ण गतिविधि में नहीं हो रही थी, मुझे विभिन्न विश्व क्रान्तियों के प्रणेताओं के बारे में पढने का काफी अवसर मिले। मैं ने बेकनिन को पढा, एक अराजकतावादी नेता, कुछ मार्क्स के बारे में जो कि कम्यूनिज्म के पितामह हैं और काफी सारा लेनिन, ट्रोट्स्की और अन्य क्रान्तिकारी जिन्होंने सफलता पूर्वक अपने अपने देशों में क्रान्ति का संचालन किया था। ये सभी नास्तिक थे। बेकनिन की ” गॉड एण्ड स्टेट ” जो कि खण्डों में है, और इस विषय के बारे एक रोचक अध्ययन प्रस्तुत करती है। बाद में मैं ने एक किताब देखी जिसका शीर्षक था कॉमन सेन्स जो कि निर्लम्बा स्वामी द्वारा लिखी गई थी। यह एक प्रकार की रहस्यवादी नास्तिकता के विषय में थी। यह विषय मेरे लिये सर्वथा रुचिकर हो चला था। 1926 के अन्त तक मुझे इस बात की आधारहीनता पर पूर्ण विश्वास हो गया था कि किसी परमात्मा जिसने कि सबको बनाया और जो समस्त ब्रह्माण्ड का नियंत्रक और मार्गदर्शक है, उसका कोई अस्तित्व नहीं है। मैं ने अपने इस ईश्वर में अविश्वास को उजागर करना आरंभ किया और मैं ने इस विषय पर अपने मित्रों से चर्चा करना शुरु कर दिया था। अब मैं गंभीर नास्तिक घोषित हो चुका था। लेकिन इसका क्या औचित्य था इस पर मैं अब चर्चा करुंगा।
मई 1927 में लाहौर में गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी मेरे लिये आश्चर्यजनक थी। मैं इस बात से अनभिज्ञ था कि पुलिस मेरी तलाश में थी। अचानक एक बाग से गुजरते हुए मैंने अपने आपको पुलिस के बीच घिरा पाया। मैं स्वयं आश्चर्य में था कि उस वक्त मैं इतना शांत था। मुझे कोई संवेदन महसूस नहीं हो रहे थे ना ही मैं ने किसी उत्तेजना का अनुभव किया। मुझे पुलिस की हिरासत में ले लिया गया। अगले दिन मुझे रेल्वे पुलिस के लॉकअप में ले जाया गया जहां कि मुझे पूरा एक महीना काटना था। पुलिस अफसरों के साथ कई दिनों की बातचीत के बाद मैं ने अनुमान लगाया कि उनके पास कोई सूचना थी जिससे मेरा काकोरी काण्ड के लोगों से और अन्य क्रान्तिकारी गतिविधियों से सम्बन्ध जोडा जा सकता था। उन्होंने मुझे कहा कि जब काकोरी काण्ड का मुकदमा चल रहा था तब मैं लखनऊ गया था और मैं उनके भाग जाने की खास योजना के बारे में व्यवस्था कर रहा था। उनकी अनुमति मिलने के बाद हमने कुछ बम जमा किये और प्रयोग करने की खातिर उनमें से एक बम हमने 1926 के दशहरा के अवसर पर भीड में फेंका था। उन्होंने आगे बताया कि, अगर मैं उन्हें क्रान्तिकारी पार्टी की गतिविधियों पर प्रकाश डालने वाला बयान दे दूं तो इसीमें मेरी भलाई है। तब मुझे जेल में नहीं रखा जायेगा और छोड दिया जायेगा और इनाम भी मिलेगा, कोर्ट में वायदामाफ गवाह की तरह भी पेश नहीं किया जायेगा। उनके प्रस्ताव पर मुझे हंसी आ गई। यह पूर्णत: छल कपट था।
हमारे जैसे आदर्शों को मानने वाले लोग अपने ही निर्दोष लोगों पर बम नहीं फेंका करते। एक दिन सुबह मि न्यूमेन जो कि तब सीआईडी सीनीयर सुपरिटेन्डेन्ट थे, मेरे पास आए। और काफी सहानुभूति पूर्ण बातचीत के बाद उन्होंने मुझे यह खेदजनक समाचार बताया कि अगर मैं ने कोई बयान नहीं दिया, जैसा कि वे चाहते थे, तो वे मुझ पर काकोरी काण्ड के सन्दर्भ में राज्य के साथ युध्द करने के षडयन्त्र में और दशहरा बम काण्ड में निर्दोष लोगों की हत्या के सम्बन्ध में मुकदमे दायर करेंगे। और उन्होंने आगे यह भी बताया कि उनके पास इस बात के काफी सबूत हैं जिनकी बिना पर मुझे दोषी ठहरा कर फांसी दी जा सकती है।
उन दिनों मुझे विश्वास था – हालांकि मैं पूर्णत: निर्दोष था – कि पुलिस चाहे तो ऐसा भी कर सकती है। उसी दिन कुछ पुलिस अधिकारियों ने मुझसे आग्रह करना शुरु किया कि मैं भगवान की दोनों वक्त नियमित रूप से प्रार्थना किया करुं। अब मैं एक नास्तिक था। मैं अपने लिये निर्णय करना चाहता था कि मैं शान्ति और खुशहाली के दिनों में नास्तिक होने का दंभ भरता था या ऐसे कठिन समय में भी मैं अपने उन्हीं सिध्दान्तों से भी जुडा रह सकता था। काफी सोच समझ के बाद मैं ने फैसला किया कि मैं भगवान में विश्वास करने तथा उसकी प्रार्थना के लिये स्वयं को प्रेरित नहीं कर सकता। नहीं, कदापि नहीं। यही मेरी असली परीक्षा थी और मैं इसमें सफल रहा। एक पल के लिये भी मैं ने दूसरी कुछ चीज़ों की कीमत पर भी कभी अपनी गर्दन नहीं बचानी चाही। इस प्रकार मैं एक कट्टर नास्तिक था: और उसके बाद हमेशा रहा। इस परीक्षा में खरा उतरना आसान काम न था।
यह विश्वास कठिनाई के दौर को कोमल बना देता है, यहां तक कि कठिनाईयों को खुशगवार बना सकता है। भगवान में आदमी एक मजबूत सहारा व सांत्वना पा सकता है, लेकिन बिना उसके आदमी को स्वयं पर निर्भर रहना होता है। तेज तूफानों और चक्रवातों के बीच किसी का स्वयं अपने पैरों पर खडे रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है। ऐसी परीक्षा की घडियों में, मिथ्याभिमान अगर कोई होता भी है तो काफूर हो जाता है, और इन्सान आम विश्वासों को चुनौती देने का साहस नहीं कर सकता, अगर वह करता है तो हमें यही निष्कर्ष निकालना चाहिये कि, मात्र मिथ्याभिमान के अलावा उसके पास कोई विशेष शक्ति अवश्य है। अब बिलकुल यही परिस्थिति है मेरे सम्मुख।
मैं नास्तिक क्यों हूं?
शहीद भगत सिंह का यह चर्चित लेख इस इरादे से कि नेट पर भी हिन्दी में भगत सिंह की सामग्री आये. कई कारणों से यह पूरा लेख मैं नहीं दे पा रहा हूं. जो यह लेख पूरा पढ़ना चाहते हैं, अंगरेज़ी में, वे यहां क्लिक करें. जल्दी ही यह पूरा लेख हिंदी में हाशिया पर उपलब्ध होगा.
भगत सिंह
एक नया सवाल उभर कर आया है। क्या मैं एक मिथ्याभिमान के कारण सर्वशक्तिमान, विश्वव्यापी, त्रिकालदर्शी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता? मैं ने कभी यह कल्पना तक नहीं की थी कि मेरा सामना ऐसे किसी प्रश्न से होगा। लेकिन कुछ मित्रों के साथ बातचीत के दौरान मुझे यह संकेत मिला कि मेरे कुछ साथी, जिनके बारे में मैं ज्यादा समझने का दावा नहीं करता और जिनसे कि मेरा बहुत कम सम्पर्क रहा था, वो यह सोचने पर विवश थे कि मेरे द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को नकार देना मेरे द्वारा की गई एक ज्यादती थी तथा साथ ही कुछ अंश मिथ्याभिमान का भी था जिसने मुझे अविश्वास की ओर प्रवृत्त किया है। खैरसमस्या थोडी ग़म्भीर है। मैं यह भी नहीं कहता कि मैं इन सब मानवीय गुणों से परे हूं। मैं एक पुरुष हूं, उससे अधिक कुछ नहीं। उससे अधिक होने का कोई भी दावा नहीं कर सकता। मेरे अन्दर भी यह कमजोरी है। मिथ्याभिमान भी मेरे स्वभाव का एक छोटा सा हिस्सा है। मैं अपने कॉमरेड्स के बीच तानाशाह के नाम से जाना जाता था। यहां तक कि मेरे मित्र श्री बी के दत्त ने भी कभी कभी मुझे ऐसा कहा। कुछ अवसरों पर मैं एक आततायी के रूप में भी कोसा गया। मेरे कुछ मित्र बडी ग़ंभीरता से शिकायत करते थे कि मैं उनकी इच्छा के विरुध्द उन पर अपनी राय थोपता था और अपने प्रस्ताव स्वीकार करा लेता था। हालांकि कुछ अंश तक यह सच भी है, मैं इस बात से इनकार नहीं करता। यह अहम का भाव भी हो सकता था। मेरे अन्दर मिथ्याभिमान है वैसा ही जैसे कि हमारे क्रान्तिकारी समुदाय में है जो कि दूसरे लोकप्रिय मतानुयायियों में नहीं है। किन्तु यह व्यक्तिगत अहम् नहीं है। शायद यह हमारे क्रान्तिकारी समुदाय का वैधानिक गर्व है जो कि मिथ्याभिमान कदापि नहीं हो सकता।
मिथ्याभिमान और अगर ज्यादा सटीक होकर कहें तो अहंकार स्वयं में व्यर्थ गर्व की अत्याधिक भावना को कहते हैं। या तो यह व्यर्थ अभिमान का ही भाव है जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया या फिर यह इस विषय पर किया गया गहन अध्ययन व चिन्तन मुझे ईश्वर में अविश्वास के निष्कर्ष पर लेकर आया है, यही एक प्रश्न है, जिसकी मैं यहां पर चर्चा करना चाहता हूं। सर्वप्रथम मुझे यह स्पष्ट करने दें कि स्वाभिमान और मिथ्याभिमान दो अलग अलग चीजें हैं।
सबसे पहले, मैं यह समझने में असफल रहा हूं कि व्यर्थ का अभिमान और व्यर्थ की भव्यता भी कभी ईश्वर को मानने की राह में आडे अा सकती है। मैं किसी महान आदमी की महानता को पहचानने से इनकार कर सकता हूं अगर मैंने भी बिना किसी योग्यता के, बिना उन गुणों को प्राप्त किये जो कि इस उद्देश्य के लिये अति आवश्यक हैं, कुछ हद तक लोकप्रियता हासिल की हो। इतना तो सोचा जा सकता है। लेकिन किस प्रकार एक भगवान में विश्वास करने वाला व्यक्ति, अपने मिथ्याभिमान के कारण विश्वास करना बन्द कर सकता है? इसके दो ही कारण हैं। या तो व्यक्ति स्वयं को भगवान का प्रतिद्वन्द्वी समझने लगे या फिर स्वयं को ही भगवान मान ले। इन दोनों ही स्थितियों में वह एक सच्चा नास्तिक नहीं हो सकता। पहले मामले में वह भगवान के अस्तित्व को नकार नहीं रहा और दूसरे मामले में भी वह यह स्वीकार करता है कि कोई तो चैतन्य अस्तित्व है जो परदे के पीछे से प्रकृति के सारे क्रियाकलापों को नियन्त्रित करता है। यहां यह महत्वहीन है कि या तो वह स्वयं को परमात्मा समझे या वह यह सोचे कि परमात्मा कोई है जो उससे भिन्न है। यहां उसका मूल उपस्थित है। यहां उसका विश्वास है। वह किसी भी अर्थ में नास्तिक नहीं। और मैं दोनों में से किसी वर्ग से ताल्लुक नहीं रखता।
मैं परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास को ही अस्वीकार करता हूं। मैं यह क्यों अस्वीकार करता हूं, इस बारे में बाद में चर्चा करेंगे। यहां मैं एक चीज स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि यह मिथ्याभिमान कतई नहीं है जिसने कि मुझे नास्तिकता के मत की ओर प्रेरित किया। न तो मैं उस परमात्मा का प्रतिद्वन्द्वी हूं, न ही कोई उसका अवतार और न ही स्वयं परमात्मा हूं। यहां यह बिन्दु स्पष्ट हो चुका है कि किसी अभिमान की वजह ने मुझे इस सोचने के तरीके की ओर नहीं ढकेला है। मुझे सत्यों की जांच कर लेने दें ताकि मैं अपने ऊपर लगे इन आरोपों को गलत सिध्द कर सकूं। मेरे इन मित्रों के अनुसार मैं वृथाभिमान के साथ बडा हुआ हूं शायद अनापेक्षित लोकिप्रियता प्राप्त करने की वजह से जो कि मुकदमों के दौरान दोनों केसों, दिल्ली बम काण्ड तथा लाहौर काण्ड के बाद मिली थी। ठीक है चलिये देखते हैं कि क्या उनके वक्तव्य सही है!
मेरी नास्तिकता अभी हाल ही में नहीं आरंभ हुई है। मैंने ईश्वर में विश्वास करना तभी छोड दिया था जब मैं एक अप्रसिध्द युवक था, जिसके अस्तित्व के बारे में मेरे उल्लेखित मित्रों को कुछ पता भी नहीं था। कम से कम एक कॉलेज का सामान्य छात्र तो अनपेक्षित अहंकार को पोषित नहीं कर सकता जो कि उसे नास्तिकता की ओर ले जाये। हालांकि कुछ प्रोफेसर्स का मैं प्रिय छात्र था और कुछ मुझे नापसन्द करते थे, मैं कभी एक परिश्रमी तथा पढाकू लडक़ा नहीं रहा। मुझे ऐसा कोई मौका ही नहीं मिला कि मैं वृथाभिमान जैसी किसी भावना में डूबता। बल्कि मैं तो एक शर्मीले स्वभाव का लडक़ा था, जिसका भविष्य को लेकर कोई आशाजनक प्रबन्ध नहीं था। और उन दिनों मैं एक पूर्ण नास्तिक भी नहीं था। मेरे दादा जी जिनके प्रभाव में पला बढा वे घोर आर्यसमाजी थे। और एक आर्यसमाजी कुछ भी हो सकता है पर नास्तिक नहीं। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद मैं पूरा एक साल लाहौर के डी ए वी स्कूल में पढा और हॉस्टल में रहा, वहां सुबह से लेकर शाम की प्रार्थना तक मैं गायत्री मंत्र” का जाप किया करता था घण्टों तक। तब मैं पूरी तरह श्रध्दालू था। बाद में मैं अपने पिता के साथ रहने लगा। जहां तक धार्मिक रूढिवादिता का सम्बन्ध है वे थोडे स्वतन्त्र विचारों के हैें। यह उनकी ही शिक्षा थी कि मैंने अपना जीवन स्वतन्त्रता प्राप्ति की महत्वाकांक्षा में लगा दिया। पर वे नास्तिक नहीं हैं। वे दृढ विश्वासी हैं। वे मुझे प्रेरित करते थे कि मैं रोज प्रार्थना किया करुं। तो, इस तरह मैं पला बढा। असहयोग आन्दोलन के समय मैंने नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया। यह तभी कि बात है कि मैंने स्वतन्त्र तौर पर सोचना और सभी धार्मिक समस्याओं तथा ईश्वर के बारे में चर्चा और आलोचना करना शुरु किया था। पर तब तक भी मैं धर्मविश्वासी था। तब तक मैं ने अपने अपने लम्बे केशों को बांधना शुरु कर दिया था पर मैं कभी पौराणिक गाथाओं तथा सिख धर्म या अन्य धर्म के मतों में विश्वास नहीं कर सका। पर मेरा दृढ विश्वास था कि ईश्वर का अस्तित्व तो है।
बाद में मैं रिवोल्यूशनरी पार्टी में शामिल हुआ। पहले नेता जिनके सम्पर्क में मैं आया, उनके सामने हालांकि मैं पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाया था किन्तु ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस भी मुझमें न था। मेरे ईश्वर को लेकर दुराग्रही पू छताछ के कारण वे कहा करते, ” जब चाहो प्रार्थना करो।” अब यह नास्तिकता है, इस समुदाय के मत को स्वीकार करने लिये कम साहस की आवश्यकता होती है। दूसरे नेता जिनके सम्पर्क में मैं आया वे ईश्वर के प्रति दृढ विश्वासी थे। उनका नाम था – आदरणीय कामरेड सचिन्द्र नाथ सान्याल, जो कि आजकल कराची काण्ड के सन्दर्भ में कालापानी की सजा काट रहे हैं। उनकी एकमात्र प्रसिध्द पुस्तक बन्दी जीवन के प्रथम पृष्ठ से ही ईश्वर भव्यता की स्तुति का गुणगान बढाचढा कर किया गया है। इस पुस्तक के दूसरे भाग का आखिरी पृष्ठ वेदान्तिक प्रशंसा और ईश्वर की रहस्यवादिता से ओत प्रोत है जो कि उनके विचारों का एक बहुत ही पवित्र हिस्सा है।
‘ क्रान्तिकारी पर्चे जो कि 28 जनवरी 1925 को पूरे भारत में वितरित किये गये, अभियोजन पक्ष की कहानी के अनुसार ये उनकी बौध्दिक मेहनत का नतीजा थे, इस गुप्त कार्य में प्रमुख नेता ने ही अपने विचार व्यक्त किये हैं। ये विचार उनके स्वयं के व्यक्तित्व के बेहद करीब हैं और अब यह अपरिहार्य था कि बाकि के सभी कार्यकर्ताओं को उनसे मतभेद होते हुए भी इनसे साम्यता रखनी होगी। इन परचों में एक पूरा पैराग्राफ परमात्मा की प्रशंसा में समर्पित था। यह पूरा रहस्यवाद था। यहां मैं यह इंगित करना चाहता था कि ईश्वर में अविश्वास का विचार क्रान्तिकारी पार्टी में अभी अंकुरित तक न हुआ था। काकोरी के प्रसिध्द शहीद – चारों ने अपने अंतिम दिन प्रार्थना करते हुए बिताए। रामप्रसाद बिस्मिल एक रूढिवादी आर्यसमाजी थे, समाजवाद और कम्यूनिज्म के बारे में व्यापक अध्ययन किये हुए होने के बावजूद भी। राजन लाहिडी भी उपनिषदों तथा गीता के श्लोकों के वाचन की अपनी इच्छा को न दबा सके। मैंने उन सब में सिर्फ एक व्यक्ति को देखा जिसने कभी प्रार्थना नहीं की, वे कहा करते थे, ” दर्शनशास्त्र मानवीय कमजाेरियों और ज्ञान की सीमाओं का ही परिणाम है।” वे भी कालापानी की सजा काट रहे हैं। किन्तु वे भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस नहीं कर सके।
उस समय तक मैं भी एक उदात्त, आदर्शवादी क्रान्तिकारी था। तब तक हमें महज अनुसरण ही करना होता था। अब वह समय आया जबकि जब कन्धों पर पूरी जिम्मेदारी का बोझ उठाना था। कुछ अपरिहार्य प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप पार्टी का अस्तित्व असंभव सा प्रतीत होने लगा था। उत्साही कामरेडों – विरोधी नेताओं ने हमारा उपहास उडाना शुरु कर दिया था। कुछ समय के लिये मैं भी डर गया था कि कहीं एक दिन मैं भी अपने कार्यक्रमों की निरर्थकता में विश्वास न करने लगूं। यह मेरे क्रान्तिकारी जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड था। ”अध्ययन” मेरे दिमाग के गलियारोें में यही आवाज गूंज रही थी। अपने आपको अपने विरोधियों के द्वारा दिये हुए तर्कों का मुकाबला करने के लिये अध्ययन करो। अपने समुदाय के पक्ष में तर्क करने के लिये अपने आपको समर्थ करने के लिये मैं ने पढना शुरु किया। मेरे पिछले विश्वास और सही गलत समझने की क्षमता में एक गज़ब का बदलाव आया। हमारी पिछली पीढी क़े क्रान्तिकारियों में हिंसा के मार्ग के प्रति एकमात्र लगाव जो प्रमुख था, अब गंभीर विचारों में बदलने लगा था। अब कोई रहस्यवाद न था, न ही अंधविश्वास! यथार्थ ही अब हमारा मत था।
बल का प्रयोग तभी न्यायोचित है जब वह अत्यन्त आवश्यक हो। अहिंसा की नीति सभी जनआन्दोलनों के लिये अपरिहार्य है। तरीकों के बारे में काफी कह चुका।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह आदर्श जिसके लिये कि हम लड रहे हैं उसकी साफ तसवीर हमारे जहन में हो। जबकि लडाई में कोई महत्वपूर्ण गतिविधि में नहीं हो रही थी, मुझे विभिन्न विश्व क्रान्तियों के प्रणेताओं के बारे में पढने का काफी अवसर मिले। मैं ने बेकनिन को पढा, एक अराजकतावादी नेता, कुछ मार्क्स के बारे में जो कि कम्यूनिज्म के पितामह हैं और काफी सारा लेनिन, ट्रोट्स्की और अन्य क्रान्तिकारी जिन्होंने सफलता पूर्वक अपने अपने देशों में क्रान्ति का संचालन किया था। ये सभी नास्तिक थे। बेकनिन की ” गॉड एण्ड स्टेट ” जो कि खण्डों में है, और इस विषय के बारे एक रोचक अध्ययन प्रस्तुत करती है। बाद में मैं ने एक किताब देखी जिसका शीर्षक था कॉमन सेन्स जो कि निर्लम्बा स्वामी द्वारा लिखी गई थी। यह एक प्रकार की रहस्यवादी नास्तिकता के विषय में थी। यह विषय मेरे लिये सर्वथा रुचिकर हो चला था। 1926 के अन्त तक मुझे इस बात की आधारहीनता पर पूर्ण विश्वास हो गया था कि किसी परमात्मा जिसने कि सबको बनाया और जो समस्त ब्रह्माण्ड का नियंत्रक और मार्गदर्शक है, उसका कोई अस्तित्व नहीं है। मैं ने अपने इस ईश्वर में अविश्वास को उजागर करना आरंभ किया और मैं ने इस विषय पर अपने मित्रों से चर्चा करना शुरु कर दिया था। अब मैं गंभीर नास्तिक घोषित हो चुका था। लेकिन इसका क्या औचित्य था इस पर मैं अब चर्चा करुंगा।
मई 1927 में लाहौर में गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी मेरे लिये आश्चर्यजनक थी। मैं इस बात से अनभिज्ञ था कि पुलिस मेरी तलाश में थी। अचानक एक बाग से गुजरते हुए मैंने अपने आपको पुलिस के बीच घिरा पाया। मैं स्वयं आश्चर्य में था कि उस वक्त मैं इतना शांत था। मुझे कोई संवेदन महसूस नहीं हो रहे थे ना ही मैं ने किसी उत्तेजना का अनुभव किया। मुझे पुलिस की हिरासत में ले लिया गया। अगले दिन मुझे रेल्वे पुलिस के लॉकअप में ले जाया गया जहां कि मुझे पूरा एक महीना काटना था। पुलिस अफसरों के साथ कई दिनों की बातचीत के बाद मैं ने अनुमान लगाया कि उनके पास कोई सूचना थी जिससे मेरा काकोरी काण्ड के लोगों से और अन्य क्रान्तिकारी गतिविधियों से सम्बन्ध जोडा जा सकता था। उन्होंने मुझे कहा कि जब काकोरी काण्ड का मुकदमा चल रहा था तब मैं लखनऊ गया था और मैं उनके भाग जाने की खास योजना के बारे में व्यवस्था कर रहा था। उनकी अनुमति मिलने के बाद हमने कुछ बम जमा किये और प्रयोग करने की खातिर उनमें से एक बम हमने 1926 के दशहरा के अवसर पर भीड में फेंका था। उन्होंने आगे बताया कि, अगर मैं उन्हें क्रान्तिकारी पार्टी की गतिविधियों पर प्रकाश डालने वाला बयान दे दूं तो इसीमें मेरी भलाई है। तब मुझे जेल में नहीं रखा जायेगा और छोड दिया जायेगा और इनाम भी मिलेगा, कोर्ट में वायदामाफ गवाह की तरह भी पेश नहीं किया जायेगा। उनके प्रस्ताव पर मुझे हंसी आ गई। यह पूर्णत: छल कपट था।
हमारे जैसे आदर्शों को मानने वाले लोग अपने ही निर्दोष लोगों पर बम नहीं फेंका करते। एक दिन सुबह मि न्यूमेन जो कि तब सीआईडी सीनीयर सुपरिटेन्डेन्ट थे, मेरे पास आए। और काफी सहानुभूति पूर्ण बातचीत के बाद उन्होंने मुझे यह खेदजनक समाचार बताया कि अगर मैं ने कोई बयान नहीं दिया, जैसा कि वे चाहते थे, तो वे मुझ पर काकोरी काण्ड के सन्दर्भ में राज्य के साथ युध्द करने के षडयन्त्र में और दशहरा बम काण्ड में निर्दोष लोगों की हत्या के सम्बन्ध में मुकदमे दायर करेंगे। और उन्होंने आगे यह भी बताया कि उनके पास इस बात के काफी सबूत हैं जिनकी बिना पर मुझे दोषी ठहरा कर फांसी दी जा सकती है।
उन दिनों मुझे विश्वास था – हालांकि मैं पूर्णत: निर्दोष था – कि पुलिस चाहे तो ऐसा भी कर सकती है। उसी दिन कुछ पुलिस अधिकारियों ने मुझसे आग्रह करना शुरु किया कि मैं भगवान की दोनों वक्त नियमित रूप से प्रार्थना किया करुं। अब मैं एक नास्तिक था। मैं अपने लिये निर्णय करना चाहता था कि मैं शान्ति और खुशहाली के दिनों में नास्तिक होने का दंभ भरता था या ऐसे कठिन समय में भी मैं अपने उन्हीं सिध्दान्तों से भी जुडा रह सकता था। काफी सोच समझ के बाद मैं ने फैसला किया कि मैं भगवान में विश्वास करने तथा उसकी प्रार्थना के लिये स्वयं को प्रेरित नहीं कर सकता। नहीं, कदापि नहीं। यही मेरी असली परीक्षा थी और मैं इसमें सफल रहा। एक पल के लिये भी मैं ने दूसरी कुछ चीज़ों की कीमत पर भी कभी अपनी गर्दन नहीं बचानी चाही। इस प्रकार मैं एक कट्टर नास्तिक था: और उसके बाद हमेशा रहा। इस परीक्षा में खरा उतरना आसान काम न था।
यह विश्वास कठिनाई के दौर को कोमल बना देता है, यहां तक कि कठिनाईयों को खुशगवार बना सकता है। भगवान में आदमी एक मजबूत सहारा व सांत्वना पा सकता है, लेकिन बिना उसके आदमी को स्वयं पर निर्भर रहना होता है। तेज तूफानों और चक्रवातों के बीच किसी का स्वयं अपने पैरों पर खडे रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है। ऐसी परीक्षा की घडियों में, मिथ्याभिमान अगर कोई होता भी है तो काफूर हो जाता है, और इन्सान आम विश्वासों को चुनौती देने का साहस नहीं कर सकता, अगर वह करता है तो हमें यही निष्कर्ष निकालना चाहिये कि, मात्र मिथ्याभिमान के अलावा उसके पास कोई विशेष शक्ति अवश्य है। अब बिलकुल यही परिस्थिति है मेरे सम्मुख।
न हन्यते
नंदीग्राम में 100 से ज्यादा लोग मारे गये हैं, 200 अब भी लापता हैं. वहां महिलाओं के साथ सीपीएम के कैडरों ने बलात्कार किया. बच्चों तक को नहीं छोड़ा गया है. यह दस्तावेज़ी फ़िल्म किसानों के इसी संघर्ष के बारे में है. यह फ़िल्म नंदीग्राम के ताज़ा नरसंहार से पहले बनायी गयी थी. फ़िल्म देखने के लिए यहां क्लिक करें. कुछ और फ़िल्में देखने के लिए यहां क्लिक करें.
न हन्यते
नंदीग्राम में 100 से ज्यादा लोग मारे गये हैं, 200 अब भी लापता हैं. वहां महिलाओं के साथ सीपीएम के कैडरों ने बलात्कार किया. बच्चों तक को नहीं छोड़ा गया है. यह दस्तावेज़ी फ़िल्म किसानों के इसी संघर्ष के बारे में है. यह फ़िल्म नंदीग्राम के ताज़ा नरसंहार से पहले बनायी गयी थी. फ़िल्म देखने के लिए यहां क्लिक करें. कुछ और फ़िल्में देखने के लिए यहां क्लिक करें.
नंदीग्राम नरसंहार के साक्ष्य
गुजरात में जब दंगे हुए तो उसके पहले नरेंद्र मोदी ने नरसंहार की पूरी योजना बनायी थी और इसकी तैयारी कई महीनों से चल रही थी. नंदीग्राम पर आज एक जांच टीम की रिपोर्ट आयी है, जिसने यह कहा है कि नंदीग्राम के नरसंहार की पूरी तैयारी पहले से चल रही थी और सरकार में बैठे उच्चाधिकारियों के स्तर पर इसकी पूरी योजना बनायी गयी थी. ऐसी स्थिति में उन
अधिकारियों को मुख्यमंत्री बुद्धदेव की अनुमति भी लेनी पडी़ होगी जो गृह मंत्रालय देखते हैं. इसमें कहा गया है कि जिस तरह की घटनाएं 14 मार्च को घटीं और उसके बाद जो हुआ उसको देखें तो सीपीएम और पुलिस की मिलीभगत साफ़ दिखती है. रिपोर्ट में पीड़ितों से बातचीत दी गयी है और यह बताया गया है कि किस तरह की कयामत टूट पड़ी थी नंदीग्राम पर. इसे तैयार किया है एडीपीआर, पीबीकेएमएस आदि ने . इन संगठनों ने कोलकाता उच्च न्यायालय में इस मामले में 15 मार्च को एक याचिका दाखिल की थी जिस पर कार्रवाई हो रही है.
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