Archive for April 24, 2007
अपना देश अब एक खस्सी है
नंदीग्राम पर सबसे मुखर विरोध बांग्ला में हुआ और वहां अनगिनत रचनाएं सामने आयीं. हमने पहले भी कई रचनाएं दी हैं. आज एक और कविता. हालांकि यह सिंगूर और नंदीग्राम में शुरुआती दौर में हुई घटनाओं के बाद लिखी गयी थी. अनुवाद विश्वजीत सेन का है. इसके साथ ही नंदीग्राम पर आयी नयी फ़िल्म भी देखना न भूलें. यह फ़िल्म उपलब्ध करवाने के लिए हम पत्रकार मित्र तथागत भट्टाचार्य और विश्वजीत सेन के आभारी हैं.
प्रतुल मुखोपाध्याय
अपना देश अब एक खस्सी है
जिसकी खाल उतार ली गयी है
मुंड से वंचित प्रेत जैसा
उल्टा लटक रहा है वह
टांग, सीना, रांग, चांप, गरदन
आपको किस हिस्से की ज़रूरत है
खुल्लमखुल्ला कहना होगा
इसी तरह बिकेगा अपना देश
उसके कुछ हिस्से खास बन जायेंगे
खास नियम, खास अर्थतंत्र
खास जगह, खास पहचान
‘खास’ मतलब आप उसे विदेशी भी कह सकते हैं
उन जगहों में देश का कानून खामोश ही रहेगा
वहां बजेगा वैश्वीकरण का बाजा
अपना देश भी सेज़ का भेस पहनेगा
अब केवल विकास का, उपभोक्तावाद का मंत्र
बाकी सब कुछ भूल जाना ही बेहतर…
गरीब अगर मिट भी जायें तो हर्ज़ क्या है
नये युग का दरवाज़ा जो खुल रहा है
क्या कहा आपने? देश अपनी मां समान है?
हा हा हा हा! कहां हैं आप महाशय?
क्यों पालते हैं झूठा आवेग?
समझना होगा अपना देश भी
बिकनेवाली चीज़ है
अपना देश अब एक खस्सी है
जिसकी खाल उतार ली गयी है
सब कुछ बरबाद हुआ-यह शोर किनका है?
अपना देश अब धनवालों की तश्तरियों में
परोसा जा रहा है
इसकी खूशबू तो देखिए
इसे कितने प्रकार से पकाया जा सकता है?
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