Archive for April 28, 2007
सावधान : संघ जब सामाजिक समरसता की बात करे
यह साल गोलवलकर की जन्मशती के समापन का वर्ष है. इस अवसर पर संघ ने बडे़ कार्यक्रम किये, काफ़ी डींगें हांकी. ऐसे में उसने सामाजिक समरसता का डंका भी पीटा. इस अवसर पर झूठ के पुलंदे के रूप में एक फ़िल्म भी आयी-कर्मयोगी.
सामाजिक समरसता के संघी निहितार्थ
सुभाष गाताडे
वह साठ के दशक के उत्तरार्ध की बात है. महाराष्ट्र एक तरह के आंदोलन का प्रत्यक्षदर्शी बना था. वजह बना था `नवा काल’ नामक मराठी अखबार में (एक जनवरी, 1969) राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गोलवलकर का छपा विवादास्पद साक्षात्कार, उसमें जिस बौद्धिक अंदाज में गोलवलकर ने मनुस्मृति को सही ठहराया था और छुआछूत पर टिकी वर्ण जाति को ईश्वरप्रदत्त घोषित किया था, वह बात लोगों को बेहद नागवार गुजरी थी.
अपने साक्षात्कार में गोलवलकर ने साफ -साफ कहा था कि …`स्मृति ईश्वरनिर्मित है और उसमें बतायी गयी चातुर्वर्ण्य व्यवस्था भी ईश्वरनिर्मित है. किंबहुना वह ईश्वरनिर्मित होने के कारण ही उसमें तोड़-मरोड़ हो जाती है, तब भी हम चिंता नहीं करते. क्योंकि मनुष्य आज तोड़-मरोड़ करता भी है, तब जो ईश्वरनिर्मित योजना है, वह पुन:-पुन: प्रतिस्थापित होकर ही रहेगी’
अपने इस साक्षात्कार ने गोलवलकर ने जाति प्रथा की हिमायत करते हुए चंद बातें भी कही थीं, जैसे`…अपने धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था सहकारी पद्धति ही तो है. किंबहुना आज की भाषा में इसे गिल्ड कहा जाता है, और पहले जिसे जाति कहा गया उसका स्वरूप एक ही है… जन्म से प्राप्त होनेवाली चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में अनुचित कुछ भी नहीं है, किंतु इसमें लचीलापन रखना ही चाहिए और वैसा लचीलापन था भी. लचीलेपन से युक्त जन्म पर आधारित चातुर्वर्ण्य व्यवस्था उचित ही है.’
अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस सूबे में औपनिवेशिक काल में ज्योतिबा तथा सावित्रीबाई फुले की अगुआई में `शेटजी’ (सेठ-साहूकार) और भट जी (पुरोहित वर्ग) के खिलाफ प्रचंड सांस्कृतिक विद्रोह खड़ा हुआ था, जिस सूबे में 20वीं सदी में डॉ आंबेडकर जैसे उत्पीड़ितों के महान सपूत की अगुआई में विद्रोह को आगे बढ़ाया गया, वहां पर गोलवलकर के विचारों ने लोगों में किस किस्म के गुस्से को पैदा कि या होगा.
वे सभी जो राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के चिंतन एवं कार्यप्रणाली से परिचित हैं, वे अंदाजा लगा सकते हैं कि किस तरह इस मुहिम के जरिये जनसाधारण के समक्ष गोलवलकर को `महान राष्ट्रनेता’ ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक प्रेरणा से लैस साधु पुरुष घोषित किया जा रहा है. उनके तखल्लुस `गुरुजी’ के साथ `श्री गुरुजी’ जोड़ना इसी बात का परिचायक है ताकि कोई भी उनके विवादास्पद अतीत के बारे में कोई सवाल न उठा सके . कोई यह न पूछ सके कि वियतनाम पर अमेरिकी आक्रमण में किस बेशरमी के साथ गोलवलकर ने अमेरिकी आक्रांताओं की हौसलाअफ जाई की थी, कोई यह न पूछ सके कि बंटवारे के दिनों में दंगा फैलाने के आरोप में किस तरह वे पकड़े जानेवाले थे. या कोई यह न पूछ सके कि हिंदुस्तानी जनता जिन दिनों बरतानवी सामराजियों के खिलाफ व्यापक संग्राम में सन्नद्ध थी तब किस तरह गोलवलकर और उसके अनुयायी इस संग्राम से दूर संघ की शाखाओं में एकत्रित होकर अपनी कर्णकर्कश आवाज में `नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ का जाप कर रहे थे.
सोचने का प्रश्न यह उठता है कि क्या गोलवलकर की जन्मशती का यह अवसर उन सभी के लिए भी विशेष
कार्यभार उपस्थित करता है जो हिंदू राष्ट्र की उनकी परियोजनाओं से असहमत हैं या कि उनके मुखालिफ हैं और उसे देश तथा समाज की प्रगति में बाधक मानते हैं. इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि छिटपुट अखबारी टिप्पणियों या पत्रिकाओं के लेखों को छोड़ दें तो किसी भी सियासी-समाजी संगठन में, जो धर्मनिरपेक्षता की हामी भरता हो, यह प्रक्रिया नहीं चलती दिखी है कि वे इस बात को बेबाकी से समझने की कोशिश करें कि अपनी मानवद्रोही अंतर्वस्तु के बावजूद हिंदोस्तां की सरजमीन पर गोलवलकर की परियोजना की सफलता का क्या राज है. क्या यह सही नहीं कि 50 के दशक में राजनीति और समाज के हाशिये पर चला गया राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ आज की तारीख में अपने तमाम आनुषंगिक संगठनों के ताने-बाने के जरिये हिंदुस्तान की सियासत और समाज में एक ऐसी स्थिति में पहुंचा है जहां से उसे आसानी से हटाया नहीं जा सकता.
देखें गुजरात में संघी उत्पात. यह फ़िल्म गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार की योजनाओं और उसके फ़ायदों पर है. राकेश शर्मा की फ़ाइनल साल्युशन.
एक बात जो इस संदर्भ में ध्यान रखी जानी चाहिए कि 2004 के आम चुनावों में भले ही भाजपा को शिकस्त मिली हो या खुद हिंदुत्व बिग्रेड की मुहिम फिलवक्त संकट के दौर से गुजर रही हो, लेकिन यह कहना उचित नहीं होगा कि यहां हिंदुत्व के प्रकल्प के अमली शक्ल धारण क रने की स्थिति फिर उभर नहीं सकती. कई सूबों में अपने बलबूते तथा चंद सूबों में अन्य पार्टियों के साथ हिंदुत्व के फलसफे को माननेवाले हुकूमत कर रहे हैं. जहां पर वे बिना कि सी डर-भय के अपनी इस परियोजना पर अमल कर रहे हैं. राजस्थान हो, झारखंड हो या गुजरात हो या मध्य प्रदेश या छत्तीसगढ़ हो, ये ऐसे प्रांत हैं जहां अपने-अपने तरीकों से हिंदुत्व की `प्रयोगशालाओं’ के बनने का काम जोरों पर हैं. यह भी साफ तौर पर देखने में आ रहा है कि कें द्र में सहयोगियों के साथ सत्तासीन कांग्रेस सरकार धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपने समझौतापरस्त रवैये से या अपने क ई `नरम हिंदुवादी’ क दमों से संघ-भाजपा परिवार को नया `स्पेस’ प्रदान क रती दिख रही है. कांग्रेस से नाराज चल रहे चंद राजनीतिक दल जो इन दिनों भले ही कें द्र सरकार को समर्थन दे रहे हैं, अपने सियासी कारणों से भाजपा से पींगे बढ़ाते दिख रहे हैं, ऐसे समय में इस प्रकल्प के अहम सिद्धांतकार के महिमामंडन का जो सिलसिला जन्मशती पर चलेगा उसके बारे में खामोश कै से रहा जा सक ता है?
दूसरा मसला है हिंदुत्व की सामाजिक जड़ों की तलाश का, अर्थात अपने समाज के समाजशास्त्रीय अध्ययन का. अपनी आंखों के सामने ही हम इसी समाज के पढ़े-लिखे तबके के एक हिस्से को पाला बदलते तथा हिंदुत्व की परियोजना के साथ जुड़ते देख सकते हैं. बाबरी मसजिद के विध्वंस का आंदोलन हो, भाजपा द्वारा कें द्र में छह सालवाली हुकूमत हो या गुजरात के जनसंहार जैसी त्रासदी हो, इन सभी मामलों में हिंदू जनमत का एक अच्छा-खासा हिस्सा संघ की अगुआई में जारी `सोशल इंजीनियरिंग’ के विशिष्ट प्रयोगों में शामिल होता दिखा है. इस पृष्ठभूमि में यह विचारणीय प्रश्न बन जाता है कि आखिर घृणा तथा द्वेष पर आधारित परियोजना में आम कहलानेवाले लोगों का एक हिस्सा क्यों साथ खड़ा होता है, या होता आया है. हमारी सभ्यता, संस्कृति के वे कौन से तत्व हैं जो हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार के लिए मुफीद रहे हैं?
तीसरा मसला है कि लंबे समय तक हाशिये पर रह कर धीरे-धीरे अपने विचारों की स्वीकार्यता कायम करने में इस दक्षिणपंथी परियोजना को जो सफलता मिली उससे इस देश की सेक्युलर-जनतांत्रिक तथा वामपंथी ताकतें संगठन निर्माण के क्षेत्र में किस तरह का सबक ग्रहण कर सकती हैं. अर्थात क्या यह सही नहीं कि बरतानवी हुक्मरानों के खिलाफ संघर्ष से बनायी दूरी तथा गांधी हत्या के मामले में अपनी विवादास्पद भूमिका से संदेह के घेरे में रहते आये संघ ने 50 के दशक में शिक्षा से लेकर समाज के विभिन्न क्षेत्रों के संगठन निर्माण का जो उपक्रम शुरू कि या, उसने उसे अपने विस्तार में मदद पहुंचायी.
चौथा मसला फासीवाद के भविष्य से जुड़ा है. इसके लिए दूरगामी किस्म के अध्ययन की जरूरत पड़ेगी, ताकि जाना जा सके कि 21वीं सदी की इन पैड़ियों पर फासीवाद किन-किन रास्तों से आ सकता है तथा अपने मुल्क में उसकी क्या-क्या खासियतें हो सकती हैं? भारत जैसे तीसरी दुनिया के विशाल मुल्क में, जहां लोकतांत्रिक प्रणाली की जड़ें गहरी हो चुकी हैं, वहां पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए क्या वह चुनावों का रास्ता अख्तियार कर सकता है? प्रो एजाज अहमद का वक्तव्य हमें नहीं भूलना चाहिए कि हर देश को वैसा ही फासीवाद मिलता है जिसके लिए वह तैयार होता है.
हिंदोस्तां की सरजमीन पर गोलवलकरी परियोजना की `सफलता’ जहां जनतंत्र तथा धर्मनिरपेक्षता के लिए चंद सवाल खड़े करती है, वहीं इस जन्मशती की तैयारियों में गोलवलकर को लेकर संघ परिवार में मौजूद दुविधा को भी देखा जा सकता है. साफ कर दें कि यह दुविधा गोलवलकरी प्रोजेक्ट की मानवद्रोही अंतर्वस्तु को लेक र नहीं है, वह उसके बाह्य रूप अर्थात `पैकेजिंग’ को लेकर है. 21वीं सदी की इस बेला में अपने यूनिफार्म `लंबी मोहरीवाली खाकी निक्कर और सफेद शर्ट’ पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर संघ के अगुआ इस बात को भी ठीक से समझते हैं कि जिस निर्लज्जता के साथ गोलवलकर ने नाजी प्रयोगों की प्रशंसा की थी, वह बात अब किसी को पचनेवाली नहीं है. 1938 में गोलवलकर द्वारा रचित `वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ किताब के रचयिता का सेहरा किन्हीं बाबा राव सावरकर के माथे बांधने के प्रसंग में हम संघ की इसी कवायद को देख सकते हैं.
भले हिंदू एकता कायम क रने के सवाल पर गोलवलकर के बाद आनेवाले लोगों ने एक वैकल्पिक रास्ते का प्रयोग किया हो, लेकिन इस बात का कोई संकेत नहीं मिलता कि अपने चिंतन, विश्वदृष्टिकोण के धरातल पर संघ के मौजूदा नेता गोलवलकर से किसी मायने में अलग हैं. गुजरात-2002 के प्रायोजित जनसंहार में हम इसकी झलक देख चुके हैं. दलित स्त्रियों, शूद्रों, अतिशूद्रों को अपने साथ जोड़ने में वे भले ही गोलवलकर से आगे निकल गये हों, लेकि न उनकी अपनी परियोजना में इन तबकों के वास्तविक सशक्तीकरण का कोई कार्यक्रम नहीं है. ये सभी उत्पीड़ित तबके उनकी निगाह में हिंदू राष्ट्र के `दुश्मनों’ के खिलाफ लड़ने में प्यादे मात्र हैं.
यह अकारण नहीं कि गोलवलकर के जन्मशती कार्यक्रमों के कें द्रीय नारे के तौर पर `सामाजिक समरसता’ को उन्होंने तय किया है, ताकि इसी बहाने गोलवलक र की मानवद्रोही परियोजना को नयी वैधता प्रदान की जा सके , जिसको साकार करने के लिए सभी प्रतिबद्ध हैं.
सुभाष गाताडे के एक लंबे लेख के प्रमुख अंश.
सावधान : संघ जब सामाजिक समरसता की बात करे
यह साल गोलवलकर की जन्मशती के समापन का वर्ष है. इस अवसर पर संघ ने बडे़ कार्यक्रम किये, काफ़ी डींगें हांकी. ऐसे में उसने सामाजिक समरसता का डंका भी पीटा. इस अवसर पर झूठ के पुलंदे के रूप में एक फ़िल्म भी आयी-कर्मयोगी.
सामाजिक समरसता के संघी निहितार्थ
सुभाष गाताडे
वह साठ के दशक के उत्तरार्ध की बात है. महाराष्ट्र एक तरह के आंदोलन का प्रत्यक्षदर्शी बना था. वजह बना था `नवा काल’ नामक मराठी अखबार में (एक जनवरी, 1969) राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गोलवलकर का छपा विवादास्पद साक्षात्कार, उसमें जिस बौद्धिक अंदाज में गोलवलकर ने मनुस्मृति को सही ठहराया था और छुआछूत पर टिकी वर्ण जाति को ईश्वरप्रदत्त घोषित किया था, वह बात लोगों को बेहद नागवार गुजरी थी.
अपने साक्षात्कार में गोलवलकर ने साफ -साफ कहा था कि …`स्मृति ईश्वरनिर्मित है और उसमें बतायी गयी चातुर्वर्ण्य व्यवस्था भी ईश्वरनिर्मित है. किंबहुना वह ईश्वरनिर्मित होने के कारण ही उसमें तोड़-मरोड़ हो जाती है, तब भी हम चिंता नहीं करते. क्योंकि मनुष्य आज तोड़-मरोड़ करता भी है, तब जो ईश्वरनिर्मित योजना है, वह पुन:-पुन: प्रतिस्थापित होकर ही रहेगी’
अपने इस साक्षात्कार ने गोलवलकर ने जाति प्रथा की हिमायत करते हुए चंद बातें भी कही थीं, जैसे`…अपने धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था सहकारी पद्धति ही तो है. किंबहुना आज की भाषा में इसे गिल्ड कहा जाता है, और पहले जिसे जाति कहा गया उसका स्वरूप एक ही है… जन्म से प्राप्त होनेवाली चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में अनुचित कुछ भी नहीं है, किंतु इसमें लचीलापन रखना ही चाहिए और वैसा लचीलापन था भी. लचीलेपन से युक्त जन्म पर आधारित चातुर्वर्ण्य व्यवस्था उचित ही है.’
अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस सूबे में औपनिवेशिक काल में ज्योतिबा तथा सावित्रीबाई फुले की अगुआई में `शेटजी’ (सेठ-साहूकार) और भट जी (पुरोहित वर्ग) के खिलाफ प्रचंड सांस्कृतिक विद्रोह खड़ा हुआ था, जिस सूबे में 20वीं सदी में डॉ आंबेडकर जैसे उत्पीड़ितों के महान सपूत की अगुआई में विद्रोह को आगे बढ़ाया गया, वहां पर गोलवलकर के विचारों ने लोगों में किस किस्म के गुस्से को पैदा कि या होगा.
वे सभी जो राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के चिंतन एवं कार्यप्रणाली से परिचित हैं, वे अंदाजा लगा सकते हैं कि किस तरह इस मुहिम के जरिये जनसाधारण के समक्ष गोलवलकर को `महान राष्ट्रनेता’ ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक प्रेरणा से लैस साधु पुरुष घोषित किया जा रहा है. उनके तखल्लुस `गुरुजी’ के साथ `श्री गुरुजी’ जोड़ना इसी बात का परिचायक है ताकि कोई भी उनके विवादास्पद अतीत के बारे में कोई सवाल न उठा सके . कोई यह न पूछ सके कि वियतनाम पर अमेरिकी आक्रमण में किस बेशरमी के साथ गोलवलकर ने अमेरिकी आक्रांताओं की हौसलाअफ जाई की थी, कोई यह न पूछ सके कि बंटवारे के दिनों में दंगा फैलाने के आरोप में किस तरह वे पकड़े जानेवाले थे. या कोई यह न पूछ सके कि हिंदुस्तानी जनता जिन दिनों बरतानवी सामराजियों के खिलाफ व्यापक संग्राम में सन्नद्ध थी तब किस तरह गोलवलकर और उसके अनुयायी इस संग्राम से दूर संघ की शाखाओं में एकत्रित होकर अपनी कर्णकर्कश आवाज में `नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ का जाप कर रहे थे.
सोचने का प्रश्न यह उठता है कि क्या गोलवलकर की जन्मशती का यह अवसर उन सभी के लिए भी विशेष
कार्यभार उपस्थित करता है जो हिंदू राष्ट्र की उनकी परियोजनाओं से असहमत हैं या कि उनके मुखालिफ हैं और उसे देश तथा समाज की प्रगति में बाधक मानते हैं. इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि छिटपुट अखबारी टिप्पणियों या पत्रिकाओं के लेखों को छोड़ दें तो किसी भी सियासी-समाजी संगठन में, जो धर्मनिरपेक्षता की हामी भरता हो, यह प्रक्रिया नहीं चलती दिखी है कि वे इस बात को बेबाकी से समझने की कोशिश करें कि अपनी मानवद्रोही अंतर्वस्तु के बावजूद हिंदोस्तां की सरजमीन पर गोलवलकर की परियोजना की सफलता का क्या राज है. क्या यह सही नहीं कि 50 के दशक में राजनीति और समाज के हाशिये पर चला गया राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ आज की तारीख में अपने तमाम आनुषंगिक संगठनों के ताने-बाने के जरिये हिंदुस्तान की सियासत और समाज में एक ऐसी स्थिति में पहुंचा है जहां से उसे आसानी से हटाया नहीं जा सकता.
देखें गुजरात में संघी उत्पात. यह फ़िल्म गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार की योजनाओं और उसके फ़ायदों पर है. राकेश शर्मा की फ़ाइनल साल्युशन.
एक बात जो इस संदर्भ में ध्यान रखी जानी चाहिए कि 2004 के आम चुनावों में भले ही भाजपा को शिकस्त मिली हो या खुद हिंदुत्व बिग्रेड की मुहिम फिलवक्त संकट के दौर से गुजर रही हो, लेकिन यह कहना उचित नहीं होगा कि यहां हिंदुत्व के प्रकल्प के अमली शक्ल धारण क रने की स्थिति फिर उभर नहीं सकती. कई सूबों में अपने बलबूते तथा चंद सूबों में अन्य पार्टियों के साथ हिंदुत्व के फलसफे को माननेवाले हुकूमत कर रहे हैं. जहां पर वे बिना कि सी डर-भय के अपनी इस परियोजना पर अमल कर रहे हैं. राजस्थान हो, झारखंड हो या गुजरात हो या मध्य प्रदेश या छत्तीसगढ़ हो, ये ऐसे प्रांत हैं जहां अपने-अपने तरीकों से हिंदुत्व की `प्रयोगशालाओं’ के बनने का काम जोरों पर हैं. यह भी साफ तौर पर देखने में आ रहा है कि कें द्र में सहयोगियों के साथ सत्तासीन कांग्रेस सरकार धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपने समझौतापरस्त रवैये से या अपने क ई `नरम हिंदुवादी’ क दमों से संघ-भाजपा परिवार को नया `स्पेस’ प्रदान क रती दिख रही है. कांग्रेस से नाराज चल रहे चंद राजनीतिक दल जो इन दिनों भले ही कें द्र सरकार को समर्थन दे रहे हैं, अपने सियासी कारणों से भाजपा से पींगे बढ़ाते दिख रहे हैं, ऐसे समय में इस प्रकल्प के अहम सिद्धांतकार के महिमामंडन का जो सिलसिला जन्मशती पर चलेगा उसके बारे में खामोश कै से रहा जा सक ता है?
दूसरा मसला है हिंदुत्व की सामाजिक जड़ों की तलाश का, अर्थात अपने समाज के समाजशास्त्रीय अध्ययन का. अपनी आंखों के सामने ही हम इसी समाज के पढ़े-लिखे तबके के एक हिस्से को पाला बदलते तथा हिंदुत्व की परियोजना के साथ जुड़ते देख सकते हैं. बाबरी मसजिद के विध्वंस का आंदोलन हो, भाजपा द्वारा कें द्र में छह सालवाली हुकूमत हो या गुजरात के जनसंहार जैसी त्रासदी हो, इन सभी मामलों में हिंदू जनमत का एक अच्छा-खासा हिस्सा संघ की अगुआई में जारी `सोशल इंजीनियरिंग’ के विशिष्ट प्रयोगों में शामिल होता दिखा है. इस पृष्ठभूमि में यह विचारणीय प्रश्न बन जाता है कि आखिर घृणा तथा द्वेष पर आधारित परियोजना में आम कहलानेवाले लोगों का एक हिस्सा क्यों साथ खड़ा होता है, या होता आया है. हमारी सभ्यता, संस्कृति के वे कौन से तत्व हैं जो हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार के लिए मुफीद रहे हैं?
तीसरा मसला है कि लंबे समय तक हाशिये पर रह कर धीरे-धीरे अपने विचारों की स्वीकार्यता कायम करने में इस दक्षिणपंथी परियोजना को जो सफलता मिली उससे इस देश की सेक्युलर-जनतांत्रिक तथा वामपंथी ताकतें संगठन निर्माण के क्षेत्र में किस तरह का सबक ग्रहण कर सकती हैं. अर्थात क्या यह सही नहीं कि बरतानवी हुक्मरानों के खिलाफ संघर्ष से बनायी दूरी तथा गांधी हत्या के मामले में अपनी विवादास्पद भूमिका से संदेह के घेरे में रहते आये संघ ने 50 के दशक में शिक्षा से लेकर समाज के विभिन्न क्षेत्रों के संगठन निर्माण का जो उपक्रम शुरू कि या, उसने उसे अपने विस्तार में मदद पहुंचायी.
चौथा मसला फासीवाद के भविष्य से जुड़ा है. इसके लिए दूरगामी किस्म के अध्ययन की जरूरत पड़ेगी, ताकि जाना जा सके कि 21वीं सदी की इन पैड़ियों पर फासीवाद किन-किन रास्तों से आ सकता है तथा अपने मुल्क में उसकी क्या-क्या खासियतें हो सकती हैं? भारत जैसे तीसरी दुनिया के विशाल मुल्क में, जहां लोकतांत्रिक प्रणाली की जड़ें गहरी हो चुकी हैं, वहां पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए क्या वह चुनावों का रास्ता अख्तियार कर सकता है? प्रो एजाज अहमद का वक्तव्य हमें नहीं भूलना चाहिए कि हर देश को वैसा ही फासीवाद मिलता है जिसके लिए वह तैयार होता है.
हिंदोस्तां की सरजमीन पर गोलवलकरी परियोजना की `सफलता’ जहां जनतंत्र तथा धर्मनिरपेक्षता के लिए चंद सवाल खड़े करती है, वहीं इस जन्मशती की तैयारियों में गोलवलकर को लेकर संघ परिवार में मौजूद दुविधा को भी देखा जा सकता है. साफ कर दें कि यह दुविधा गोलवलकरी प्रोजेक्ट की मानवद्रोही अंतर्वस्तु को लेक र नहीं है, वह उसके बाह्य रूप अर्थात `पैकेजिंग’ को लेकर है. 21वीं सदी की इस बेला में अपने यूनिफार्म `लंबी मोहरीवाली खाकी निक्कर और सफेद शर्ट’ पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर संघ के अगुआ इस बात को भी ठीक से समझते हैं कि जिस निर्लज्जता के साथ गोलवलकर ने नाजी प्रयोगों की प्रशंसा की थी, वह बात अब किसी को पचनेवाली नहीं है. 1938 में गोलवलकर द्वारा रचित `वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ किताब के रचयिता का सेहरा किन्हीं बाबा राव सावरकर के माथे बांधने के प्रसंग में हम संघ की इसी कवायद को देख सकते हैं.
भले हिंदू एकता कायम क रने के सवाल पर गोलवलकर के बाद आनेवाले लोगों ने एक वैकल्पिक रास्ते का प्रयोग किया हो, लेकिन इस बात का कोई संकेत नहीं मिलता कि अपने चिंतन, विश्वदृष्टिकोण के धरातल पर संघ के मौजूदा नेता गोलवलकर से किसी मायने में अलग हैं. गुजरात-2002 के प्रायोजित जनसंहार में हम इसकी झलक देख चुके हैं. दलित स्त्रियों, शूद्रों, अतिशूद्रों को अपने साथ जोड़ने में वे भले ही गोलवलकर से आगे निकल गये हों, लेकि न उनकी अपनी परियोजना में इन तबकों के वास्तविक सशक्तीकरण का कोई कार्यक्रम नहीं है. ये सभी उत्पीड़ित तबके उनकी निगाह में हिंदू राष्ट्र के `दुश्मनों’ के खिलाफ लड़ने में प्यादे मात्र हैं.
यह अकारण नहीं कि गोलवलकर के जन्मशती कार्यक्रमों के कें द्रीय नारे के तौर पर `सामाजिक समरसता’ को उन्होंने तय किया है, ताकि इसी बहाने गोलवलक र की मानवद्रोही परियोजना को नयी वैधता प्रदान की जा सके , जिसको साकार करने के लिए सभी प्रतिबद्ध हैं.
सुभाष गाताडे के एक लंबे लेख के प्रमुख अंश.
ठेके के दौर में मज़दूर आंदोलन : सब रस ले गयी पिंजडेवाली मुनिया
कुमार अनिल भाकपा माले लिबरेशन से जुडे़ रहे हैं. अभी प्रभात खबर में हैं. मई दिवस को देखते हुए आज के हालात में मज़दूर संगठनों पर उनकी चिंताएं इस लेख के माध्यम से सामने आयी हैं. आगे भी वे कुछ लिखेंगे इस मसले पर. हमारा इरादा आज के राजनीतिक-आर्थिक हालात में मज़दूर आंदोलन पर एक बहस चलाने का है. आइए आप भी इसमें हिस्सा लीजिए.
कुमार अनिल
बड़ी अजीब स्थिति है. सीपीएम से जुड़ी सीटू पटना में इस बार अलग से मजदूर दिवस मनायेगी. पिछले क ई वर्षों से क म-से-क म पहली मई को सारी ट्रेड यूनियनें एक मंच पर आती रही हैं. इस बार मामला नंदीग्राम को लेकर उलझ गया. नंदीग्राम में कि सानों पर हुए दमन को जहां अन्य संगठन मुद्दा बनाना चाहते हैं, वहीं सीपीएम अपनी सरकार की आलोचना को तैयार नहीं है. वाम मोरचे में फूट पड़ गयी. एटक, यूटीयूसी(लेस), यूटीयूसी, ए टू व एचएमएस एक मंच पर होंगे व दूसरी ओर होगी सीटू . बहुत दिनों के बाद कि सानों के मुद्दे पर ट्रेड यूनियनों में बहस हुई.
आजादी के बाद से ही कि सानों व दूसरे तबकों के आंदोलनों से मजदूर वर्ग का आंदोलन कटता चला गया. आज मजदूर वर्ग का आंदोलन पूरी तरह अपनी ही मांगों में सिमट क र रह गया है. वेतन, बोनस, प्रोन्नति, भत्ता ही उसके लिए सब कुछ है. आंदोलन अपनी राष्ट्रीय भूमिका खोता चला गया.
एक समय ट्रेड यूनियन आंदोलन ने देश की राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज क रायी थी. क म्युनिस्ट पार्टी के बनने से पहले 1921 में एटक के दूसरे अधिवेशन में 50 हजार से ज्यादा मजदूर झरिया में जुटे थे. अधिवेशन का पहला प्रस्ताव स्वराज के लिए था. जोरदार शब्दों में घोषणा की गयी कि स्वराज पाने का सही समय आ गया है. दूसरा प्रस्ताव अंतरराष्ट्रीय भाईचारे को लेकर था. सूखे व अकाल से पीड़ित रूसियों के प्रति संवेदना प्रकट की गयी. अधिवेशन ने देश के मजदूरों का आह्वान किया कि वे रूसी भाइयों के लिए अपना एक दिन का वेतन दान करें. साइमन कमीशन जब मुंबई पहुंचा तो 20 हजार मजदूरों ने सड़क पर उतर कर विरोध कि या.
कम्युनिस्ट पार्टी की उदासीनता के बावजूद नौ अगस्त, 1942 को जब महात्मा गांधी गिरफ्तार हुए, तो देश भर के मजदूरों ने हड़ताल की. 1946 के नौसैनिक हड़ताल के समर्थन में मजदूरों की हड़ताल को भला कौन भुला सकता है.
वैश्वीकरण के इस युग में इकाई, विभाग व संवर्ग में बंटे मजदूर वर्ग को न सिर्फ अपनी एकता बनानी होगी, वरन अपनी सामाजिक भूमिका को फिर से परिभाषित भी करना होगा.
बिहार में सेवा क्षेत्र के कर्मियों की बड़ी तादाद है. अब तब उन्होंने सैक ड़ों हड़तालें की हैं. उनका वेतनमान भी काफ़ी आक र्षक है, लेकिन उन्होंने कभी जनता से जुड़ने की कोशिश नहीं की. बीपीएल(गरीबी रेखा से नीचे रहनेवालों की सूची, जो तैयार हो रही है) में धांधली को लेकर बिहार के ग्रामीण गरीब आंदोलित हैं. उन्होंने अपने दम पर सरकार को पीछे धकेला. आज हर जिले में सरकारी महकमा सूची में सुधार के लिए रतजगा कर रहा है. नीतीश सरकार ने मामले की गंभीरता को समझा, पर मजदूर वर्ग की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी. पंचायत स्तर पर धांधली में सरकारी सेवकों के नाम धड़ल्ले से आ रहे हैं, पर किसी कर्मचारी संगठन ने अपने सहकर्मियों की घूसखोरी की प्रवृत्ति को मुद्दा नहीं बनाया. नरेगा(राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) का बिहार में बुरा हाल है, पर इसे संगठित क्षेत्र के कर्मियों ने मुद्दा नहीं बनाया. बिहार में मजदूर वर्ग का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में है. सबसे बड़ी संख्या खेत मजदूरों की है. निर्माण मजदूरों की भी बड़ी तादाद है. बिहार की आबादी के एक तिहाई इस हिस्से से मुंह मोड़ कर किसी आंदोलन का विकास नहीं हो सकता.
आज का दौर ठेके और निजीक रण का दौर है. ठेके पर शिक्षक, कर्मचारी और यहां तक की डॉक्टर-इंजीनियर
की भी बहाली हो रही है. मजदूर वर्ग के समक्ष यह बिल्कुल नयी परिस्थिति है. जब कुछ भी स्थायी न हो, तो मजदूरों को संगठित करना और भी मुश्किल है. ब्रिटेन व अमेरिका की ट्रेड यूनियनें विलय के लिए वार्ता चला रही हैं. भारत के ट्रेड यूनियन नेताओं को भी कुनबों की राजनीति से जल्दी ही बाहर आ जाना चाहिए.
Recent Comments