Archive for April, 2007
जाति आधारित जन गणना के पक्षधर थे मधु लिमये
विनोदानंद प्रसाद सिंह
एक मई, १९२२ को समाजवादी नेता मधु रामचंद्र लिमये का जन्म हुआ था. उनका देहावसन ८ जनवरी को हुआ. भारत में समाजवादी आंदोलन की पहली पीढ़ी के नेता आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और डॉ राममनोहर लोहिया के बाद सबसे अधिक लेखन मधु लिमये ने कि या. वे के वल लेखक नहीं थे. उन्होंने कि सी से भी क म संघर्ष नहीं कि या. १९८२ में वे दलगत राजनीति से अलग हो गये. दलगत राजनीति छोड़ने का वास्तविक कारण था, राजनीति के चरित्र का उनके माफि क नहीं रह जाना. उन्होंने एक घटना का जिक्र मुझसे कि या था. मधु लिमये पहली बार १९६४ के उपचुनाव में मुंगेर संसदीय क्षेत्र से लोक सभा के लिए निर्वाचित हुए थे. फि र १९६७ मं वहीं से जीते थे. वहीं से १९७७ में जीते. १९८० में वे बांका से चुनाव लड़ रहे थे. दोनों ही क्षेत्र पड़ोसी क्षेत्र हैं. संयोगवश एक ऐसा इलाका है जो पहले मुंगेर संसदीय क्षेत्र का हिस्सा था और बाद में बांका क्षेत्र का हिस्सा हो गया. वहां एक जगह एक सज्जन १९६४ से ही अपना मकान चुनाव कार्यालय के लिए देते थे. क भी उन्होंने कोई कि राय नहीं मांगा. १९८० में भी वहीं उनका चुनाव कार्यालय था. इस बार मालिक ने कि राया मांगा. कार्यक र्ता ने जब मधु जी की साधनहीनता की बात क ही तो मकान मालिक ने क हा कि अब तो वे सत्तारू ढ़ पार्टी के सदस्य हैं तो फिर साधनहीनता क्यों? मधुजी इस उत्तर से मर्माहत हुए थे. ऐसी घटनाएं बड़ा कारण बनीं. मधुजी की इस क थनी-क रनी में अंतर नहीं था. वे सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध थे. इसके अनेक उदाहरण हैं. वर्षों पहले जब अनेक समाजवादी, साम्यवादी और सिद्धांत क ी दुहाई देनेवाले नेता बात तो क रते थे समान शिक्षा क ी, लेकि न अपनी संतानों क ो पढ़ने के लिए भेजते थे अंगरेजी माध्यम के तथाक थित पब्लिक स्कू लों में, उस समय उन्होंने अपने एक लौते पुत्र अनिरुद्ध क ो भेजा था मराठी माध्यम से स्कू ल में. १९५५ में बीमार रहने के बावजूद उन्होंने गोवा मु`ति आंदोलन में भाग लिया, जहां पुर्तगालियों ने उनक ी क स क र पिटाई क ी थी. एक बार तो यह भी अफ वाह उड़ी कि उनक ी मृत्यु हो गयी. पुर्तगाली सैनिक अदालत ने १२ साल क ी क ठोर सजा दी थी. १९५७ में भारत सरक ार और जनमत के दबाव में सारे आंदोलनक ारियों क ो रिहा कि या गया.
१९७५ में इंदिरा गांधी ने आपातक ाल लागू क र लोक तंत्र क ा गला घोंटा था और तानाशाही स्थापित क ी थी. उसी के तहत लोक सभा क ी मियाद भी पांच साल से छह साल क र दी गयी थी. आम चुनाव १९७१ में हुआ था और १९७६ में उसक ी मियाद पूरी हो रही थी. अनेक विपक्षी सांसद जेलों में बंद थे. के वल मधु लिमये ने १९७६ में संसद क ी मियाद पूरी होने पर इस्तीफ ा दिया था. उन्हीं से प्रभावित हो क र उनके साथी सह बंदी शरद यादव ने भी इस्तीफ ा दिया था. १९७७ के चुनाव में जनता पार्टी क ी जीत हुई और मोरारजी भाई प्रधानमंत्री बने. मधु लिमये एक प्रमुख घटक के नेता थे. वे स्वयं मंत्रिमंडल में जा सक ते थे. लेकि न इसके बदले उन्होंेने मधु दंडवते, जार्ज फ र्नांडीस और पुरुषोत्तम क ौशिक क ो मंत्रिमंडल में भेजा. मधु लिमये क ो १९८० में बांक ा चुनाव हारने के बाद चौधरी चरण सिंह ने राज्य सभा क ा सदस्य बनने क ा आग्रह कि या. लेकि न उन्होंने पिछले दरवाजे से सांसद में जाना स्वीक ार नहीं कि या. मधु लिमये प्रखर राष्टवादी थे. आजादी के बाद भारत के सामने सबसे बड़ी समस्या थी एक राष्टराज्य बनाने क ी. ७० और ८० के दशक में जब पंजाब, असम जैसे राज्यों में अस्मिता के सवाल पर आंदोलन शुरू हुए, उस समय बहुत सारे समाजवादी भी उसके पक्षधर थे. मैं भी उनमंे से एक था. उस समय भी मधु जी ने उसक ा समर्थन नहीं कि या था. जब पंजाब से पानी के सवाल पर संघर्ष शुरू होक र स्वायत्तता क ी मांग तक पहुंच रहा था तो मधु जी ने एक लंबा शोधपरक लेख लिखा और क हा कि वास्तव में अन्याय तो राजस्थान के साथ हो रहा है. इसक ा यह मतलब नहीं कि मधु जी सिखों या असम के छात्रों के खिलाफ थे. १९८४ में इंदिरा गांधी क ी हत्या के तत्क ाल बाद सिखों क ा क त्ल कि या जा रहा था. उन दिनों मधु जी वेस्टर्न क ोर्ट के एक क मरे में रहते थे. वेस्टर्न क ोर्ट के अहाते के बाहर एक टै`सी पड़ाव था, जहां अधिक तर गाड़ी चलानेवाले सिख थे. उन पर हमला हुआ था और गाड़ियों में आग लगा दी गयी थी. प्रतिकू ल स्वास्थ्य के बावजूद वे बाहर निक लने के लिए छटपटा रहे थे और बार बार क ह रहे थे कि `या यही देखने के लिए मैंे जिंदा हूं.
उन्होंने क्षेत्रीय अस्मिता के सवाल क ो श`ति और सत्ता के विकेें द्रीक रण से जोड़ा और चौखंभा राज्य क ी अवधारणा क ी पुनर्व्याख्या क ी. वे मानते थे कि राष्ट तभी मजबूत हो सक ता है जब देश में समता के मूल्यों पर आधारित समाज क ा निर्माण हो. इसलिए वे क मजोर तबक ोंक ो विशेष अवसर देने क ी वक ालत क रते रहे. जब १९९० में मंडल क मीशन के एक हिस्से क ो लागू क रने के सवाल पर पूरे देश में बवाल मचा तो भी उन्होंने आरक्षण के मुद्दे पर अपनी बात क हनी नहीं छोड़ी. उस समय उन्होंेने एक लंबा लेख लिखा था, जिसक ा शीर्षक था-आरक्षण क ी स्वत: समापनीय योजना. उन्होंने क हा कि जनगणना द्वारा विभिन्न जातियों क ी संख्या क ा पता लगाना जरू री है. जातियों क ी जनगणना क रने में जातीयता नहीं बढ़ती. १९३१ के बाद जाति आधारित जनगणना खत्म क र दी गयी. उससे जातीयता खत्म हो गयी? या बढ़ी? उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि अन्य पिछड़े वर्गों एवं उच्च् जातियों के गरीब तबक ों क ो उचित प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और ऐसा न हो कि आरक्षित क ोटे पर के वल पुरुषों क ा एक ाधिक ार हो. उस समय ही उन्होंने सुझाव दिया था कि सुझाव में आरक्षण लागू होने पर विचार क रना चाहिए, `योंकि अन्य पिछड़े वर्गों में शिक्षा क ा प्रसार नहीं होगा तब तक सेवाओं मेंे आरक्षण दिखावे क ी वस्तु होगी. यह भी क हा था कि उच्च् जातियों-वर्गों के आर्थिक दृष्टि से क मजोर तबक ों क ो भी आरक्षण मिले. आरक्षण क ी सीमा ५० प्रतिशत तक ही रहने क ा क ोई औचित्य नहीं है. उन्होंने एक महत्वपूर्ण सुझाव यह भी दिया था कि जिन जातियों क ो सरक ारी नौक रियोंे मंे उनक ी जनसंख्या के अनुपात मंे क म-से-क म ५० प्रतिशत हिस्सा मिल चुक ा है, उन पर आर्थिक क सौटी लगायी जाये. अगर उनक ा प्रतिनिधित्व क म हो तो उन पर आर्थिक क सौटी नहीं लगायी जाये.
आज मलाईदार तबके क ी बहस के संदर्भ में यह सुझाव बहुत ही प्रांसगिक है. उनक ा अनुमान था कि अगर ईमानदारी से यह लागू कि या जाये तो अगले चार-पांच दशक ों में आरक्षण क ी जरू रत स्वत: समाप्त् हो जायेगी. इन दिनों सच्च्र क मेटी क ी रिपोर्ट बड़ी चर्चा में है. प्रत्येक दल अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार उसक ी व्याख्या क र रहा है. अब सच्च्र क मेटी के रिपोर्ट क ा उपयोग इसलिए कि या जा रहा है कि इस तरीके से वोट बैंक क ो अक्षुण्ण बनाया जाये या रखा जाये. जो लोग चिल्लाते हंै कि अल्पसंख्यक ों और खास क र मुसलमानों के प्रति तुष्टीक रण क ी नीति चलायी जा रही है. इसमें साफ -साफ क हा गया है कि मुसलमानों क ी सामाजिक , आर्थिक स्थिति अन्य वर्गों से बदतर है. इस सच्चई क ो क ौन नहीं जानता कि उच्च् सेवाओं के मामले में यहां तक कि निम्न सेवाओं के मामलों में, संपत्ति के मामले में मुसलमानों क ी स्थिति तुलनात्मक रू प से खराब है? दूसरी ओर धर्म के आधार पर आरक्षण देने क ी वक ालत क रनेवाले लोगों के लिए भी सच्च्र क मेटी क ी रिपोर्ट क ी अनुशंसा क ोई मदद नहीं क रती. सच्च्र क मेटी ने धर्म पर आधारित आरक्षण क ो नक ारा है. इस संबंध में अपनी मृत्यु के कु छ ही दिनों पहले मधु जी ने चेतावनी भरे शब्दों में क हा था कि धर्म आधारित आरक्षण क ा खतरनाक खेल न खेलंे.
आज मधु जी नहीं हैं. कु छ अखबारों या संस्थानों क ो छोड़ उन पर लेख नहीं लिखे जायेेंगे, गोष्ठियां नहीं होंगी, `योंकि जब राजनीति में वोट बैंक बनाने क ी रणनीति ही प्रमुख है तो जातिविहीन समाज और राजनीति क ी वक ालत क रनेवाले लोग उन्हें कै से याद क रेंगे? उनक ो याद क रने से क ोई वोट बैंेक शायद ही बने.
मधु जी क ो क ई मामलांे में गलत समझा गया. वे स्वभावत: अंतर्मुखी थे, पर कु छ लोग उन्हें घमंडी मानते थे. फि र भी जो लोग कु छ समय के लिए भी उनके संपर्क मंे आये, उन्होंेने उनक ी सादगी, उनक ी सरलता, उनक ी विद्वता क ो महसूस कि या. सबसे बड़ी विडंबना तो यह रही कि जिस मधु लिमये ने हर मोड़ पर समाजवादी आंदोलन क ी एक ता क ो क ायम रखने क ी क ोशिश क ी, उन्हें ही तोड़क क हा गया, दूसरे के द्वारा नहीं, अपनों के द्वारा ही.
भारतीय राज सत्ता और हिंदी
जसम से जुड़े रविभूषण भाषा और संस्कृति पर लिखते रहे हैं. इस लेख में वे हिंदी और भारत की राज्सत्ता के चरित्र का आकलन कर रहे हैं.
रविभूषण
20सवीं सदी के भारत में आजादी के पहले महात्मा गांधी ने अहिंदी क्षेत्र में हिंदी के विकास के लिए जिन संस्थाओं का गठन किया, उनका हिंदी के प्रचार-प्रसार में ऐतिहासिक महत्व है. 1885 में स्थापित कांग्रेस कई वर्षों तक अंगरेजी का दामन पकड़े हुई थी. राजनीति के क्षेत्र में सक्रि य लोगों की शिक्षा-दीक्षा और उनकी सामाजिक -राजनीतिक दृष्टि से भी इसका संबंध था. ब्रिटिश शासन में अंगरेजी का जो प्रभुत्व था, उससे कहीं अधिक आज है. भाषा का प्रश्न मुख्यत: सामाजिक -सांस्कृतिक प्रश्न है, पर जब राजनीतिक हस्तक्षेप सर्वत्र जारी हो, तो उससे भाषा भी अछूती नहीं रहती. भाषा और राजनीति के घनिष्ठ संबंधों पर अनिवार्य रूप से विचार होना चाहिए. इसलिए कि राजनीतिक प्रयोजन का क्षेत्र बड़ा है, जिसमें संपूर्ण समाज आ जाता है. राजनीति की भाषा और भाषा की राजनीति पर एक साथ विचार करने से ही हम समझ सकते हैं कि स्वतंत्र भारत में राज सत्ता की भाषा अंगरेजी क्यों है? क्यों सरकारें बच्चों को आरंभिक कक्षाओं से अंगरेजी पढ़ने पर विवश क र रही है. शिक्षा-नीति और भाषा-नीति सत्ता से जुड़ी है और स्वतंत्र भारत में इन्हें अलग-अलग रख कर विचार होता रहा है, जो विशेष उपयोगी और सार्थक नहीं हैं. हिंदी कभी सत्ता की भाषा नहीं रही हैं. उसे सत्ता की भाषा बनाने की चाह रखनेवाले उससे अपना आर्थिक स्वार्थ भी सिद्ध करना चाहते हैं. हिंदी का प्रश्न मात्र भाषा का नहीं, वह सुंदर, स्वच्छ और सार्थक लोकतंत्र का भी प्रश्न है. भारतीय लोकतंत्र के हिलते रहने और चरमराने के जितने कारण हों, उनमें एक कारण भाषा भी है, क्योंकि हमने लोक भाषा और जन भाषा की उपेक्षा क र उस अभिजात भाषा को महत्व दे रहे हैं, जिसका व्यवहार करने वालों की संख्या अधिक नहीं है. राजसत्ता जब तक अभिजात और कुलीन वर्ग के पक्ष में है, तब तक शासन प्रणाली में, संसद और न्यायालयों में जनभाषा स्वीकार्य नहीं हो सकती. महात्मा गांधी की दृष्टि दूरदर्शी और व्यापक थी. हिंदी का उन्होंने हथियार के रू प में इस्तेमाल किया. सामान्य जनकर्म, श्रम, संघर्ष से विमुख नहीं होते. इसी कारण उनकी भाषा में पसीना और खून मिला होता है. हिंदी श्रम और संघर्ष की भाषा है. श्रम से जुड़े और संघर्षशील व्यक्ति की दृष्टि अन्य की तुलना में अधिक उदार होती है. हिंदी उदार भाषा है और इसकी उदारता के सामाजिक कारणों को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए. जो भाषा उदार नहीं होगी, वह बड़े स्तर पर संपर्क भाषा भी नहीं बन सके गी. हमें भारत के प्रशासनिक ढांचे के साथ हिंदी या भारतीय भाषाओं को जोड़ कर देखना होगा. यह सच है कि विगत कुछ वर्षों से स्थितियां बदल रही हैं. अगर एक ओर उदारीकरण और वैश्वीकरण है तो दूसरी ओर हाशियों से निरंतर उठ रही आवाजें भी हैं. परिपक्व राजनीतिक चेतना व दृष्टि का अभाव भले हो, पर एक अकुलाहट और खलबालाहट भी मौजूद है. राज सत्ता में वंचित लोगों की भागीदारी बढ़ रही है, पर उस पर नियंत्रण जिसका है, उसे हमें अवश्य देखना चाहिए. भारतीय पूंजीपति के साथ विदेशी आर्थिक शक्ति यां भारतीय राज सत्ता को नियंत्रित क र रही हैं. हमारी सामाजिक -राजनीतिक चेतना का सही अर्थों में विकास नहीं हो रहा है. आर्थिक विकास के जिस मार्ग और मॉडल को हमने अपनाया है, वह पराया हैं. मॉडल जिनका होगा, उनकी भाषा ही राज सत्ता की भाषा होगी. स्वतंत्र भारत में हिंदी के प्रश्न को व्यापक संदर्भों में रख कर देखना होगा. भाषा का प्रश्न सामाजिक प्रश्न है और सामाजिक विकासादि के साथ हमारी राजनीतिक दृष्टि जुड़ी है. अब आर्थिक दृष्टि राजनीतिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है. स्वतंत्र भारत की अर्थ संबंधी नीतियां एक नहीं रही हैं. नेहरू के समय की अर्थ नीति मिश्रित थी. प्राइवेट सेक्टर और पब्लिक सेक्टर दोनों थे. राजीव गांधी के समय ही इस नीति में बदलाव शुरू होने लगे थे. विश्व में स्थितियां बदल रही थीं और भारत का विदेशी मुद्रा भंडार रिक्त हो रहा था. यह कहना गलत होगा कि ऐसी भूचाली स्थिति के लिए नेहरू जिम्मेदार थे. आज भारतीय राजनीति में गांधी-नेहरू की चर्चा कम होती है. या उनके विचार पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुके हैं. विचारों की विदाई के बाद कुछ भी शेष नहीं रह जाता. भाषा के साथ विचार और संस्कृति जुड़ी होती है. अंगरेजी सत्ता की भाषा रही है, यह देश के अधिकारियों और बौद्धिकों की भाषा है. आज समाजवाद की कहीं चर्चा नहीं है. वह संकट में है. रणधीर सिंह ने अपनी पुस्तक क्राइसिस ऑफ सोशियोलिज्म में इस पर विस्तार से विचार किया है. भारतीय राज सत्ता सामान्य जन के विरुद्ध है. देश के लगभग तीन लाख गांवों में शुद्ध पानी उपलब्ध नहीं है. इसका आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है, पर यह लगभग तय है कि स्वतंत्र भारत में जितनी बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, गुलाम भारत में उतने किसान आत्महत्या नहीं करते थे. हिंदी हत्यारों की भाषा नहीं है. इसकी उदारता के भाषिक पक्षों पर ही नहीं रुक कर इससे संबद्ध अन्य कारक तत्वों पर भी हमें ध्यान देना चाहिए. हिंदी समाज का व्याक रण बदल रहा है. भाषा का ही व्याकरण नहीं होता, अपितु प्रत्येक समाज का अपना व्याकरण होता है. सामाजिक व्याकरण से हमारा तात्पर्य सामाजिक इकाइयों और संरचनाओं से है, जो स्थिर नहीं रहती और समयानुसार बदलती चलती हैं. ये बदलाव दोनों ही रूपों में जाने-अनजाने होते रहते हैं. स्वाधीनता आंदोलन के समय महात्मा गांधी ने हिंदी को सर्वाधिक महत्व इसलिए दिया था कि इसी भाषा में वे भारत के सामान्य जन से संवाद कर सक ते थे. आज राज सत्ता का सामान्य जन से कोई संवाद नहीं है. कितने विधायकों और सांसदों का अपने निर्वाचन क्षेत्र की सामान्य जनता से निरंतर सक्रिय और जीवंत संवाद है? सत्तासीन व्यक्तियों में आज स्वाभिमान का लोप हो चुका है, हिंदी अब तक स्वाभिमान की भाषा रही है. वह अपने लोगों द्वारा अपने ही इलाकों में पिट रही है. प्रश्न अनेक हैं और हमें शांत चित्त से उन सभी प्रश्नों पर विचार क रना चाहिए. पहला प्रश्न तो यही है कि हिंदी के छात्र-अध्यापक और हिंदी के पत्रकार चंद अपवादों को छोड़ कर किस भूमिका में खड़े हैं? क्या इनमें वैसे लोगों की संख्या अधिक नहीं है, जिन्हें अपनी भाषा-संस्कृति से कम लगाव है? हिंदी का खानेवाले हिंदी को खा रहे हैं. अहिंदी प्रेदशों में और देश के बाहर ऐसी स्थिति बहुत क म है. यह सब उस गलित राजनीतिक के दौर में संभव हुआ है, जहां आसानी से बहुत कु छ पाने के लिए हम पंक्ति बद्ध खड़े हैं. खुशामदियों और चाटुकारों की संख्या में वृद्धि हुई है और हिंदी इसके विरोध में खड़ी रही है. क्या यह आत्मालोचन और आत्ममंथन का समय नहीं है कि हम हिंदीभाषी क्षेत्र में हिंदी की दुर्दशा क रने-क राने में अपनी भूमिका की तलाश क रें? हिंदीभाषियों को अगर एक साथ कुंठित और अपमानित किया जाता है, तो हमें राज सत्ता के वास्तविक चरित्र को अवश्य समझना होगा. केवल यह कहना पर्याप्त नहीं है कि भारतीय राज सत्ता पूंजीपतियों के पक्ष में है. कैसी पूंजी, कैसे पूंजीपति? पूंजी पहले भी थी और स्वतंत्रता आंदोलन में भारतीय पूंजीपतियों की भूमिका जगजाहिर है. उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर में नयी पूंजी आ गयी है और जो आज के पूंजीपति हैं- मित्तल, अंबानी आदि- वे पहले के टाटा-बिड़ला से भिन्न हैं. अंबानी, अमर सिंह, अमिताभ बच्च्न एक साथ हैं. हरिवंश राय बच्च्न किनके साथ थे? प्रश्न राज सत्ता की भाषा का है. जो अंगरेजी नहीं जानते और उस भाषा-विशेष में निष्णात नहीं है, उन्हें कुंठित किया जा रहा है. केवल यही नहीं, जिनकी भाषा हिंदी है, वे भी हिंदी को गंभीरता से नहीं लेते. वे सत्ता से स्थानीय स्तर पर ही सही, जुड़ कर उस तंत्र को सुदृढ़ कर रहे हैं, जो जनता के पक्ष में नहीं है. हिंदी को राज सत्ता ने क भी शक्ति संपन्न नहीं किया. यह लड़नेवाली भाषा रही है. जिस समय हमारे मुल्क में फ ारसी राजभाषा थी, उस समय भी यह फैलती रही. ब्रिटिश शासन में यह उनके विरुद्ध लड़ती रही और अब वह अपनी शक्ति से फैल रही है. राज सत्ता ढोंग क र सकती है, पर हिंदी ढोंगियों पर प्रहार करती रही है. हिंदी प्रदेश में प्राय: प्रत्येक क्षेत्र में ढोंगियों और पाखंडियों की संख्या बढ़ रही है. यह एक नयी स्थिति है. यह अकारण नहीं है कि आज हिंदी से जुड़ी संस्थाएं हिंदी क्षेत्रों में विपन्न हैं और उनके स्वामी संपन्न हैं. हिंदी का प्रश्न समाजवाद और पूंजीवाद से, देशी और विदेशी पूंजी से, राज सत्ता के चरित्र से और हमारी अर्थनीतियों से भी जुड़ा हुआ है.
मजदूर आंदोलन, कै सी है दशा, क्या होगी दिशा
उमाधर जी बिहार में मज़दूर आंदोलन के पर्याय के रूप में जाने जाते हैं. उनका अशोक पेपर मिल का आंदोलन बिहार का प्रतिनिधि मज़दूर आंदोलन रहा है. उन्होंने मज़दूर दिवस पर इसकी दशा और दिशा को लेकर एक लंबा लेख लिखा है. प्रस्तुत रचना इसी लेख का संपादित अंश है.
उमाधर प्रसाद सिंह
आज नयी विश्व अर्थव्यवस्था के शिकंजे में जकड़ी, निजीकरण, उदारीकरण एवं वैश्वीकरण आधारित भारतीय अर्थव्यवस्था में मार्केट फ्रें डली, बिजनेस फ्रें डली, इन्वेस्टमेंट फ्रें डली जैसे भ्रामक शब्दों द्वारा आर्थिक -सामाजिक ढांचे के अंदर बढ़ रही भीषण असमानता, बेरोजगारी और 90 प्रतिशत जनता की पीड़ा पर रहस्य का आवरण देने की प्रक्रिया तो बड़े पैमाने पर जारी है, लेकिन संविधान में संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी गणराज्य बनाने, सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त करने की प्रस्तावना तथा समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटे जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो एवं आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले, जिससे धन और उत्पादन के साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकें द्रण न हो (अनुच्छेद-39) के बावजूद पिपुल्स फ्रें डली, लेबर फ्रें डली, इंप्लाई फ़्रेंडली जैसे शब्द कहीं दिखायी नहीं देते. हालांकि एक मात्र आर्थिक वृद्धि आधारित विकास अवधारणा के इन कुपरिणामों के परिणामस्वरूप बढ़ते जनाक्रोश को कुंद करने के लिए सर्वसमावेषी आर्थिक वृद्धि तथा विकास को मानवीय चेहरा देने जैसी अस्पष्ट प्रस्थापनाओं की बात भी अब शुरू की गयी है. लेकिन यह कैसे होगा या इसके लिए आर्थिक वृद्धि के परिणामों के वितरण की क्या प्रक्रिया होगी, इसकी कोई चर्चा नहीं की जा रही है. बल्कि इसके विपरित श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर श्रमिकों को अब तक के प्राप्त अधिकारों के अपहरण और उसमें भी कटौती की बात की जा रही है. श्रम कानूनों को लचीला बनाने के नाम पर श्रमिक वर्ग को पूरी तरह आत्मसर्मपण करने को मजबूर करने की कोशिशें हो रही हैं. इस स्थिति में मई दिवस, जो ऐतिहासिक रू प से श्रमिकों का न केवल एक शहादत दिवस है, बल्कि एक महान संकल्प का दिवस भी है, के अवसर पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि आज मजदूर आंदोलन कहां पर खड़ा है, कहां से चला था और आगे का उसका रास्ता कैसा है? देश के कुल घरेलू उत्पादन में आठ-नौ प्रतिशत वृद्धि के दावे के दरमियान 25 लाख मजदूरों की छंटनी, संगठित क्षेत्र के रोजगार में 0.38 प्रतिशत की कमी, भविष्य की अनिश्चितता और असंगठित क्षेत्र में प्रतिकूल सेवा शर्तें, असुरक्षित एवं वैधानिक अधिकारों से वंचित 35 करोड़ असंगठित श्रमशक्ति की मौजूदगी तथा हजारों सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के कारखानों की बंदी के बावजूद देश में कोई सशक्त मजदूर आंदोलन उभरता नहीं दिख रहा है. आर्थिक वृद्धि आधारित रोजगारविहीन तथाकथित विकास प्रक्रिया के परिणामस्वरू प ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी वृद्धि की दर नौ प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में आठ प्रतिशत है. बातें यहीं तक नहीं हैं, मुद्रास्फीति की दर छह प्रतिशत से ऊपर जा रही है और यह थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित है. खुदरा मूल्य और खास कर खाद्यान्न आदि की क ीमत के आधार पर यह वृद्धि 20 से 25 प्रतिशत से ऊपर जा रही है. यद्यपि मुद्रास्फीति के नियंत्रण और मूल्यवृद्धि पर रोक की तथाकथित कवायद सरकार और रिजर्व बैंक द्वारा की जा रही है, लेकिन यह कितना वास्तविक और कितना भ्रामक है, यह वित्तमंत्री चिदंबरम की इस उक्ति से ही जाहिर हो जाता है कि मुद्रास्फीति में वृद्धि, आर्थिक वृद्धि की सहवर्ती है. (बजट भाषण, 28 फ रवरी 2007, पैरा-8)
देखें सेंट पीटर्सबर्ग का अंत. सोवियत रूस की एक महान फ़िल्म जो मज़दूरों की पीडा़, उनकी नासमझियों और उनकी बहादोरी को दिखाती है. फ़िल्म में दुनिया के सर्वहारा की एक महान विजय और एक महान क्रांति, रूसी क्रांति के अद्भुत क्षणों को दरसाया गया है.
पूंजी अपने मुनाफे में वृद्धि के लिए श्रम लागत में कटौती के नाम पर लगातार उत्पादित आय में से श्रम के हिस्से में कमी को ही एक मात्र हथियार के रूप में उपयोग करती रही है, चाहे मजदूरी में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कटौती का तरीका हो या कम से कम श्रम की मात्रा से अधिकतम उत्पादन हासिल करने की तथाकथित श्रम उत्पादकता में वृद्धि की अवधारणा. श्रम की कीमत कम रहे अर्थात उत्पादित आय में श्रम का हिस्सा अल्प से अल्पतम बना रहे, इसके लिए काम की मांग को सीमित रखने और इसकी पूर्ति के आधिक्य की अवधारणा पर ऐच्छिक बेरोजगारी, बेरोजगारी की स्वाभाविक दर, फिर पूर्ण रोजगार से कम स्तर को पूर्ण रोजगार की स्वीकार्यता जैसी प्रस्थापनाओं का प्रतिपादन इस तथाकथित विकास प्रक्रिया के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है. इस तरह बेरोजगारी एवं मुद्रास्फीति इस नयी आर्थिक अवधारणा के मुख्य हथियार हैं, जिनका अर्थव्यवस्था के नियंत्रक शिखर के मुट्ठी भर महाप्रभु, खास कर श्रमिक वर्ग एवं आम रूप से आम जनता के विरुद्ध आर्थिक वृद्धि के नाम पर धड़ल्ले से उपयोग कर रहे हैं. यह वास्तव में बहुराष्ट्रीय निगमों, विश्व बैंक , अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और खास रूप से अमेरिका द्वारा थोपे गये विकास का वह मॉडल है, जो मुक्त बाजार व्यवस्था के नाम पर लादा जा रहा है. मुद्रास्फ ीति जहां मजदूरी में अप्रत्यक्ष कटौती करती है, वहीं आय के वितरण की असमानता में, पूंजी के पक्ष में वृद्धि का द्योतक भी है. दूसरी ओर बेरोजगारी की मौजूदगी, रोजगार के होड़ की प्रतिस्पर्धा में, श्रम की कीमत की वृद्धि पर रोक लगा देती है और श्रम संगठन तथा श्रमिक आंदोलन को कमजोर करती है. इसलिए तमाम तथाक थित अर्थशास्त्रियों के सोच एवं अवधारणा का केंद्र बिंदू-चाहे केंस समर्थक हों या केंस विरोधी, मिल्टन-फ्रीडमैन हों या सेम्युल्सन, रॉर्बट शोलो हों अथवा विलियम फिलिप्स या एडमंड फ्लेप्स, क्रुगर हों अथवा जोसेफ स्टिग्लिट्ज, मुक्त बाजार समर्थक हों अथवा बाजार की अपूर्णता के प्रतिपादक बेरोजगारी, अपूर्ण रोजगार, बेरोजगारी की स्वाभाविक दर, स्फीति-अस्फीति तथा आर्थिक वृद्धि जैसे रहस्यात्मक सूत्रों के आवरण में पूंजी द्वारा श्रम के अधिकारों के अपहरण की प्रक्रिया पर परदा डालने तक ही सीमित रहा है. और अर्थव्यवस्था के नियंत्रक शिखर से निर्धारित इन आर्थिक अवधारणाओं का भ्रमजाल सिर्फ सरकार के नीति-निर्माताओं को अपने शिकंजे में लेने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसने विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालय परिसरों, सांस्कृ तिक कें द्रों से लेकर 1.5 लाख क रोड़ पंूजी से संचालित मीडिया परिक्षेत्रों क ो भी अपने नियंत्रण में ले लिया है. यही वह क ार्य है जिसे पुराना पूंजीवाद और उसके द्वारा शासित प्रशासन तंत्र नहीं कर पाया था. इतनी तैयारी के बाद श्रम सुधार तथा श्रम कानूनों को लचीला बनाने के नाम पर राष्ट्रीय एवं विश्वस्तरीय के मायाजाल में फंसा कर, पूर्व प्रदत्त सेवा शर्तों, भविष्य सुरक्षा तथा वैधानिक दायित्वों को नकारने के साथ ही नियुक्ति और विमुक्ति, हायर एंड फायर तथा तालाबंदी के निरंकु श अधिकार प्राप्त करने में जुटा हुआ है. और यह विश्वपूंजीवाद नियंत्रित भारतीय अर्थव्यवस्था के नियंत्रकों का आधिपत्यवादी चरित्र का प्रतीक है, जो तथाकथित आर्थिक विकास श्रम एवं अवाम की कीमत पर सिर्फ अपने पूर्ण नियंत्रण में, अपने द्वारा और सिर्फ अपने लिए ही करने पर उतारू है. इस भीषण स्थिति में भी श्रमिकों का कोई संगठित एवं कारगर प्रतिरोध क्यों नहीं खड़ा हो पा रहा है, यह गंभीर चिंता का विषय है. यह सही है कि बेरोजगारों की विशाल फौज की मौजूदगी और रोजगार के सीमित हो रहे अवसरों के बीच के अंतर्सबंधों के कारण श्रमिकों की पांतों में कमजोरी आती है. लेकिन यह एक पक्ष है. कारणों को और गहराई से आंकने के लिए भारत के श्रमिक संघों के इतिहास, उसके चरित्र और चिंतन की धाराओं में झांकना होगा. 1875 में शोराबजी-शापुर जी के नेतृत्व में मजदूरों की दयनीय स्थिति की परिचर्चा, इसी समय लंकाशायर के उद्योगपतियों द्वारा भारतीय उद्योगपतियों की प्रतिस्पर्धा के खतरे के विरुद्ध फैक्टरी इंस्पेक्टर जोम्स से हस्तक्षेप क रा कर, 1879 में भारत फै क्टरी कानून का प्रस्ताव पारित कराने के साथ ही नारायण मेधजी लोखंडे द्वारा छह दिनों की हड़ताल करा कर ट्रेड यूनियन आंदोलन की शुरुआत ही विदेशी पूंजीपतियों की प्रेरणा से करायी गयी. हालांकि साम्राज्यवाद विरोधी स्वाधीनता आंदोलन के क्रमिक विकास के साथ मजदूर आंदोलनों के चरित्र और स्वरू प में भी परिवर्तन आता गया और बंबई के साथ ही कानपुर तथा क लकत्ता जैसे मजदूर आंदोलन के केंद्र विकसित हुए. मजदूर आंदोलन की इस विकसित चेतना का ही परिणाम था कि 1908 में लोकमान्य तिलक की गिरफ्तारी के विरुद्ध बंबई के मजदूरों ने लगातार छह दिनों तक हड़ताल क रते हुए बंबई को बंद रखा. इस ऐतिहासिक हड़ताल को लेनिन ने भारतीय मजदूरों की परिपक्वता एवं पर्याप्त वर्ग तथा राजनीतिक चेतना का प्रतीक कहा था. लेकि न 1917 की रूसी क्रांति के बाद भारत के मजदूर आंदोलन पर उसके बढ़ते प्रभाव के सांगठनिक रूप लेने से पहले ही 1920 में श्रम-पूंजी सहयोग सूत्र के आधार पर गांधी जी की छत्रछाया में अहमदाबाद में मजदूर-महाजन संघ की स्थापना कर दी गयी, जबकि भारत में 1924 में कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के बाद मजदूर आंदोलन की दूसरी धारा का सांगठनिक रू प उभर कर सामने आया. लेकिन श्रम आंदोलन एवं श्रम संघ की पहली पहल क्रांतिकारी धारा के बजाय प्रतिगामी धारा के द्वारा ही हुई. यद्यपि मजदूर-महाजन के संगठन से पूर्व मद्रास में 1918 में वीपी वाडिया के नेतृत्व में एक मजदूर संगठन ने श्रम आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन के अभिन्न हिस्से के रू प में आकार जरू र दिया था, लेकिन विनय एंड कं पनी के मजदूरों ने जुलाई, 1918 की हड़ताल का विरोध कर और महायुद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य को समर्थन दिया.
सावधान : संघ जब सामाजिक समरसता की बात करे
यह साल गोलवलकर की जन्मशती के समापन का वर्ष है. इस अवसर पर संघ ने बडे़ कार्यक्रम किये, काफ़ी डींगें हांकी. ऐसे में उसने सामाजिक समरसता का डंका भी पीटा. इस अवसर पर झूठ के पुलंदे के रूप में एक फ़िल्म भी आयी-कर्मयोगी.
सामाजिक समरसता के संघी निहितार्थ
सुभाष गाताडे
वह साठ के दशक के उत्तरार्ध की बात है. महाराष्ट्र एक तरह के आंदोलन का प्रत्यक्षदर्शी बना था. वजह बना था `नवा काल’ नामक मराठी अखबार में (एक जनवरी, 1969) राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गोलवलकर का छपा विवादास्पद साक्षात्कार, उसमें जिस बौद्धिक अंदाज में गोलवलकर ने मनुस्मृति को सही ठहराया था और छुआछूत पर टिकी वर्ण जाति को ईश्वरप्रदत्त घोषित किया था, वह बात लोगों को बेहद नागवार गुजरी थी.
अपने साक्षात्कार में गोलवलकर ने साफ -साफ कहा था कि …`स्मृति ईश्वरनिर्मित है और उसमें बतायी गयी चातुर्वर्ण्य व्यवस्था भी ईश्वरनिर्मित है. किंबहुना वह ईश्वरनिर्मित होने के कारण ही उसमें तोड़-मरोड़ हो जाती है, तब भी हम चिंता नहीं करते. क्योंकि मनुष्य आज तोड़-मरोड़ करता भी है, तब जो ईश्वरनिर्मित योजना है, वह पुन:-पुन: प्रतिस्थापित होकर ही रहेगी’
अपने इस साक्षात्कार ने गोलवलकर ने जाति प्रथा की हिमायत करते हुए चंद बातें भी कही थीं, जैसे`…अपने धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था सहकारी पद्धति ही तो है. किंबहुना आज की भाषा में इसे गिल्ड कहा जाता है, और पहले जिसे जाति कहा गया उसका स्वरूप एक ही है… जन्म से प्राप्त होनेवाली चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में अनुचित कुछ भी नहीं है, किंतु इसमें लचीलापन रखना ही चाहिए और वैसा लचीलापन था भी. लचीलेपन से युक्त जन्म पर आधारित चातुर्वर्ण्य व्यवस्था उचित ही है.’
अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस सूबे में औपनिवेशिक काल में ज्योतिबा तथा सावित्रीबाई फुले की अगुआई में `शेटजी’ (सेठ-साहूकार) और भट जी (पुरोहित वर्ग) के खिलाफ प्रचंड सांस्कृतिक विद्रोह खड़ा हुआ था, जिस सूबे में 20वीं सदी में डॉ आंबेडकर जैसे उत्पीड़ितों के महान सपूत की अगुआई में विद्रोह को आगे बढ़ाया गया, वहां पर गोलवलकर के विचारों ने लोगों में किस किस्म के गुस्से को पैदा कि या होगा.
वे सभी जो राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के चिंतन एवं कार्यप्रणाली से परिचित हैं, वे अंदाजा लगा सकते हैं कि किस तरह इस मुहिम के जरिये जनसाधारण के समक्ष गोलवलकर को `महान राष्ट्रनेता’ ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक प्रेरणा से लैस साधु पुरुष घोषित किया जा रहा है. उनके तखल्लुस `गुरुजी’ के साथ `श्री गुरुजी’ जोड़ना इसी बात का परिचायक है ताकि कोई भी उनके विवादास्पद अतीत के बारे में कोई सवाल न उठा सके . कोई यह न पूछ सके कि वियतनाम पर अमेरिकी आक्रमण में किस बेशरमी के साथ गोलवलकर ने अमेरिकी आक्रांताओं की हौसलाअफ जाई की थी, कोई यह न पूछ सके कि बंटवारे के दिनों में दंगा फैलाने के आरोप में किस तरह वे पकड़े जानेवाले थे. या कोई यह न पूछ सके कि हिंदुस्तानी जनता जिन दिनों बरतानवी सामराजियों के खिलाफ व्यापक संग्राम में सन्नद्ध थी तब किस तरह गोलवलकर और उसके अनुयायी इस संग्राम से दूर संघ की शाखाओं में एकत्रित होकर अपनी कर्णकर्कश आवाज में `नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ का जाप कर रहे थे.
सोचने का प्रश्न यह उठता है कि क्या गोलवलकर की जन्मशती का यह अवसर उन सभी के लिए भी विशेष
कार्यभार उपस्थित करता है जो हिंदू राष्ट्र की उनकी परियोजनाओं से असहमत हैं या कि उनके मुखालिफ हैं और उसे देश तथा समाज की प्रगति में बाधक मानते हैं. इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि छिटपुट अखबारी टिप्पणियों या पत्रिकाओं के लेखों को छोड़ दें तो किसी भी सियासी-समाजी संगठन में, जो धर्मनिरपेक्षता की हामी भरता हो, यह प्रक्रिया नहीं चलती दिखी है कि वे इस बात को बेबाकी से समझने की कोशिश करें कि अपनी मानवद्रोही अंतर्वस्तु के बावजूद हिंदोस्तां की सरजमीन पर गोलवलकर की परियोजना की सफलता का क्या राज है. क्या यह सही नहीं कि 50 के दशक में राजनीति और समाज के हाशिये पर चला गया राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ आज की तारीख में अपने तमाम आनुषंगिक संगठनों के ताने-बाने के जरिये हिंदुस्तान की सियासत और समाज में एक ऐसी स्थिति में पहुंचा है जहां से उसे आसानी से हटाया नहीं जा सकता.
देखें गुजरात में संघी उत्पात. यह फ़िल्म गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार की योजनाओं और उसके फ़ायदों पर है. राकेश शर्मा की फ़ाइनल साल्युशन.
एक बात जो इस संदर्भ में ध्यान रखी जानी चाहिए कि 2004 के आम चुनावों में भले ही भाजपा को शिकस्त मिली हो या खुद हिंदुत्व बिग्रेड की मुहिम फिलवक्त संकट के दौर से गुजर रही हो, लेकिन यह कहना उचित नहीं होगा कि यहां हिंदुत्व के प्रकल्प के अमली शक्ल धारण क रने की स्थिति फिर उभर नहीं सकती. कई सूबों में अपने बलबूते तथा चंद सूबों में अन्य पार्टियों के साथ हिंदुत्व के फलसफे को माननेवाले हुकूमत कर रहे हैं. जहां पर वे बिना कि सी डर-भय के अपनी इस परियोजना पर अमल कर रहे हैं. राजस्थान हो, झारखंड हो या गुजरात हो या मध्य प्रदेश या छत्तीसगढ़ हो, ये ऐसे प्रांत हैं जहां अपने-अपने तरीकों से हिंदुत्व की `प्रयोगशालाओं’ के बनने का काम जोरों पर हैं. यह भी साफ तौर पर देखने में आ रहा है कि कें द्र में सहयोगियों के साथ सत्तासीन कांग्रेस सरकार धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपने समझौतापरस्त रवैये से या अपने क ई `नरम हिंदुवादी’ क दमों से संघ-भाजपा परिवार को नया `स्पेस’ प्रदान क रती दिख रही है. कांग्रेस से नाराज चल रहे चंद राजनीतिक दल जो इन दिनों भले ही कें द्र सरकार को समर्थन दे रहे हैं, अपने सियासी कारणों से भाजपा से पींगे बढ़ाते दिख रहे हैं, ऐसे समय में इस प्रकल्प के अहम सिद्धांतकार के महिमामंडन का जो सिलसिला जन्मशती पर चलेगा उसके बारे में खामोश कै से रहा जा सक ता है?
दूसरा मसला है हिंदुत्व की सामाजिक जड़ों की तलाश का, अर्थात अपने समाज के समाजशास्त्रीय अध्ययन का. अपनी आंखों के सामने ही हम इसी समाज के पढ़े-लिखे तबके के एक हिस्से को पाला बदलते तथा हिंदुत्व की परियोजना के साथ जुड़ते देख सकते हैं. बाबरी मसजिद के विध्वंस का आंदोलन हो, भाजपा द्वारा कें द्र में छह सालवाली हुकूमत हो या गुजरात के जनसंहार जैसी त्रासदी हो, इन सभी मामलों में हिंदू जनमत का एक अच्छा-खासा हिस्सा संघ की अगुआई में जारी `सोशल इंजीनियरिंग’ के विशिष्ट प्रयोगों में शामिल होता दिखा है. इस पृष्ठभूमि में यह विचारणीय प्रश्न बन जाता है कि आखिर घृणा तथा द्वेष पर आधारित परियोजना में आम कहलानेवाले लोगों का एक हिस्सा क्यों साथ खड़ा होता है, या होता आया है. हमारी सभ्यता, संस्कृति के वे कौन से तत्व हैं जो हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार के लिए मुफीद रहे हैं?
तीसरा मसला है कि लंबे समय तक हाशिये पर रह कर धीरे-धीरे अपने विचारों की स्वीकार्यता कायम करने में इस दक्षिणपंथी परियोजना को जो सफलता मिली उससे इस देश की सेक्युलर-जनतांत्रिक तथा वामपंथी ताकतें संगठन निर्माण के क्षेत्र में किस तरह का सबक ग्रहण कर सकती हैं. अर्थात क्या यह सही नहीं कि बरतानवी हुक्मरानों के खिलाफ संघर्ष से बनायी दूरी तथा गांधी हत्या के मामले में अपनी विवादास्पद भूमिका से संदेह के घेरे में रहते आये संघ ने 50 के दशक में शिक्षा से लेकर समाज के विभिन्न क्षेत्रों के संगठन निर्माण का जो उपक्रम शुरू कि या, उसने उसे अपने विस्तार में मदद पहुंचायी.
चौथा मसला फासीवाद के भविष्य से जुड़ा है. इसके लिए दूरगामी किस्म के अध्ययन की जरूरत पड़ेगी, ताकि जाना जा सके कि 21वीं सदी की इन पैड़ियों पर फासीवाद किन-किन रास्तों से आ सकता है तथा अपने मुल्क में उसकी क्या-क्या खासियतें हो सकती हैं? भारत जैसे तीसरी दुनिया के विशाल मुल्क में, जहां लोकतांत्रिक प्रणाली की जड़ें गहरी हो चुकी हैं, वहां पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए क्या वह चुनावों का रास्ता अख्तियार कर सकता है? प्रो एजाज अहमद का वक्तव्य हमें नहीं भूलना चाहिए कि हर देश को वैसा ही फासीवाद मिलता है जिसके लिए वह तैयार होता है.
हिंदोस्तां की सरजमीन पर गोलवलकरी परियोजना की `सफलता’ जहां जनतंत्र तथा धर्मनिरपेक्षता के लिए चंद सवाल खड़े करती है, वहीं इस जन्मशती की तैयारियों में गोलवलकर को लेकर संघ परिवार में मौजूद दुविधा को भी देखा जा सकता है. साफ कर दें कि यह दुविधा गोलवलकरी प्रोजेक्ट की मानवद्रोही अंतर्वस्तु को लेक र नहीं है, वह उसके बाह्य रूप अर्थात `पैकेजिंग’ को लेकर है. 21वीं सदी की इस बेला में अपने यूनिफार्म `लंबी मोहरीवाली खाकी निक्कर और सफेद शर्ट’ पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर संघ के अगुआ इस बात को भी ठीक से समझते हैं कि जिस निर्लज्जता के साथ गोलवलकर ने नाजी प्रयोगों की प्रशंसा की थी, वह बात अब किसी को पचनेवाली नहीं है. 1938 में गोलवलकर द्वारा रचित `वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ किताब के रचयिता का सेहरा किन्हीं बाबा राव सावरकर के माथे बांधने के प्रसंग में हम संघ की इसी कवायद को देख सकते हैं.
भले हिंदू एकता कायम क रने के सवाल पर गोलवलकर के बाद आनेवाले लोगों ने एक वैकल्पिक रास्ते का प्रयोग किया हो, लेकिन इस बात का कोई संकेत नहीं मिलता कि अपने चिंतन, विश्वदृष्टिकोण के धरातल पर संघ के मौजूदा नेता गोलवलकर से किसी मायने में अलग हैं. गुजरात-2002 के प्रायोजित जनसंहार में हम इसकी झलक देख चुके हैं. दलित स्त्रियों, शूद्रों, अतिशूद्रों को अपने साथ जोड़ने में वे भले ही गोलवलकर से आगे निकल गये हों, लेकि न उनकी अपनी परियोजना में इन तबकों के वास्तविक सशक्तीकरण का कोई कार्यक्रम नहीं है. ये सभी उत्पीड़ित तबके उनकी निगाह में हिंदू राष्ट्र के `दुश्मनों’ के खिलाफ लड़ने में प्यादे मात्र हैं.
यह अकारण नहीं कि गोलवलकर के जन्मशती कार्यक्रमों के कें द्रीय नारे के तौर पर `सामाजिक समरसता’ को उन्होंने तय किया है, ताकि इसी बहाने गोलवलक र की मानवद्रोही परियोजना को नयी वैधता प्रदान की जा सके , जिसको साकार करने के लिए सभी प्रतिबद्ध हैं.
सुभाष गाताडे के एक लंबे लेख के प्रमुख अंश.
सावधान : संघ जब सामाजिक समरसता की बात करे
यह साल गोलवलकर की जन्मशती के समापन का वर्ष है. इस अवसर पर संघ ने बडे़ कार्यक्रम किये, काफ़ी डींगें हांकी. ऐसे में उसने सामाजिक समरसता का डंका भी पीटा. इस अवसर पर झूठ के पुलंदे के रूप में एक फ़िल्म भी आयी-कर्मयोगी.
सामाजिक समरसता के संघी निहितार्थ
सुभाष गाताडे
वह साठ के दशक के उत्तरार्ध की बात है. महाराष्ट्र एक तरह के आंदोलन का प्रत्यक्षदर्शी बना था. वजह बना था `नवा काल’ नामक मराठी अखबार में (एक जनवरी, 1969) राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गोलवलकर का छपा विवादास्पद साक्षात्कार, उसमें जिस बौद्धिक अंदाज में गोलवलकर ने मनुस्मृति को सही ठहराया था और छुआछूत पर टिकी वर्ण जाति को ईश्वरप्रदत्त घोषित किया था, वह बात लोगों को बेहद नागवार गुजरी थी.
अपने साक्षात्कार में गोलवलकर ने साफ -साफ कहा था कि …`स्मृति ईश्वरनिर्मित है और उसमें बतायी गयी चातुर्वर्ण्य व्यवस्था भी ईश्वरनिर्मित है. किंबहुना वह ईश्वरनिर्मित होने के कारण ही उसमें तोड़-मरोड़ हो जाती है, तब भी हम चिंता नहीं करते. क्योंकि मनुष्य आज तोड़-मरोड़ करता भी है, तब जो ईश्वरनिर्मित योजना है, वह पुन:-पुन: प्रतिस्थापित होकर ही रहेगी’
अपने इस साक्षात्कार ने गोलवलकर ने जाति प्रथा की हिमायत करते हुए चंद बातें भी कही थीं, जैसे`…अपने धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था सहकारी पद्धति ही तो है. किंबहुना आज की भाषा में इसे गिल्ड कहा जाता है, और पहले जिसे जाति कहा गया उसका स्वरूप एक ही है… जन्म से प्राप्त होनेवाली चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में अनुचित कुछ भी नहीं है, किंतु इसमें लचीलापन रखना ही चाहिए और वैसा लचीलापन था भी. लचीलेपन से युक्त जन्म पर आधारित चातुर्वर्ण्य व्यवस्था उचित ही है.’
अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस सूबे में औपनिवेशिक काल में ज्योतिबा तथा सावित्रीबाई फुले की अगुआई में `शेटजी’ (सेठ-साहूकार) और भट जी (पुरोहित वर्ग) के खिलाफ प्रचंड सांस्कृतिक विद्रोह खड़ा हुआ था, जिस सूबे में 20वीं सदी में डॉ आंबेडकर जैसे उत्पीड़ितों के महान सपूत की अगुआई में विद्रोह को आगे बढ़ाया गया, वहां पर गोलवलकर के विचारों ने लोगों में किस किस्म के गुस्से को पैदा कि या होगा.
वे सभी जो राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के चिंतन एवं कार्यप्रणाली से परिचित हैं, वे अंदाजा लगा सकते हैं कि किस तरह इस मुहिम के जरिये जनसाधारण के समक्ष गोलवलकर को `महान राष्ट्रनेता’ ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक प्रेरणा से लैस साधु पुरुष घोषित किया जा रहा है. उनके तखल्लुस `गुरुजी’ के साथ `श्री गुरुजी’ जोड़ना इसी बात का परिचायक है ताकि कोई भी उनके विवादास्पद अतीत के बारे में कोई सवाल न उठा सके . कोई यह न पूछ सके कि वियतनाम पर अमेरिकी आक्रमण में किस बेशरमी के साथ गोलवलकर ने अमेरिकी आक्रांताओं की हौसलाअफ जाई की थी, कोई यह न पूछ सके कि बंटवारे के दिनों में दंगा फैलाने के आरोप में किस तरह वे पकड़े जानेवाले थे. या कोई यह न पूछ सके कि हिंदुस्तानी जनता जिन दिनों बरतानवी सामराजियों के खिलाफ व्यापक संग्राम में सन्नद्ध थी तब किस तरह गोलवलकर और उसके अनुयायी इस संग्राम से दूर संघ की शाखाओं में एकत्रित होकर अपनी कर्णकर्कश आवाज में `नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ का जाप कर रहे थे.
सोचने का प्रश्न यह उठता है कि क्या गोलवलकर की जन्मशती का यह अवसर उन सभी के लिए भी विशेष
कार्यभार उपस्थित करता है जो हिंदू राष्ट्र की उनकी परियोजनाओं से असहमत हैं या कि उनके मुखालिफ हैं और उसे देश तथा समाज की प्रगति में बाधक मानते हैं. इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि छिटपुट अखबारी टिप्पणियों या पत्रिकाओं के लेखों को छोड़ दें तो किसी भी सियासी-समाजी संगठन में, जो धर्मनिरपेक्षता की हामी भरता हो, यह प्रक्रिया नहीं चलती दिखी है कि वे इस बात को बेबाकी से समझने की कोशिश करें कि अपनी मानवद्रोही अंतर्वस्तु के बावजूद हिंदोस्तां की सरजमीन पर गोलवलकर की परियोजना की सफलता का क्या राज है. क्या यह सही नहीं कि 50 के दशक में राजनीति और समाज के हाशिये पर चला गया राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ आज की तारीख में अपने तमाम आनुषंगिक संगठनों के ताने-बाने के जरिये हिंदुस्तान की सियासत और समाज में एक ऐसी स्थिति में पहुंचा है जहां से उसे आसानी से हटाया नहीं जा सकता.
देखें गुजरात में संघी उत्पात. यह फ़िल्म गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार की योजनाओं और उसके फ़ायदों पर है. राकेश शर्मा की फ़ाइनल साल्युशन.
एक बात जो इस संदर्भ में ध्यान रखी जानी चाहिए कि 2004 के आम चुनावों में भले ही भाजपा को शिकस्त मिली हो या खुद हिंदुत्व बिग्रेड की मुहिम फिलवक्त संकट के दौर से गुजर रही हो, लेकिन यह कहना उचित नहीं होगा कि यहां हिंदुत्व के प्रकल्प के अमली शक्ल धारण क रने की स्थिति फिर उभर नहीं सकती. कई सूबों में अपने बलबूते तथा चंद सूबों में अन्य पार्टियों के साथ हिंदुत्व के फलसफे को माननेवाले हुकूमत कर रहे हैं. जहां पर वे बिना कि सी डर-भय के अपनी इस परियोजना पर अमल कर रहे हैं. राजस्थान हो, झारखंड हो या गुजरात हो या मध्य प्रदेश या छत्तीसगढ़ हो, ये ऐसे प्रांत हैं जहां अपने-अपने तरीकों से हिंदुत्व की `प्रयोगशालाओं’ के बनने का काम जोरों पर हैं. यह भी साफ तौर पर देखने में आ रहा है कि कें द्र में सहयोगियों के साथ सत्तासीन कांग्रेस सरकार धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपने समझौतापरस्त रवैये से या अपने क ई `नरम हिंदुवादी’ क दमों से संघ-भाजपा परिवार को नया `स्पेस’ प्रदान क रती दिख रही है. कांग्रेस से नाराज चल रहे चंद राजनीतिक दल जो इन दिनों भले ही कें द्र सरकार को समर्थन दे रहे हैं, अपने सियासी कारणों से भाजपा से पींगे बढ़ाते दिख रहे हैं, ऐसे समय में इस प्रकल्प के अहम सिद्धांतकार के महिमामंडन का जो सिलसिला जन्मशती पर चलेगा उसके बारे में खामोश कै से रहा जा सक ता है?
दूसरा मसला है हिंदुत्व की सामाजिक जड़ों की तलाश का, अर्थात अपने समाज के समाजशास्त्रीय अध्ययन का. अपनी आंखों के सामने ही हम इसी समाज के पढ़े-लिखे तबके के एक हिस्से को पाला बदलते तथा हिंदुत्व की परियोजना के साथ जुड़ते देख सकते हैं. बाबरी मसजिद के विध्वंस का आंदोलन हो, भाजपा द्वारा कें द्र में छह सालवाली हुकूमत हो या गुजरात के जनसंहार जैसी त्रासदी हो, इन सभी मामलों में हिंदू जनमत का एक अच्छा-खासा हिस्सा संघ की अगुआई में जारी `सोशल इंजीनियरिंग’ के विशिष्ट प्रयोगों में शामिल होता दिखा है. इस पृष्ठभूमि में यह विचारणीय प्रश्न बन जाता है कि आखिर घृणा तथा द्वेष पर आधारित परियोजना में आम कहलानेवाले लोगों का एक हिस्सा क्यों साथ खड़ा होता है, या होता आया है. हमारी सभ्यता, संस्कृति के वे कौन से तत्व हैं जो हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार के लिए मुफीद रहे हैं?
तीसरा मसला है कि लंबे समय तक हाशिये पर रह कर धीरे-धीरे अपने विचारों की स्वीकार्यता कायम करने में इस दक्षिणपंथी परियोजना को जो सफलता मिली उससे इस देश की सेक्युलर-जनतांत्रिक तथा वामपंथी ताकतें संगठन निर्माण के क्षेत्र में किस तरह का सबक ग्रहण कर सकती हैं. अर्थात क्या यह सही नहीं कि बरतानवी हुक्मरानों के खिलाफ संघर्ष से बनायी दूरी तथा गांधी हत्या के मामले में अपनी विवादास्पद भूमिका से संदेह के घेरे में रहते आये संघ ने 50 के दशक में शिक्षा से लेकर समाज के विभिन्न क्षेत्रों के संगठन निर्माण का जो उपक्रम शुरू कि या, उसने उसे अपने विस्तार में मदद पहुंचायी.
चौथा मसला फासीवाद के भविष्य से जुड़ा है. इसके लिए दूरगामी किस्म के अध्ययन की जरूरत पड़ेगी, ताकि जाना जा सके कि 21वीं सदी की इन पैड़ियों पर फासीवाद किन-किन रास्तों से आ सकता है तथा अपने मुल्क में उसकी क्या-क्या खासियतें हो सकती हैं? भारत जैसे तीसरी दुनिया के विशाल मुल्क में, जहां लोकतांत्रिक प्रणाली की जड़ें गहरी हो चुकी हैं, वहां पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए क्या वह चुनावों का रास्ता अख्तियार कर सकता है? प्रो एजाज अहमद का वक्तव्य हमें नहीं भूलना चाहिए कि हर देश को वैसा ही फासीवाद मिलता है जिसके लिए वह तैयार होता है.
हिंदोस्तां की सरजमीन पर गोलवलकरी परियोजना की `सफलता’ जहां जनतंत्र तथा धर्मनिरपेक्षता के लिए चंद सवाल खड़े करती है, वहीं इस जन्मशती की तैयारियों में गोलवलकर को लेकर संघ परिवार में मौजूद दुविधा को भी देखा जा सकता है. साफ कर दें कि यह दुविधा गोलवलकरी प्रोजेक्ट की मानवद्रोही अंतर्वस्तु को लेक र नहीं है, वह उसके बाह्य रूप अर्थात `पैकेजिंग’ को लेकर है. 21वीं सदी की इस बेला में अपने यूनिफार्म `लंबी मोहरीवाली खाकी निक्कर और सफेद शर्ट’ पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर संघ के अगुआ इस बात को भी ठीक से समझते हैं कि जिस निर्लज्जता के साथ गोलवलकर ने नाजी प्रयोगों की प्रशंसा की थी, वह बात अब किसी को पचनेवाली नहीं है. 1938 में गोलवलकर द्वारा रचित `वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ किताब के रचयिता का सेहरा किन्हीं बाबा राव सावरकर के माथे बांधने के प्रसंग में हम संघ की इसी कवायद को देख सकते हैं.
भले हिंदू एकता कायम क रने के सवाल पर गोलवलकर के बाद आनेवाले लोगों ने एक वैकल्पिक रास्ते का प्रयोग किया हो, लेकिन इस बात का कोई संकेत नहीं मिलता कि अपने चिंतन, विश्वदृष्टिकोण के धरातल पर संघ के मौजूदा नेता गोलवलकर से किसी मायने में अलग हैं. गुजरात-2002 के प्रायोजित जनसंहार में हम इसकी झलक देख चुके हैं. दलित स्त्रियों, शूद्रों, अतिशूद्रों को अपने साथ जोड़ने में वे भले ही गोलवलकर से आगे निकल गये हों, लेकि न उनकी अपनी परियोजना में इन तबकों के वास्तविक सशक्तीकरण का कोई कार्यक्रम नहीं है. ये सभी उत्पीड़ित तबके उनकी निगाह में हिंदू राष्ट्र के `दुश्मनों’ के खिलाफ लड़ने में प्यादे मात्र हैं.
यह अकारण नहीं कि गोलवलकर के जन्मशती कार्यक्रमों के कें द्रीय नारे के तौर पर `सामाजिक समरसता’ को उन्होंने तय किया है, ताकि इसी बहाने गोलवलक र की मानवद्रोही परियोजना को नयी वैधता प्रदान की जा सके , जिसको साकार करने के लिए सभी प्रतिबद्ध हैं.
सुभाष गाताडे के एक लंबे लेख के प्रमुख अंश.
ठेके के दौर में मज़दूर आंदोलन : सब रस ले गयी पिंजडेवाली मुनिया
कुमार अनिल भाकपा माले लिबरेशन से जुडे़ रहे हैं. अभी प्रभात खबर में हैं. मई दिवस को देखते हुए आज के हालात में मज़दूर संगठनों पर उनकी चिंताएं इस लेख के माध्यम से सामने आयी हैं. आगे भी वे कुछ लिखेंगे इस मसले पर. हमारा इरादा आज के राजनीतिक-आर्थिक हालात में मज़दूर आंदोलन पर एक बहस चलाने का है. आइए आप भी इसमें हिस्सा लीजिए.
कुमार अनिल
बड़ी अजीब स्थिति है. सीपीएम से जुड़ी सीटू पटना में इस बार अलग से मजदूर दिवस मनायेगी. पिछले क ई वर्षों से क म-से-क म पहली मई को सारी ट्रेड यूनियनें एक मंच पर आती रही हैं. इस बार मामला नंदीग्राम को लेकर उलझ गया. नंदीग्राम में कि सानों पर हुए दमन को जहां अन्य संगठन मुद्दा बनाना चाहते हैं, वहीं सीपीएम अपनी सरकार की आलोचना को तैयार नहीं है. वाम मोरचे में फूट पड़ गयी. एटक, यूटीयूसी(लेस), यूटीयूसी, ए टू व एचएमएस एक मंच पर होंगे व दूसरी ओर होगी सीटू . बहुत दिनों के बाद कि सानों के मुद्दे पर ट्रेड यूनियनों में बहस हुई.
आजादी के बाद से ही कि सानों व दूसरे तबकों के आंदोलनों से मजदूर वर्ग का आंदोलन कटता चला गया. आज मजदूर वर्ग का आंदोलन पूरी तरह अपनी ही मांगों में सिमट क र रह गया है. वेतन, बोनस, प्रोन्नति, भत्ता ही उसके लिए सब कुछ है. आंदोलन अपनी राष्ट्रीय भूमिका खोता चला गया.
एक समय ट्रेड यूनियन आंदोलन ने देश की राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज क रायी थी. क म्युनिस्ट पार्टी के बनने से पहले 1921 में एटक के दूसरे अधिवेशन में 50 हजार से ज्यादा मजदूर झरिया में जुटे थे. अधिवेशन का पहला प्रस्ताव स्वराज के लिए था. जोरदार शब्दों में घोषणा की गयी कि स्वराज पाने का सही समय आ गया है. दूसरा प्रस्ताव अंतरराष्ट्रीय भाईचारे को लेकर था. सूखे व अकाल से पीड़ित रूसियों के प्रति संवेदना प्रकट की गयी. अधिवेशन ने देश के मजदूरों का आह्वान किया कि वे रूसी भाइयों के लिए अपना एक दिन का वेतन दान करें. साइमन कमीशन जब मुंबई पहुंचा तो 20 हजार मजदूरों ने सड़क पर उतर कर विरोध कि या.
कम्युनिस्ट पार्टी की उदासीनता के बावजूद नौ अगस्त, 1942 को जब महात्मा गांधी गिरफ्तार हुए, तो देश भर के मजदूरों ने हड़ताल की. 1946 के नौसैनिक हड़ताल के समर्थन में मजदूरों की हड़ताल को भला कौन भुला सकता है.
वैश्वीकरण के इस युग में इकाई, विभाग व संवर्ग में बंटे मजदूर वर्ग को न सिर्फ अपनी एकता बनानी होगी, वरन अपनी सामाजिक भूमिका को फिर से परिभाषित भी करना होगा.
बिहार में सेवा क्षेत्र के कर्मियों की बड़ी तादाद है. अब तब उन्होंने सैक ड़ों हड़तालें की हैं. उनका वेतनमान भी काफ़ी आक र्षक है, लेकिन उन्होंने कभी जनता से जुड़ने की कोशिश नहीं की. बीपीएल(गरीबी रेखा से नीचे रहनेवालों की सूची, जो तैयार हो रही है) में धांधली को लेकर बिहार के ग्रामीण गरीब आंदोलित हैं. उन्होंने अपने दम पर सरकार को पीछे धकेला. आज हर जिले में सरकारी महकमा सूची में सुधार के लिए रतजगा कर रहा है. नीतीश सरकार ने मामले की गंभीरता को समझा, पर मजदूर वर्ग की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी. पंचायत स्तर पर धांधली में सरकारी सेवकों के नाम धड़ल्ले से आ रहे हैं, पर किसी कर्मचारी संगठन ने अपने सहकर्मियों की घूसखोरी की प्रवृत्ति को मुद्दा नहीं बनाया. नरेगा(राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) का बिहार में बुरा हाल है, पर इसे संगठित क्षेत्र के कर्मियों ने मुद्दा नहीं बनाया. बिहार में मजदूर वर्ग का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में है. सबसे बड़ी संख्या खेत मजदूरों की है. निर्माण मजदूरों की भी बड़ी तादाद है. बिहार की आबादी के एक तिहाई इस हिस्से से मुंह मोड़ कर किसी आंदोलन का विकास नहीं हो सकता.
आज का दौर ठेके और निजीक रण का दौर है. ठेके पर शिक्षक, कर्मचारी और यहां तक की डॉक्टर-इंजीनियर
की भी बहाली हो रही है. मजदूर वर्ग के समक्ष यह बिल्कुल नयी परिस्थिति है. जब कुछ भी स्थायी न हो, तो मजदूरों को संगठित करना और भी मुश्किल है. ब्रिटेन व अमेरिका की ट्रेड यूनियनें विलय के लिए वार्ता चला रही हैं. भारत के ट्रेड यूनियन नेताओं को भी कुनबों की राजनीति से जल्दी ही बाहर आ जाना चाहिए.
क्या महाबली लौटेगा अपनी मांद में
एमजे अकबर के लिए अलग से कोई परिचय देने की ज़रूरत नहीं है. आजकल वे अंतररष्ट्रीय मुद्दों,कखासकर अमेरिकी नीतियों, पर लगातार लिख रहे हैं.अपने इस लेख में वे अमेरिका के इराक से लौटने को लेकर अमेरिका में चल रहे राजनीति की चर्चा कर रहे हैं. यह लेख प्रभात खबर में हाल ही में प्रकाशित हो चुका है. वहां से साभार.
पुनर्वापसी की ओर दुनिया
एमजे अकबर
शांति की बात करना क्या देशभक्ति है? अमेरिका आज बहस के इसी मुद्दे से गुजर रहा है. इराक में उसकी हार का निहितार्थ और जीत का अर्थ तलाशा जा रहा है. निश्चय ही युद्ध को सदैव देशभक्ति से जोड़ा गया है. किसी भी नेतृत्व के लिए एक हाथ में बंदूक और दूसरे हाथ में बिगुल जीत का ध्वज माना गया. जो जितना ज्यादा अपनी मातृभूमि का कर्ताधर्ता बनता जाता है, वह अपने लोगों को उतना ही अधिक कब्र की ओर धकेल सकता है. आतंक वादियों की देशभक्ति भी ऐसा ही मजबूत लबादा है, जो अपने पापों को ऐसे ही गैरजिम्मेदार तरीके से घालमेल कर बहाना-बनाना चाहते हैं.
इसी तरह आज कमांडर इन चीफ की महिमा की रक्षा करना भी देशभक्ति का तकाजा बन गया है. भले ही यह कोई बाध्यता नहीं है. राजनीतिज्ञ वोट की तलाश में शांति प्रयासों को युद्ध में तब्दील करने की मंशा रखते हैं. वजह यह कि शांति अस्पष्ट होती है, जबकि युद्ध में बल की प्रधानता दिखती है. यद्यपि आम धारणा यही है कि मतदाता शांति को ही पसंद करते हैं, पर सामान्य अनुभव हमें बताता है कि युद्ध के बाद मतदाता ज्यादा प्रभावित किये जा सकते हैं, जबकि डर की भावना को सर्वाधिक मुखर रू प में युद्ध के माध्यम से व्यक्त कि या जा सक ता है. भावनाओं और तर्क का यही वह शक्तिशाली समिश्रण है, जिसे बुश ने पिछले पांच वर्ष से बनाये रखा है. अमेरिकी चेतना में डर की भावना बुश के कारण नहीं, बल्कि 9/11 की घटना से पैदा हुई. इस पूरे मुद्दे को जॉर्ज बुश ने ब़डी होशियारी से भुनाया है. उन्होंने अमेरिकन एजेंडा के बजाय बुश बजेंडा को सर्वोपरि रखा. यही वह सामान्य कारण है, जिस बिना पर आफ गानिस्तान और इराक युद्ध के बीच अंतर तलाशा जा सकता है. ओसामा बिन लादेन को अमेरिका को सौंपने से तालिबानियों के इनकार करने से अमेरिका को उस पर हमला क रने की वैधता मिल गयी, लेकिन सद्दाम हुसैन के खिलाफ युद्ध आतंकवाद के खिलाफ युद्ध जैसा नहीं माना जा सकता. इराक युद्ध ने इस बात को बार-बार सिद्ध किया कि जॉर्ज बुश और उपराष्ट्रपति डिक चेनी ने इस पूरे प्रकरण को उपहास का विषय बना दिया. इसके लिए तथ्यों को तोड़ मोड़ कर और अतिशयोक्ति पूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया. सद्दाम हुसैन पर लादेन का सहयोगी होने का झूठा आरोप थोपा गया. आतंक के खिलाफ युद्ध का मुहावरा लोगों में उत्सुकताका विषय बना दिया गया. एक अदृश्य आतंक की सत्ता के खिलाफ किस तरह लड़ा जाये, यह बात अचानक ही नहीं पैदा हुई. अपने शत्रुओं को निशाने पर लेने और व्हाइट हाउस को सशक्त बनाने के लिए इन बातों को जानबूझ कर हवा दी गयी. बुश से जो सबसे बड़ी गलती हुई वह यह थी कि अपने दुश्मनों को सजा देने की उनकी इच्छा इन सबके बावजूद एक अधूरा सपना ही रह गयी. उनकी आशाओं के विपरीत इराक में चरमपंथियों के उभार से यह बात सिद्ध हुई कि उनके लक्ष्य ने उन्हीं के लिए विध्वंसक परिणाम पैदा कि ये. वहां रोज हो रही हिंसक घटनाएं, सेना पर अतिरिक्त दबाव, बढ़ रहे वित्तीय खर्च और जनविरोध बताते हैं कि बुश और उनकी रिपब्लिक न पार्टी के लिए यह पूरा अभियान बहुत महंगा सिद्ध हुआ. फिर भी युद्ध को सही ठहराने की कोशिश से बुश की दृढ़ता का पता चलता है. हालांकि इसकी उपयोगिता खत्म हो गयी है, लेकि न इसका राजनीतिक फ़ायदा तो उठाया ही जा सकता है. अब बुश और डेमोक्रे ट्स के बीच बहस का मुद्दा यह है कि क्या इराक से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की कोई समय सीमा तय होनी चाहिए? डेमोक्रे ट्स चाहते हैं कि अगले 18 महीनों के अंदर, यानी नया राष्ट्रपति चुने जाने से पूर्व सैनिकों की वापसी हो जानी चाहिए. लेकि न बुश का मानना है कि इसकी समय सीमा तय करने से वे युद्ध हार जायेंगे. वस्तुत: बुश की इन बातों से उनका खोखलापन ही उजागर होता है. वह अपनी नयी चरमपंथी पुनरुत्थान रणनीति के तहत इराक में शांति लाने के लिए अमेरिकी सैन्य टुकड़ियों की संख्या बढ़ाना चाहते हैं. ऐसी बातों से जॉर्ज बुश नाराज रिपब्लिक नों का समर्थन पा रहे हैं, क्योंकि इससे कहीं न क हीं एक समय सीमा बंधती है. यदि अक्तूबर-नवंबर माह तक यह रणनीति कारगर नहीं होती है, तो बुश अपनी नीतियों में बदलाव करेंगे. और इस बदलाव से एक प्रकार से इराक से मुक्ति मिल सकेगी. इस तरह डेमोक्रेट की अपेक्षा रिपब्लिक न बुश को और भी कम समय दे रहे हैं. वस्तुत: बुश के लफ्ज कुछ अलग हैं, जबकि अमेरिकी सेना और जनता इराक से मुक्ति चाहती है. पेंटागन ने स्वीकार किया है कि इधर सशस्त्र बलों पर बहुत दबाव रहा है, इस कारण इराक में सैनिकों की सामान्य ड्यूटी सुधार कर उसे 15 महीने कर दिया गया है. वियतनाम युद्ध के काल में भी यह समय सीमा अधिक तम 15 महीने ही थी. सेना का कहना है कि बहुत ऊ़चे वेतन पर पिछले वर्ष 80 हजार लोगों की भर्ती के बावजूद उसने 14 लाख सैनिकों की निर्धारित संख्या को बनाये रखा है. इस संख्या को सामान्य अवकाश का सूचक नहीं माना जा सकता. इससे इराक में सैनिकों की कमश: घटती संख्या का भी पता चलता है. युद्ध के समय अधिकतर युवा अपने बेहतर भविष्य, अधिक लाभ और मिलनेवाले ढेर पैसे की वजह से सेना में भर्ती हुए थे. कुछ डेमोक्रेट राजनीतिज्ञ पहले के मसौदे में बदलाव चाहते हैं, ताकि धनी बच्चें को युद्ध के मैदान में लाया जाये. उनका मानना है कि यदि जॉर्ज बुश की नीतियों के लिए अभिजात्य वर्ग अपने बच्चें को मरने के लिए भेजता है, तो इससे युद्ध बहुत जल्दी समाप्त होगा.
कोई नहीं जानता कि इसका परिणाम अमेरिका की किस पीढ़ी को भुगतना होगा. इस युद्ध की लागत 500 बिलियन डॉलर पार कर चुकी है. इसका सबसे बड़ा नुकसान वित्तीय मोर्चे पर हुआ है. युद्ध में बहाये जा रहे खून की कीमत बिगड़ते बैलेंस सीट के रूप में सामने आया है. इराक में उपयोग में आ रहे हेलिकॉप्टरों को सितंबर में नयी मशीनों द्वारा बदल दिया जायेगा. यह नया बेड़ा वी-22 विमानों का होगा, जो हेलिकॉप्टर की तुलना में अधिक गतिवाला और युद्धक किस्म का होगा. हालांकि चरमपंथियों के विरुद्ध इसकी उपयोगिता के बारे में काफी अनिश्चय की स्थिति है, पर इसकी लागत कम से कम प्रति विमान 20 बिलियन डॉलर तो है ही. इससे सामरिक उद्योगों को बहुत धनी होने का मौका जरूर मिल जायेगा.
देखें फ़ारेनहाइट 9.11. सितंबर 11, 2001 को ट्रेड सेंटर टावरों पर हमले की असली कहानी. इसी घटना को आधार बना कर अफ़गानिस्तान और इराक पर हमला किया गया.
अब अमेरिका की जनता को एहसास होने लगा है कि पैसे या सुंदर लफ्जों के छद्म से जमीनी युद्ध नहीं जीता जा सकता. बुश के लफ्जों के छद्म की रणनीति के बने रहने की सामान्य वजह यह है कि यहां युद्ध की कोई परिभाषा नहीं है. इसलिए हासिल किये गये निश्चित लक्ष्यों की बात भी नहीं की जाती. वास्तव में देखा जाये, तो इराक युद्ध के दोनों घोषित उद्देश्य पूरे हो चुके हैं. अब यह निश्चित हो चुका है कि वहां न तो सामूहिक विनाश के हथियार हैं और न ही सद्दाम हुसैन. इराक अगले सौ वर्ष तक उन्हें पाने की सामर्थ्य भी नहीं रखता है. अब सद्दाम मर चुके हैं और उनकी सत्ता नष्ट हो चुकी है. इसलिए अब अमेरिका और ब्रिटेन की सेना बगदाद में पुलिस मैन के रूप में क्यों बनी हुई है? यदि यही उनका मिशन है, तो यह असंभव मिशन है. इससे किसी भी दिन पता चलेगा कि अमेरिका और ब्रिटेन की मुख्य जगहों पर जवाबी हमला किया गया. जब तक इराकी धरती पर विदेशी सैन्य टुकड़ियां बनी रहेंगी, तब तक वहां से उग्रवाद को नहीं मिटाया जा सकता. जब कोई प्रशासन बिखरना शुरू होता है, तो केवल एक खंभा ही नहीं गिरता; विश्वास के क्षरण का प्रभाव पूरी संरचना पर पड़ता है. इस सरकार के सभी महत्वाकांक्षी लोग गलत कारणों से पहले पन्ने पर छाये हुए हैं. इस विजय के सूत्रधार कार्ल रावे यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि व्हाइट हाउस के अभिलेखागार से लाखों करोड़ों ई-मेल क्यों हटाये गये. इराक के मुख्य मस्तिष्क पॉल वोल्फोविट्ड अब विश्व बैंक के अध्यक्ष हैं. वह अभी अपने गर्ल फ्रेंड को बहुत ऊंचे वेतनमान पर नौकरी देने के मामले में अपने प्रभाव के दुरुपयोग मामले में सफाई दे रहे हैं. उन पर आरोप लगोनवालों का मानना है कि वह विश्व बैंक की परवाह नहीं करते. वास्तव में पॉल वोल्फोविट्ज, कार्ल रावे, डिक चेनी और जार्ज बुश विश्व बैंक की बहुत ज्यादा परवाह करते हैं. यदि वह किसी की परवाह नहीं करते तो शेष पूरे विश्व की. इस तरह दुनिया पुनर्वापसी की राह पर है.
ठेके के दौर में मज़दूर आंदोलन : सब रस ले गयी पिंजडेवाली मुनिया
कुमार अनिल भाकपा माले लिबरेशन से जुडे़ रहे हैं. अभी प्रभात खबर में हैं. मई दिवस को देखते हुए आज के हालात में मज़दूर संगठनों पर उनकी चिंताएं इस लेख के माध्यम से सामने आयी हैं. आगे भी वे कुछ लिखेंगे इस मसले पर. हमारा इरादा आज के राजनीतिक-आर्थिक हालात में मज़दूर आंदोलन पर एक बहस चलाने का है. आइए आप भी इसमें हिस्सा लीजिए.
कुमार अनिल
बड़ी अजीब स्थिति है. सीपीएम से जुड़ी सीटू पटना में इस बार अलग से मजदूर दिवस मनायेगी. पिछले क ई वर्षों से क म-से-क म पहली मई को सारी ट्रेड यूनियनें एक मंच पर आती रही हैं. इस बार मामला नंदीग्राम को लेकर उलझ गया. नंदीग्राम में कि सानों पर हुए दमन को जहां अन्य संगठन मुद्दा बनाना चाहते हैं, वहीं सीपीएम अपनी सरकार की आलोचना को तैयार नहीं है. वाम मोरचे में फूट पड़ गयी. एटक, यूटीयूसी(लेस), यूटीयूसी, ए टू व एचएमएस एक मंच पर होंगे व दूसरी ओर होगी सीटू . बहुत दिनों के बाद कि सानों के मुद्दे पर ट्रेड यूनियनों में बहस हुई.
आजादी के बाद से ही कि सानों व दूसरे तबकों के आंदोलनों से मजदूर वर्ग का आंदोलन कटता चला गया. आज मजदूर वर्ग का आंदोलन पूरी तरह अपनी ही मांगों में सिमट क र रह गया है. वेतन, बोनस, प्रोन्नति, भत्ता ही उसके लिए सब कुछ है. आंदोलन अपनी राष्ट्रीय भूमिका खोता चला गया.
एक समय ट्रेड यूनियन आंदोलन ने देश की राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज क रायी थी. क म्युनिस्ट पार्टी के बनने से पहले 1921 में एटक के दूसरे अधिवेशन में 50 हजार से ज्यादा मजदूर झरिया में जुटे थे. अधिवेशन का पहला प्रस्ताव स्वराज के लिए था. जोरदार शब्दों में घोषणा की गयी कि स्वराज पाने का सही समय आ गया है. दूसरा प्रस्ताव अंतरराष्ट्रीय भाईचारे को लेकर था. सूखे व अकाल से पीड़ित रूसियों के प्रति संवेदना प्रकट की गयी. अधिवेशन ने देश के मजदूरों का आह्वान किया कि वे रूसी भाइयों के लिए अपना एक दिन का वेतन दान करें. साइमन कमीशन जब मुंबई पहुंचा तो 20 हजार मजदूरों ने सड़क पर उतर कर विरोध कि या.
कम्युनिस्ट पार्टी की उदासीनता के बावजूद नौ अगस्त, 1942 को जब महात्मा गांधी गिरफ्तार हुए, तो देश भर के मजदूरों ने हड़ताल की. 1946 के नौसैनिक हड़ताल के समर्थन में मजदूरों की हड़ताल को भला कौन भुला सकता है.
वैश्वीकरण के इस युग में इकाई, विभाग व संवर्ग में बंटे मजदूर वर्ग को न सिर्फ अपनी एकता बनानी होगी, वरन अपनी सामाजिक भूमिका को फिर से परिभाषित भी करना होगा.
बिहार में सेवा क्षेत्र के कर्मियों की बड़ी तादाद है. अब तब उन्होंने सैक ड़ों हड़तालें की हैं. उनका वेतनमान भी काफ़ी आक र्षक है, लेकिन उन्होंने कभी जनता से जुड़ने की कोशिश नहीं की. बीपीएल(गरीबी रेखा से नीचे रहनेवालों की सूची, जो तैयार हो रही है) में धांधली को लेकर बिहार के ग्रामीण गरीब आंदोलित हैं. उन्होंने अपने दम पर सरकार को पीछे धकेला. आज हर जिले में सरकारी महकमा सूची में सुधार के लिए रतजगा कर रहा है. नीतीश सरकार ने मामले की गंभीरता को समझा, पर मजदूर वर्ग की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी. पंचायत स्तर पर धांधली में सरकारी सेवकों के नाम धड़ल्ले से आ रहे हैं, पर किसी कर्मचारी संगठन ने अपने सहकर्मियों की घूसखोरी की प्रवृत्ति को मुद्दा नहीं बनाया. नरेगा(राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) का बिहार में बुरा हाल है, पर इसे संगठित क्षेत्र के कर्मियों ने मुद्दा नहीं बनाया. बिहार में मजदूर वर्ग का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में है. सबसे बड़ी संख्या खेत मजदूरों की है. निर्माण मजदूरों की भी बड़ी तादाद है. बिहार की आबादी के एक तिहाई इस हिस्से से मुंह मोड़ कर किसी आंदोलन का विकास नहीं हो सकता.
आज का दौर ठेके और निजीक रण का दौर है. ठेके पर शिक्षक, कर्मचारी और यहां तक की डॉक्टर-इंजीनियर
की भी बहाली हो रही है. मजदूर वर्ग के समक्ष यह बिल्कुल नयी परिस्थिति है. जब कुछ भी स्थायी न हो, तो मजदूरों को संगठित करना और भी मुश्किल है. ब्रिटेन व अमेरिका की ट्रेड यूनियनें विलय के लिए वार्ता चला रही हैं. भारत के ट्रेड यूनियन नेताओं को भी कुनबों की राजनीति से जल्दी ही बाहर आ जाना चाहिए.
क्या महाबली लौटेगा अपनी मांद में
एमजे अकबर के लिए अलग से कोई परिचय देने की ज़रूरत नहीं है. आजकल वे अंतररष्ट्रीय मुद्दों,कखासकर अमेरिकी नीतियों, पर लगातार लिख रहे हैं.अपने इस लेख में वे अमेरिका के इराक से लौटने को लेकर अमेरिका में चल रहे राजनीति की चर्चा कर रहे हैं. यह लेख प्रभात खबर में हाल ही में प्रकाशित हो चुका है. वहां से साभार.
पुनर्वापसी की ओर दुनिया
एमजे अकबर
शांति की बात करना क्या देशभक्ति है? अमेरिका आज बहस के इसी मुद्दे से गुजर रहा है. इराक में उसकी हार का निहितार्थ और जीत का अर्थ तलाशा जा रहा है. निश्चय ही युद्ध को सदैव देशभक्ति से जोड़ा गया है. किसी भी नेतृत्व के लिए एक हाथ में बंदूक और दूसरे हाथ में बिगुल जीत का ध्वज माना गया. जो जितना ज्यादा अपनी मातृभूमि का कर्ताधर्ता बनता जाता है, वह अपने लोगों को उतना ही अधिक कब्र की ओर धकेल सकता है. आतंक वादियों की देशभक्ति भी ऐसा ही मजबूत लबादा है, जो अपने पापों को ऐसे ही गैरजिम्मेदार तरीके से घालमेल कर बहाना-बनाना चाहते हैं.
इसी तरह आज कमांडर इन चीफ की महिमा की रक्षा करना भी देशभक्ति का तकाजा बन गया है. भले ही यह कोई बाध्यता नहीं है. राजनीतिज्ञ वोट की तलाश में शांति प्रयासों को युद्ध में तब्दील करने की मंशा रखते हैं. वजह यह कि शांति अस्पष्ट होती है, जबकि युद्ध में बल की प्रधानता दिखती है. यद्यपि आम धारणा यही है कि मतदाता शांति को ही पसंद करते हैं, पर सामान्य अनुभव हमें बताता है कि युद्ध के बाद मतदाता ज्यादा प्रभावित किये जा सकते हैं, जबकि डर की भावना को सर्वाधिक मुखर रू प में युद्ध के माध्यम से व्यक्त कि या जा सक ता है. भावनाओं और तर्क का यही वह शक्तिशाली समिश्रण है, जिसे बुश ने पिछले पांच वर्ष से बनाये रखा है. अमेरिकी चेतना में डर की भावना बुश के कारण नहीं, बल्कि 9/11 की घटना से पैदा हुई. इस पूरे मुद्दे को जॉर्ज बुश ने ब़डी होशियारी से भुनाया है. उन्होंने अमेरिकन एजेंडा के बजाय बुश बजेंडा को सर्वोपरि रखा. यही वह सामान्य कारण है, जिस बिना पर आफ गानिस्तान और इराक युद्ध के बीच अंतर तलाशा जा सकता है. ओसामा बिन लादेन को अमेरिका को सौंपने से तालिबानियों के इनकार करने से अमेरिका को उस पर हमला क रने की वैधता मिल गयी, लेकिन सद्दाम हुसैन के खिलाफ युद्ध आतंकवाद के खिलाफ युद्ध जैसा नहीं माना जा सकता. इराक युद्ध ने इस बात को बार-बार सिद्ध किया कि जॉर्ज बुश और उपराष्ट्रपति डिक चेनी ने इस पूरे प्रकरण को उपहास का विषय बना दिया. इसके लिए तथ्यों को तोड़ मोड़ कर और अतिशयोक्ति पूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया. सद्दाम हुसैन पर लादेन का सहयोगी होने का झूठा आरोप थोपा गया. आतंक के खिलाफ युद्ध का मुहावरा लोगों में उत्सुकताका विषय बना दिया गया. एक अदृश्य आतंक की सत्ता के खिलाफ किस तरह लड़ा जाये, यह बात अचानक ही नहीं पैदा हुई. अपने शत्रुओं को निशाने पर लेने और व्हाइट हाउस को सशक्त बनाने के लिए इन बातों को जानबूझ कर हवा दी गयी. बुश से जो सबसे बड़ी गलती हुई वह यह थी कि अपने दुश्मनों को सजा देने की उनकी इच्छा इन सबके बावजूद एक अधूरा सपना ही रह गयी. उनकी आशाओं के विपरीत इराक में चरमपंथियों के उभार से यह बात सिद्ध हुई कि उनके लक्ष्य ने उन्हीं के लिए विध्वंसक परिणाम पैदा कि ये. वहां रोज हो रही हिंसक घटनाएं, सेना पर अतिरिक्त दबाव, बढ़ रहे वित्तीय खर्च और जनविरोध बताते हैं कि बुश और उनकी रिपब्लिक न पार्टी के लिए यह पूरा अभियान बहुत महंगा सिद्ध हुआ. फिर भी युद्ध को सही ठहराने की कोशिश से बुश की दृढ़ता का पता चलता है. हालांकि इसकी उपयोगिता खत्म हो गयी है, लेकि न इसका राजनीतिक फ़ायदा तो उठाया ही जा सकता है. अब बुश और डेमोक्रे ट्स के बीच बहस का मुद्दा यह है कि क्या इराक से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की कोई समय सीमा तय होनी चाहिए? डेमोक्रे ट्स चाहते हैं कि अगले 18 महीनों के अंदर, यानी नया राष्ट्रपति चुने जाने से पूर्व सैनिकों की वापसी हो जानी चाहिए. लेकि न बुश का मानना है कि इसकी समय सीमा तय करने से वे युद्ध हार जायेंगे. वस्तुत: बुश की इन बातों से उनका खोखलापन ही उजागर होता है. वह अपनी नयी चरमपंथी पुनरुत्थान रणनीति के तहत इराक में शांति लाने के लिए अमेरिकी सैन्य टुकड़ियों की संख्या बढ़ाना चाहते हैं. ऐसी बातों से जॉर्ज बुश नाराज रिपब्लिक नों का समर्थन पा रहे हैं, क्योंकि इससे कहीं न क हीं एक समय सीमा बंधती है. यदि अक्तूबर-नवंबर माह तक यह रणनीति कारगर नहीं होती है, तो बुश अपनी नीतियों में बदलाव करेंगे. और इस बदलाव से एक प्रकार से इराक से मुक्ति मिल सकेगी. इस तरह डेमोक्रेट की अपेक्षा रिपब्लिक न बुश को और भी कम समय दे रहे हैं. वस्तुत: बुश के लफ्ज कुछ अलग हैं, जबकि अमेरिकी सेना और जनता इराक से मुक्ति चाहती है. पेंटागन ने स्वीकार किया है कि इधर सशस्त्र बलों पर बहुत दबाव रहा है, इस कारण इराक में सैनिकों की सामान्य ड्यूटी सुधार कर उसे 15 महीने कर दिया गया है. वियतनाम युद्ध के काल में भी यह समय सीमा अधिक तम 15 महीने ही थी. सेना का कहना है कि बहुत ऊ़चे वेतन पर पिछले वर्ष 80 हजार लोगों की भर्ती के बावजूद उसने 14 लाख सैनिकों की निर्धारित संख्या को बनाये रखा है. इस संख्या को सामान्य अवकाश का सूचक नहीं माना जा सकता. इससे इराक में सैनिकों की कमश: घटती संख्या का भी पता चलता है. युद्ध के समय अधिकतर युवा अपने बेहतर भविष्य, अधिक लाभ और मिलनेवाले ढेर पैसे की वजह से सेना में भर्ती हुए थे. कुछ डेमोक्रेट राजनीतिज्ञ पहले के मसौदे में बदलाव चाहते हैं, ताकि धनी बच्चें को युद्ध के मैदान में लाया जाये. उनका मानना है कि यदि जॉर्ज बुश की नीतियों के लिए अभिजात्य वर्ग अपने बच्चें को मरने के लिए भेजता है, तो इससे युद्ध बहुत जल्दी समाप्त होगा.
कोई नहीं जानता कि इसका परिणाम अमेरिका की किस पीढ़ी को भुगतना होगा. इस युद्ध की लागत 500 बिलियन डॉलर पार कर चुकी है. इसका सबसे बड़ा नुकसान वित्तीय मोर्चे पर हुआ है. युद्ध में बहाये जा रहे खून की कीमत बिगड़ते बैलेंस सीट के रूप में सामने आया है. इराक में उपयोग में आ रहे हेलिकॉप्टरों को सितंबर में नयी मशीनों द्वारा बदल दिया जायेगा. यह नया बेड़ा वी-22 विमानों का होगा, जो हेलिकॉप्टर की तुलना में अधिक गतिवाला और युद्धक किस्म का होगा. हालांकि चरमपंथियों के विरुद्ध इसकी उपयोगिता के बारे में काफी अनिश्चय की स्थिति है, पर इसकी लागत कम से कम प्रति विमान 20 बिलियन डॉलर तो है ही. इससे सामरिक उद्योगों को बहुत धनी होने का मौका जरूर मिल जायेगा.
देखें फ़ारेनहाइट 9.11. सितंबर 11, 2001 को ट्रेड सेंटर टावरों पर हमले की असली कहानी. इसी घटना को आधार बना कर अफ़गानिस्तान और इराक पर हमला किया गया.
अब अमेरिका की जनता को एहसास होने लगा है कि पैसे या सुंदर लफ्जों के छद्म से जमीनी युद्ध नहीं जीता जा सकता. बुश के लफ्जों के छद्म की रणनीति के बने रहने की सामान्य वजह यह है कि यहां युद्ध की कोई परिभाषा नहीं है. इसलिए हासिल किये गये निश्चित लक्ष्यों की बात भी नहीं की जाती. वास्तव में देखा जाये, तो इराक युद्ध के दोनों घोषित उद्देश्य पूरे हो चुके हैं. अब यह निश्चित हो चुका है कि वहां न तो सामूहिक विनाश के हथियार हैं और न ही सद्दाम हुसैन. इराक अगले सौ वर्ष तक उन्हें पाने की सामर्थ्य भी नहीं रखता है. अब सद्दाम मर चुके हैं और उनकी सत्ता नष्ट हो चुकी है. इसलिए अब अमेरिका और ब्रिटेन की सेना बगदाद में पुलिस मैन के रूप में क्यों बनी हुई है? यदि यही उनका मिशन है, तो यह असंभव मिशन है. इससे किसी भी दिन पता चलेगा कि अमेरिका और ब्रिटेन की मुख्य जगहों पर जवाबी हमला किया गया. जब तक इराकी धरती पर विदेशी सैन्य टुकड़ियां बनी रहेंगी, तब तक वहां से उग्रवाद को नहीं मिटाया जा सकता. जब कोई प्रशासन बिखरना शुरू होता है, तो केवल एक खंभा ही नहीं गिरता; विश्वास के क्षरण का प्रभाव पूरी संरचना पर पड़ता है. इस सरकार के सभी महत्वाकांक्षी लोग गलत कारणों से पहले पन्ने पर छाये हुए हैं. इस विजय के सूत्रधार कार्ल रावे यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि व्हाइट हाउस के अभिलेखागार से लाखों करोड़ों ई-मेल क्यों हटाये गये. इराक के मुख्य मस्तिष्क पॉल वोल्फोविट्ड अब विश्व बैंक के अध्यक्ष हैं. वह अभी अपने गर्ल फ्रेंड को बहुत ऊंचे वेतनमान पर नौकरी देने के मामले में अपने प्रभाव के दुरुपयोग मामले में सफाई दे रहे हैं. उन पर आरोप लगोनवालों का मानना है कि वह विश्व बैंक की परवाह नहीं करते. वास्तव में पॉल वोल्फोविट्ज, कार्ल रावे, डिक चेनी और जार्ज बुश विश्व बैंक की बहुत ज्यादा परवाह करते हैं. यदि वह किसी की परवाह नहीं करते तो शेष पूरे विश्व की. इस तरह दुनिया पुनर्वापसी की राह पर है.
बंगाल में पोंगापंथ
वाकई देश में सीपीएम किस तरह से मार्क्स का नाम लेकर धार्मिक ब्रह्मणों और आर्थिक ब्राह्मणों (अमेरिकनों) के लिए लाल कालीन बिछाये हुए है, यह देखने लायक है. हंस के मार्च अंक से साभार
पलाश विश्वास
बंगाल के शरतचन्द्रीय बंकिमचन्द्रीय उपन्यासों से हिंदी जगत भली-भांति परिचित है, जहां कुलीन ब्राह्मण जमींदार परिवारों की गौरवगाथाएं लिपिबद्ध हैं. महाश्वेता देवी समेत आधुनिक बांग्ला गद्य साहित्य में स्त्राी अस्मिता व उसकी देहमुक्ति का विमर्श और आदिवासी जीवन यंत्राणा व संघर्षों की सशक्त प्रस्तुति के बावजूद दलितों की उपस्थिति नगण्य है. हिंदी, मराठी, पंजाबी, तमिल, कन्नड़ और तेलुगू भाषाओं की तरह बांग्ला में दलित साहित्य आंदोलन की कोई पहचान नहीं बन पाई है और न ही कोई महत्त्वपूर्ण दलित आत्मकथा सामने आई है, बेबी हाल्दार के आलोआंधारि जैसे अपवादों को छोड़कर. आलो आंधारि का भी हिंदी अनुवाद पहले छपा, मूल बांग्ला आत्मकथा बाद में आयी.
यह ब्राह्मणत्व का प्रबल प्रताप ही है कि १९४७ में भारत विभाजन के बाद हुए बहुसंख्य जनसंख्या स्थानांतरण के तहत पंजाब से आनेवाले दंगापीड़ितों को शरणार्थी मानकर उनके पुनर्वास को राष्ट्रीय दायित्व मानते हुए युद्धस्तर पर पुनर्वास का काम पूरा किया गया. जबकि पंडित जवाहर लाल नेहरू और आधुनिक बंगाल के निर्माता तत्कालीन मुख्यमंत्राी विधानचंद्र राय ने पूर्वी बंगाल के दलित आंदोलन के आधार क्षेत्रा जैशोर, खुलना, फरीदपुर, बरिशाल से लेकर चटगांव, कलकत्तिया सवर्ण वर्चस्व और ब्राह्मणवादी एकाधिकार को चुनौती देने वाली कोई ताकत नहीं है. भारत भर में ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक पिछड़े वर्ग की जनसंख्या चालीस प्रतिशत से ज्य़ादा है. भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बाकी देश में पिछड़े वर्ग के आरक्षण का जोरदार समर्थन करती है. मलाईदार तबके को प्रोन्नति से अलग रखने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद नई दिल्ली में ओबीसी कोर ग्रुप की बैठक हुई जिसमें त्रिापुरा के समाज कल्याण मंत्राी कवि अनिल सरकार, जो माकपा की हैदराबाद कांग्रेस में गठित दलित सेल में बंगाल वाममोर्चा चेयरमैन विमान बसु के साथ महत्त्वपूर्ण सदस्य हैं, शामिल हुए. पार्टी का दलित एजेंडा भी बसु और सरकार ने तय किया. इन्हीं अनिल सरकार ने उस बैठक में दलितों और पिछड़ों के आरक्षण की सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय सीमा ५० फ़ीसदी से बढ़ाने के लिए संविधान संशोधन की मांग उठाई, मलाईदार तबक़े को प्रोन्नति से अलग रखने के फ़ैसले की प्रतिक्रिया में उन्होंने सवर्ण मलाईदार तबकेश् को चिन्हित करके उन्हें भी प्रोन्नति के अवसरों से वंचित रखने की सिफ़ारिश की है. उनका दावा है कि त्रिापुरा में निजी क्षेत्रा में दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों का आरक्षण लागू किया जा चुका है.
इसके विपरीत पश्चिम बंगाल में अभी तक पिछड़ी जातियों की पहचान का काम पूरा नहीं हुआ है, आरक्षण तो दूर. अनिल सरकार कहते हैं कि पचास फ़ीसद आरक्षण के बावजूद सिर्फ दस प्रतिशत नौकरियां ही दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को मिलती हैं, नब्बे फ़ीसदी नौकरियों पर सवर्ण काबिज़ हैं.
पश्चिम बंगाल में निजी क्षेत्रा में दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों को प्रोन्नति के अवसर तो सिरे से नहीं हैं. आरक्षित पदों पर रिक्तियां अनंत हैं पर योग्य प्रार्थी न मिलने की वजह दिखाकर अमूमन आरक्षित पदों को सामान्य बनाना आम है. गैर बंगाली नागरिकों को तो किसी भी क़ीमत पर जाति प्रमाण-पत्रा नहीं ही मिलता पर अब दलितों, आदिवासियों की संतानों को भी जाति प्रमाण-पत्रा जारी नहीं किए जाते.
सबसे सदमा पहुंचाने वाली बात यह है कि बाक़ी देश में जहां अखब़ार और मीडिया गैर-ब्राह्मणों की खब़रों को प्रमुखता देते हैं, वहीं बंगाल में ब्राह्मणवादी मीडिया और अखब़ार दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और शरणार्थियों के बारे में एक पंक्ति की खब़र तक नहीं छापते. जबकि कमज़ोर तबकेश् की आवाज़ उठाने वाली माकपा बंगाल में ३५ सालों से सत्ता में हैं.
पिछले दिनों सुभाष चक्रवर्ती के तारापीठ जाकर तारा मां की पूजा पर पार्टी पोलित ब्यूरो, केंद्रीय समिति, राज्य वाम मोर्चा से लेकर मीडिया में काफ़ी बवेला मचा. पार्टी, विचारधारा और धर्म पर वैचारिक बहस छिड़ गई. प्रतिक्रिया में सुभाष चक्रवर्ती ने कहा, ‘पहले मैं हिंदू हूं और फिर ब्राह्मण`. वे दुर्गोत्सव में १२० पंडालों के संरक्षक थे. विवाद से चिढ़कर उन्होंने परिवहनकर्मियों को धूमधाम से विश्वकर्ता पूजा मनाने के निर्देश दिए. हक़ीक़त यह है कि सुभाष चक्रवर्ती और उनके चार भाइयों ने जनेऊ धारण नहीं किया. ब्राह्मण समाज ने आज़ादी से पहले उनके परिवार का बहिष्कार कर दिया था, वे एकमात्रा सवर्ण मंत्राी हैं जो दलितों का साथ देते हैं. पर वे अपनी पहचान और संस्कृति के यथार्थ पर जोर देते हैं. ज़मीनी जड़ें होने के कारण उनका जनाधार मजबूत है. सुभाष चक्रवर्ती के इस विवादास्पद बयान पर बंगाल में धर्म पर बहस तो छिड़ी, मनुस्मृति और उसके अभिशाप पर चर्चा तक नहीं हुई, चक्रवर्ती वाम आंदोलन के बंगाल, त्रिापुरा और केरल तक सिमट जाने की वजह भारतीय संस्कृति और लोक से अलगाव को मानते हैं.
बाक़ी भारत में दलित आंदोलन से अलगाव भी माकपा को राष्ट्रीय नहीं बनाती, यह पार्टी के हैदराबाद कांग्रेस में मानकर बाक़ायदा आज़ादी के इतने सालों बाद दलित एजेंडा भी पास किया गया पर अपने चरित्रा में आज भी माकपा और सारे वामपंथी दल दलित विरोधी हैं. इसीलिए दिनों दिन बंगाल में ब्राह्मणवाद की जडें मजबूत हो रही हैं. इसी हक़ीक़त की ओर बागी मंत्राी सुभाष चक्रवर्ती ने उंगली उठाई है. पूंजीवाद विकास के लिए अधाधुंध, ज़मीन अधिग्रहण के शिकार हो रहे हैं दलित पिछड़े आदिवासी और अल्पसंख्यक, पर इस मुद्दे पर तमाम हो हल्ले के बावजूद बंगाल में दलितों के अधिकार को लेकर लड़ने वाली कोई ताकत कहीं नहीं है.
इधर के वर्षों में बचे-खुचे दलित आंदोलन के तहत खा़सकर कोलकाता और आस-पास विवाह, श्राद्ध जैसे संस्कारों में ब्राह्मणों का बहिष्कार होने लगा है. श्राद्ध की बजाय स्मृति-सभाएं होने लगी है, कई बरस पहले यादवपुर विश्वविद्यालय से संस्कृत में पीएचडी करने वाले एक दलित ने अपढ़ पुरोहित से पिता का श्राद्ध कराने की बजाय कृष्णनगर के पास अपने गांव में स्मृति सभा का आयोजन किया तो पूरे इलाक़े में तनाव फैल गया.
ताजा घटना सुभाष चक्रवर्ती के ब्राह्मणत्व के विवाद के बाद की है.
सुंदरवन इलाक़े में दलितों-पिछड़ों की आबादी ज्य़ादा रही है. इसी इलाक़े में दक्षिण २४ परगना जिले के गोसाबा थाना अंतर्गत सातजेलिया लाक्स़बागान ग्लासखाली गांव के निवासी मदन मोहन मंडल स्थानीय लाक्सबागान प्राथमिक विद्यालय के अवैतनिक शिक्षक हैं. पर चूंकि उन्होंने पुरोहित बुलाकर पिता का श्राद्ध नहीं किया और न ही मृत्युभोज दिया इसलिए पिछले चार महीने से उनका सामाजिक बहिष्कार चल रहा हैं. वे अपवित्रा और अछूत हो गए हैं और पिछले चार महीने से वे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं.
मदनमोहन मंडल के इस स्कूल के विद्यार्थी ज्य़ादातर अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अल्पसंख्यकों के बच्चे हैं. बतौर शिक्षक छात्रा-छात्रााओं में मदनमोहन बाबू अत्यंत लोकप्रिय हैं, पर पवित्रा ब्राह्मणवाद के पुण्य प्रताप से शनि की दशा है उन पर. पिता की मृत्यु पर बंगाली रिवाज़ के मुताबिक सफ़ेद थान कपड़े नहीं पहने उन्होंने. हविष्य अन्न नहीं खाया. सामान्य भोजन किया. नंगे पांव नहीं चले. और न ही पुरोहित का विधान लिया या श्राद्ध कराया.
ब्राह्मणवाद की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इस दलित बहुल इलाक़े में, ब्राह्मणों ने नहीं, दलितों और पिछड़ों ने उनके स्कूल जाने पर पाबंदी लगा दी. प्रधानाचार्य शिवपद मंडल का कहना है, ”मदनमोहन बाबू सूतक (अशौच अवस्था में) में हैं. वे स्कूल आएंगे तो यह नन्हें बच्चों के लिए अशुभ होगा. मदनमोहन बाबू को फ़तवा जारी किया गया है कि ब्राह्मणों से विधान लेकर पुरोहित बुलाकर पहले पितृश्राद्ध कराएं, फिर स्कूल आएं.
मदनमोहन मंडल ने हार नहीं मानी और विद्यालय निरीक्षक की शरण में चले गए. उन्होंने लाक्सबागान के पड़ोसी गांव बनखाली प्राथमिक विद्यालय में अपना तबादला करवा लिया पर इस स्कूल में भी उनके प्रवेशाधिकार पर रोक लग गई.
इलाक़े के मातबर लाहिड़ीपुर ग्राम पंचायत के पूर्व सदस्य व वामपंथी आरएसपी के नेता श्रीकांत मंडल का सवाल है, ”जो व्यक्ति अपने पिता का श्राद्ध नहीं करता, वह बच्चों को क्या शिक्षा देगा.“ गौरतलब है कि सुंदरवन इलाके में माकपा के अलावा आरएसपी का असर ज्य़ादा है. अभिभावकों की ओर से कन्हाई सरदार का कहना है, ”जो शिक्षक गीता, शास्त्रा नहीं मानता, उसके यहां बच्चों को भेजने के बजाय उन्हें अपढ़ बनाए रखना ही बेहतर है.“
आखिऱकार अपने सामाजिक बहिष्कार के खिलाफ़ मदनमोहन मंडल गोसाबा थाना पहुंच गए, पर पुलिस ने रपट लिखने से मना कर दिया. मदनमोहन बाबू ने गोसाबा अंचल के विद्यालय निरीक्षक ब्रजेन मंडल से लिखित शिकायत की. ब्रजेन बाबू ने खुद शिक्षक संगठन के प्रतिनिधियों के साथ मौक़े पर गए, पर ब्राह्मणवादी कर्मकांड विरोधी शिक्षक का सामाजिक बहिष्कार खत़्म नहीं हुआ.
मदनमोहन मंडल आरएसपी के कृषक आंदोलन से भी जुड़े रहे हैं. पर स्थानीय आरएसपी विधायक चित्तरंजन मंडल ने मदनमोहन बाबू के आचरण को ‘अशोभनीय` करार दिया.
दक्षिण चौबीस परगना के वामपंथी शिक्षक संगठन के सभापति अशोक बंद्योपाध्याय का कहना है, ”अगर कोई संस्कार तोड़ना चाहे तो उनका स्वागत है, पर यह देखना होगा कि उसकी इस कार्रवाई को स्थानीय लोग किस रूप में लेते हैं.“ अशोक बाबू ने मदनमोहन मंडल के मामले में हस्तक्षेप करने से मना कर दिया.
मदनमोहन बाबू अब भी स्कूल नहीं जा पाते, वे गोसाबा स्थित अपर विद्यालय निरीक्षक के दफ्त़र में हाज़िरी लगाकर अपनी नौकरी बचा रहे हैं. पर वे किसी क़ीमत पर पितृश्राद्ध के लिए तैयार नहीं हैं.
माकपा के बागी मंत्राी के ब्राह्मणत्व पर विचारधारा का हव्वा खड़ा करने वाले तमाम लोग परिदृश्य से गायब हैं.
संपर्क : द्वारा श्रीमती आरती राय, गोस्टोकानन, सोदपुर, कोलकाता-७००११०
फोन : ०३३-२५६५९५५१
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