Archive for May 10, 2007

भारतीय राष्ट्र की प्रसव पीडा़ 2

प्रणय कृष्ण
1857 का पहला स्वाधीनता संग्राम प्रगतिशील राष्ट्रवाद का प्रस्थान बिंदु है. उसकी विरासत राष्ट्र निर्माण के कांग्रेसी मॉडल का भी सकारात्मक निषेध करती है जिसकी कमजोरियों का लाभ उठा कर सांप्रदायिक फासिस्ट ताकतें पिछले 8 दशकों से शक्ति संचय करती रही हैं. यह विरासत हमारे लिए अविस्मरणीय है क्योंकि आज भी दूसरी आजादी के लिए, साम्राज्यवाद और सांप्रदायिक फासीवाद की दोहरी चुनौतियों का सामना महज संसदीय और संवैधानिक दायरे में ही कैद रह कर नहीं किया जा सकता. 1857 के विद्रोह के पीछे 18वीं सदी से ही चली आ रही किसान और आदिवासी विद्रोहों की लंबी परंपरा थी. ये सारे विद्रोह क्षेत्रीय या स्थानीय स्तर पर घनघोर सामाजिक उत्पीड़न, सामंती जुल्म और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के संरक्षण में गांवों में जमींदार-महाजन गंठजोड़ की अमानवीय लूट खसोट के खिलाफ फूट पड़े थे. स्मरणीय है कि उन दिनों देहाती इलाकों में इसी लूट-खसोट के चलते अकालों का सिलसिला बना रहता था. यह सच है कि इन विद्रोहों के पीछे आजाद व लोकतांत्रिक भारत बनाने का कोई सचेत सिद्धांत नहीं था, लेकिन इनमें कोई ऐसी संजीदा और दमदार बात जरूर थी जो बाद के वर्षों में चले आजादी के कांग्रेसी आंदोलन में व्यापारिक तबके और उभरते मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के बड़े हिस्सों की सांठगांठ की राजनीति और नपे-तुले विरोध से इन विद्रोहों को बिल्कुल अलग दिखाती है. 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने इन विद्रोहों को एक बड़ा साम्राज्यवाद और सामंतवाद विरोधी फलक दिया और सही मायने में एक राष्ट्रीय आयाम भी. ब्रिटिश साम्राज्यवाद और ग्रामीण समाज में उसके प्रमुख स्तंभ जमींदार और महाजन विद्रोहियों के निशाने पर थे. जाहिर है कि एक ही साथ ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति और सामाजिक शक्ति संतुलन में बदलाव लाकर ग्रामीण क्षेत्रों में जमींदार-महाजनों के खिलाफ किसान जनता का वर्चस्व कायम करना विद्रोहियों का ध्येय था.
1857 की लड़ाई की सबसे बड़ी भिन्नता तो यही थी कि इसमें हिंदुस्तानियों ने सशस्त्र संघर्ष के जरिये ब्रिटिश शासन और उसके दलालों को बलपूर्वक उखाड़ फेंकने की कोशिश की थी, जबकि बाद के कांग्रेसी नेतृत्व ने आजादी की लड़ाई को निष्क्रिय प्रतिरोध, सत्याग्रह, कानून लड़ाइयों और अंग्रेजों के साथ मोल-तोल के दायरे में ही सीमित रखने की भरसक कोशिश की. 1857 की मूल चालक शक्ति किसान थे, जबकि कांग्रेसी नेतृत्ववाले स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व व्यापारिक तबकों और उभरते मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने किया. यही कारण था कि जब-जब निचली जनता और किसान-मजदूर निर्णायक हस्तक्षेप की स्थिति में पहुंचते थे, कांग्रेसी नेतृत्व आंदोलन स्थगित कर देता था. 5 फरवरी, 1922 को चौरी चौरा कांड के बाद गांधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेना इसी प्रवृत्ति का जीता-जागता उदाहरण है.

कल पढें अंतिम किस्त.
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May 10, 2007 at 11:52 pm Leave a comment

भारत के बारे में सबसे बड़ा भ्रम है कि यहां लोकतंत्र है : अरुंधति राय

हम इस बातचीत का पहला हिस्सा पढ़ चुके हैं. प्रस्तुत है दूसरा हिस्सा. प्रख्यात लेखिका अरुंधति राय से बात की है वैभव सिंह ने.
भारत का लोकतंत्र किन सीमाओं और खतरों का शिकार है? क्या जनमत निर्मित कर इस लोकतंत्र को कामयाब बनाया जा सकता है?

दरअसल, भारत के बारे में सबसे बड़ा भ्रम है कि यहां लोकतंत्र है और इस भ्रम को साम्राज्यवादी चिंतन के प्रभाव में रहनेवाली मीडिया भी दिन-रात प्रचारित करती है. यहां विरोध को भी बड़ी आसानी से पचा लिया जाता है. जिस तरह ऐश्वर्या राय और अमिताभ बच्च्न को मीडिया भुनाती है उसी तरह अरुंधति राय को भी स्टूडियो में बुला कर उसे अपने विचारों को रखने का मौका दिया जाता है, क्योंकि दुनिया को दिखाना है कि देखिए हम कितने लोक तांत्रिक हैं. हम एक क्रू ड नहीं बल्कि सॉफिस्टिके टेड समय से गुजर रहे हैं, जहां हर विरोध को खूबसूरती से पहले दिखाया जाता है और फिर उसे दुत्कार दिया जाता है. उन्हें बिग स्टोरीज चाहिए अपने बिजनेस के लिए और बदकिस्मती से लोगों के रोजाना के संघर्षों में उन्हें कुछ भी नया और सनसनीखेज नजर ही नहीं आता. गरीबों के नाम पर जतायी जानेवाली हमदर्दी (पॉलिटिक्स ऑफ पिटी) भी बड़ी खतरनाक होती है और एनजीओ व मिशनरीज इस हमदर्दी जताने की घटिया राजनीति का सबसे ज्यादा फायदा उठाते हैं. उनके द्वारा कई बार एम्पावरमेंट शब्द का इस्तेमाल होता है, जिसके राजनीतिक निहितार्थ बड़े खतरनाक हैं. एम्पावरमेंट के जरिये कमजोर वर्गों को रिप्रजेंट करने का दावा किया जाता है और पैसा कमाया जाता है, जबकि हमें सही अर्थों में लोगों को पावरफुल बनाने की ओर ध्यान देना चाहिए. प्राइवेट सेक्टर लोगों को खुश रखने के लिए पीपुल्स कार तो बना रहा है, लेकिन लोगों को पीने का पानी और खाना कहां से मिलेगा, इस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है.

बिजनेस व आर्थिक नीतियों से जुड़े सभी फैसले पूरी तरह राजनीतिक होते हैं, लेकिन उन्हें राजनीति से अलग दिखाने की कोशिश की जाती है. ऐसे फैसलों के प्रतिरोध के लिए कौन से साधन अपनाये जा सकते हैं?

अब कहीं उम्मीद है तो सताये और शोषित लोगों से ही है, जो अपनी भारी संख्या बल का लाभ विरोध करने के लिए उठा सकते हैं. इस संख्या बल का फ़ायदा उठा कर लोग गलत चीजों को खुद आगे बढ़ कर रोक सकते हैं. इसके अलावा पीपुल्स मीडिया विकसित करने के बारे में भी हमें सोचना चाहिए. पीपुल्स वॉयस के नाम पर सारे ही अखबार-चैनल अपना धंधा चमकाने की कोशिश करते हैं और बहुत बड़ा फ्रॉड करते हैं. इससे लड़ते हुए हमें कम्युनिटी रेडियो, सिनेमा और पत्रिकाओं का विकास करना चाहिए. मुख्यधारा की मीडिया के पीछे भागने की आदत छोड़नी होगी. नर्मदा बचाओ आंदोलन को मीडिया में सबसे ज्यादा कवरेज मिला, लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. दूसरी ओर झारखंड में कोयलकारो में आदिवासियों ने सुवर्णरेखा पर बन रहे बांधों का निर्माण रोक दिया, जबकि वहां मीडिया का ध्यान भी नहीं गया था. इसी तरह ओड़िशा में गंधमर्दन में स्थानीय लोगों के विरोध के चलते बाल्को को वहां से भागना पड़ा और नंदीग्राम में सालेम को प्रचंड विरोध के आगे पसीने छूट गये. मीडिया के हालात को देखते हुए मैं खुद भी टीवी चैनलों की बहस में हिस्सा लेने नहीं जाती हूं, क्योंकि वहां लगता है कि मैं भी सर्कस की जानवरों में से एक हो गयी हूं. वहां मुझे एक शोपीस की तरह सजा कर खड़ा कर दिया जायेगा और जो मैं वास्तव में कहना चाहती हूं, वह कहने के लिए समय नहीं दिया जायेगा. हमें सिनेमा तकनीक की ओर इसलिए भी ध्यान देना होगा, क्योंकि मुख्यधारा का सिनेमा अब इंटरनेशनल एलीट के कब्जे में है. हाल में आयी गुरु फि ल्म को देखिए, जिसमें खुल कर साम्राज्यवाद का पक्ष लिया गया है. धीरू भाई अंबानी की जिंदगी से प्रेरित इस फि ल्म में शक्तिशाली बिजनेसमैनों को ऐसे दिखाया गया है जैसे वे बंधुआ मजदूर हों और राज्य के सताये हुए हों. जबकि हकीकत में यह फ़िल्म लोकल कैपिटलिज्म के पक्ष में बनायी गयी है और ऐसे उद्योगपतियों को हीरो बनाया गया है जो किसी भी तरह की जवाबदेही से बचना चाहते हैं. यानी फिल्मकार भी अब साम्राज्यवाद के सबसे बड़े कारिंदे के रूप में उभर रहे हैं और उन्हें देश के हितों की चिंता नहीं रह गयी है. फिल्मों के अलावा अब सिनेमा हॉल भी ऐसे बनाये जा रहे हैं, जहां सिर्फ अमीरों के लिए ही फिल्में चलतीं और दिखायी जाती हैं. बड़े-बड़े सिनेमा हॉलों को तोड़ कर मल्टीप्लेक्स हॉल बनाये जा रहे हैं, जहां दो-ढाई सौ रुपये से कम का टिकट नहीं होता है. यानी सिनेमा हॉलों और फिल्म निर्माताओं ने अपने दर्शक वर्ग का चुनाव क र लिया है. जो लोग इतना पैसा देकर फिल्में देखेंगे, वे कभी आम जनों की जिंदगी पर बनी फ़िल्में पसंद नहीं करेंगे. वे उन्हीं फ़िल्मों को पसंद करेंगे जो उनकी शानो शौकत और ग्लैमर में डूबी ज़िंदगी को नाटकीय अंदाज में पेश करेंगी. न्यूज चैनल भी आम सच्चाइयों से कटते जा रहे हैं, भले ही वे दिनोंदिन कितने ही बड़े होते जा रहे हों. इसीलिए मैं कहती हूं जनांदोलनों को मीडिया को ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए, हमारी सारी ऊर्जा वहीं खप जाती है. हमें अब मीडिया को दिखाने के लिए कोई आंदोलन नहीं करना है, बल्कि किसी मुद्दे के प्रति गंभीरता से प्रेरित होकर आंदोलन करना चाहिए. वैसे भी, मीडिया की आदत ही किसी मुद्दे को चबा कर उसे थूक देने की है. निठारी केस में जिस गैरराजनीतिक तरीके से सारी रिपोर्टिंग हुई वह भी मीडिया के निकम्मेपन को दरसाता है. हमें अपने संघर्ष के लिए अन्य भाषाओं में लिखे साहित्य व उनके अनुवादों की मदद लेनी चाहिए.
साहित्य और संस्कृति की किसी भी समाज में दोहरी जिम्मेदारी होती है. एक ओर वे राष्ट्र के आंतरिक स्वरूप को ज्यादा लोकतांत्रिक और समानतापरक बनाने के लिए संघर्ष करते हैं, दूसरी ओर साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीय जागरूकता पैदा करने का काम करते हैं. इन जिम्मेदारियों से रचनाकारों के विचलन की वजह क्या है?
साहित्य-संस्कृति के बारे में आपकी मान्यताएं सहीं हैं, लेकिन विचारधारा पर निष्ठा कायम रख पाना काफी चुनौतीपूर्ण है, लेकिन जो लेखक , खासतौर पर भारत के अंगरेजी लेखक यूरोप में रह रहे हैं, वे साम्राज्यवाद के खिलाफ क्या लिखेंगे? उन्हें अभी छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा जिले में रहना पड़ जाये, जहां रोज जीवन-मौत का संघर्ष होता है, तो फिर से विचारधारा और साहित्य के रिश्ते समझ में आने लगेंगे. ऐसे लेखकों की जब अंतरराष्ट्रीय मीट आयोजित होती है, तो वे अपने इंडोनेशिया, कोरिया और हांगकांग के अनुभवों के बारे में बात करते हैं, लेकिन भारत के गांवों में क्या चल रहा है, इसकी जानकारी उन्हें कम ही रहती है. हम क्रांतिकारी साहित्य की बात तो करते हैं, लेकिन क्या यह सच नहीं है कि सभी क्रांतियों ने अंत में पूंजीवाद को ही बढ़ावा नहीं दिया है? यानी सभी क्रांतियों का अंत एडवांस्ड कैपिटलिज्म में ही हुआ है, लेकिन यह सभी सही होते हुए भी लेखक के लिए क्रांतियों का आकर्षण हमेशा बना रहेगा. उसे किसी भी तरह के फासीवाद के खिलाफ लिखना और बोलना होगा, क्योंकि उसकी चुप्पी का अर्थ होगा फासीवाद को समर्थन देना, उसके खेमे का हिस्सा बन जाना. लेकिन कई बार लेखक ही समाज में लेखक के क्रांतिकारी रोल को चुनौती देता है. मुझ पर न जाने कितनी बार यह कह कर हमले हुए हैं कि मैं बांध, परमाणु बम और सांप्रदायिक दंगों जैसे विषयों पर क्यों लिखती हूं. यहां तक कहा गया कि मैं अपने सेलेब्रिटी स्टेटस का राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश क र रही हूं और अपनी लेखन प्रतिभा व ऊर्जा का दुरुपयोग कर रही हूं. इन सारे हमलों के बाद मैंने अपने आलोचकों से कहा था कि तुम लोग लेखन के विषयों की एक लिस्ट बना कर मुझे दे दो, मैं बस उन्हीं पर लिखती रहूंगी. ऐसी आलोचना करनेवाले सिर्फ दक्षिणपंथी लेखक ही नहीं, लिबरल छविवाले लेखक भी थे और तब मुझे महसूस होता था कि क भी-क भी उदारपंथी लेखक कि सी फासिस्ट लेखक से ज्यादा धूर्त और कट्टर होते हैं. वे सीधे किसी का दमन करने का पक्ष नहीं लेते, लेकिन लेखन के कई विषयों के खिलाफ एक लिटरेरी सेंसरशिप के लिए माहौल निर्मित करने का काम क रते हैं.

देखें संसद पर हमले की सरकारी कहानी पर सवाल करती किताब ’13 दिसंबर : ए रीडर’ के विमोचन पर बोलतीं अरुंधति राय .

May 10, 2007 at 6:46 pm 2 comments

भारतीय राष्ट्र की प्रसव पीडा़ 2

प्रणय कृष्ण
1857 का पहला स्वाधीनता संग्राम प्रगतिशील राष्ट्रवाद का प्रस्थान बिंदु है. उसकी विरासत राष्ट्र निर्माण के कांग्रेसी मॉडल का भी सकारात्मक निषेध करती है जिसकी कमजोरियों का लाभ उठा कर सांप्रदायिक फासिस्ट ताकतें पिछले 8 दशकों से शक्ति संचय करती रही हैं. यह विरासत हमारे लिए अविस्मरणीय है क्योंकि आज भी दूसरी आजादी के लिए, साम्राज्यवाद और सांप्रदायिक फासीवाद की दोहरी चुनौतियों का सामना महज संसदीय और संवैधानिक दायरे में ही कैद रह कर नहीं किया जा सकता. 1857 के विद्रोह के पीछे 18वीं सदी से ही चली आ रही किसान और आदिवासी विद्रोहों की लंबी परंपरा थी. ये सारे विद्रोह क्षेत्रीय या स्थानीय स्तर पर घनघोर सामाजिक उत्पीड़न, सामंती जुल्म और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के संरक्षण में गांवों में जमींदार-महाजन गंठजोड़ की अमानवीय लूट खसोट के खिलाफ फूट पड़े थे. स्मरणीय है कि उन दिनों देहाती इलाकों में इसी लूट-खसोट के चलते अकालों का सिलसिला बना रहता था. यह सच है कि इन विद्रोहों के पीछे आजाद व लोकतांत्रिक भारत बनाने का कोई सचेत सिद्धांत नहीं था, लेकिन इनमें कोई ऐसी संजीदा और दमदार बात जरूर थी जो बाद के वर्षों में चले आजादी के कांग्रेसी आंदोलन में व्यापारिक तबके और उभरते मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के बड़े हिस्सों की सांठगांठ की राजनीति और नपे-तुले विरोध से इन विद्रोहों को बिल्कुल अलग दिखाती है. 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने इन विद्रोहों को एक बड़ा साम्राज्यवाद और सामंतवाद विरोधी फलक दिया और सही मायने में एक राष्ट्रीय आयाम भी. ब्रिटिश साम्राज्यवाद और ग्रामीण समाज में उसके प्रमुख स्तंभ जमींदार और महाजन विद्रोहियों के निशाने पर थे. जाहिर है कि एक ही साथ ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति और सामाजिक शक्ति संतुलन में बदलाव लाकर ग्रामीण क्षेत्रों में जमींदार-महाजनों के खिलाफ किसान जनता का वर्चस्व कायम करना विद्रोहियों का ध्येय था.
1857 की लड़ाई की सबसे बड़ी भिन्नता तो यही थी कि इसमें हिंदुस्तानियों ने सशस्त्र संघर्ष के जरिये ब्रिटिश शासन और उसके दलालों को बलपूर्वक उखाड़ फेंकने की कोशिश की थी, जबकि बाद के कांग्रेसी नेतृत्व ने आजादी की लड़ाई को निष्क्रिय प्रतिरोध, सत्याग्रह, कानून लड़ाइयों और अंग्रेजों के साथ मोल-तोल के दायरे में ही सीमित रखने की भरसक कोशिश की. 1857 की मूल चालक शक्ति किसान थे, जबकि कांग्रेसी नेतृत्ववाले स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व व्यापारिक तबकों और उभरते मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने किया. यही कारण था कि जब-जब निचली जनता और किसान-मजदूर निर्णायक हस्तक्षेप की स्थिति में पहुंचते थे, कांग्रेसी नेतृत्व आंदोलन स्थगित कर देता था. 5 फरवरी, 1922 को चौरी चौरा कांड के बाद गांधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेना इसी प्रवृत्ति का जीता-जागता उदाहरण है.

कल पढें अंतिम किस्त.

May 10, 2007 at 6:34 pm Leave a comment

क्यों डरती रही है भारत की सरकारें 1857 से

1857 का प्रसंग कोई निर्विवाद प्रसंग नहीं रहा है. इसे अब तक कई नज़रियों से देखा जाता रहा है. इसको लेकर इतिहासकार भी एकमत नहीं है. जो इसके समर्थक हैं उनके भी और जो इसके आलोचक हैं उनके भी पक्षों को सुना जाना चाहिए, क्योंकी उनकी अपनी साफ़ दलीलें हैं और अपने समुदायगत अनुभव-यादें. 1857 का जश्न साल भर चलेगा और हम भी साल भर तक कोशिश करेंगे इसपर लगातार बहस करने की. शुरुआत प्रणय के लेख से. प्रणय ने 1857 पर विशेष अध्ययन किया है जिसका नतीजा है यह लेख. यह पहली बार समकालीन जनमत में छपा. यहां इस लेख का शुरुआती हिस्सा भर दिया जा रहा है, ताकि पढने में सुविधा रहे. बाकी के हिस्से कल-परसों में.
भारतीय राष्ट्र की प्रसव पीड़ा

प्रणय कृष्ण

भारतीय राष्ट्र के जन्मकाल की प्रसव पीड़ा का प्रतीक था, 1857 का विद्रोह. संभवत: कार्ल मार्क्स वह पहले इनसान थे, जिन्होंने इसे भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम कहा था. दरअसल भारतीय राष्ट्र की ओर से अंगरेजों से आजादी पाने और अपने आप को राष्ट्र के रूप में गठित करने की यही पहली कोशिश थी. इससे पहले हिंदुस्तान नाम का भूखंड था, वह अनेकों बादशाह-नवाबों, राजा-महाराजाओं आदि के राज्यों में बंटा था. उस दौर में चाहे राणा प्रताप और शिवाजी जैसे हिंदू मुगल बादशाह से या हिंदू और मुसलमान सामंत आपस में ही क्यों न लड़ते हों, सभी का उद्देश्य अपनी-अपनी रियासत का बचाव करना होता था. बस उतना ही भूखंड उनका देश था या उनकी मातृभूमि थी, जिसके वे अन्नदाता कहलाते थे. अंगरेजों ने एक -एक करके इन रियासतों को अपने कब्जे में या अपनी छत्रछाया में ले लिया था.
अंगरेज किसी एक हिंदुस्तानी से लड़ते थे तो दूसरा हिंदुस्तानी सामंत उनकी मदद क रता था. जैसे 1857 के विद्रोह के बस 50-60 साल पहले जब अंगरेज टीपू सुलतान के खिलाफ लड़ रहे थे तो उन्होंने मराठों और निजाम को अपने पक्ष में कर रखा था. राष्ट्र नाम की कोई चेतना होती तो टीपू सुलतान के साथ मराठों, निजाम और दिल्ली दरबार का एक संश्रय बन गया होता और उसने अंगरेजों ही नहीं फ्रांसिसियों, डचों, पुर्तगालियों आदि तमाम उपनिवेशवादियों को हिंदुस्तान से निकाल बाहर किया होता. पिछले इतिहास में 1857 का फर्क सबसे बढ़ कर इसी बात में है कि इसके दौरान पूरब से लेक र पश्चिम तक हिंदुस्तान की आम आवाम अंगरेजों के खिलाफ इसी चेतना के साथ संघर्ष में उतरी कि वे बाहरी ताकत हैं जो हमारे देश को गुलाम बना रहे हैं. यह चेतना उन हजारों-हजार किसानों में फैली थी जो अंगरेजी उपनिवेशवाद से हथियारबंद होकर लड़े थे. यानी उसका मूल चरित्र किसान विद्रोह का था. इसे शुरू करनेवाले थे अंगरेजी सेना के भारतीय सिपाही, जो उत्तर भारत के ग्रामीण किसान पृष्ठभूमि से आते थे. इस विद्रोह का नाभिकेंद्र अवध प्रांत था. लेकिन इस विद्रोह के आगोश में समूचा हिंदी-उर्दू क्षेत्र आ गया और साथ ही इसका असर पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र, असम, झारखंड के आदिवासी अंचल तथा सुदूर दक्षिण में गोदावरी जिले तक फैला. भले ही इस विद्रोह को कोई सुसंगठित अखिल भारतीय नेतृत्व न प्राप्त रहा हो, लेकिन राजनीतिक रूप से 1857 का संग्राम भारतीय स्तर के राष्ट्रीय आंदोलन का सूचक था. यूं तो इस विद्रोह की शुरुआत मंगल पांडे ने 29 मार्च 1857 को कलकत्ता के पास बैरकपुर छावनी में कर दी थी, किंतु इसकी विधिवत शुरुआत 10 मई, 1857 को मेरठ छावनी में हिंदुस्तानी पलटन के विद्रोह से मानी जाती है. 1857 से 1859, तीन वर्षों तक अंगरेजों के खिलाफ खुला छापामार युद्ध चला, जिसमें सैनिकों और किसानों के साथ-साथ समाज के सभी वर्गों ने यहां तक कि देशभक्त सामंतों ने भी हिस्सा लिया. झांसी में कोरी और कांछी तथा लखनऊ में सुरंगों की लड़ाई में पासियों की अदभुत वीरता से लेकर सिंहभूम और मानभूम के आदिवासियों की शौर्य की गाथाएं इतिहास में दर्ज हैं. इस विद्रोह में हजारों अनाम शहीद समाज के ऊंचे वर्गों या वर्णों से ही नहीं निचले वर्गों व वर्णों से भी थे. सिंधिया, पटियाला, नाभा, जिंद तथा कश्मीर व नेपाल जैसे गद्दार राजे-रजवाड़े के सहयोग से अंगरेजों को इस विद्रोह को कु चलने में सहायता जरूर मिली, लेकिन भारतीय राष्ट्र की नींव पड़ चुकी थी. इसलिए राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम को कुचलना अब अंगरेजों के बूते की बात नहीं रही. 1857 के विद्रोह को कुचलने के बाद भी अंगरेज उस विद्रोह को बदनाम करने, उसके महान योद्धाओं के चरित्र हनन करने तथा उसे भारतीय जनता की सामूहिक स्मृति से मिटा देने की लगातार कोशिश करते रहे. 19 वीं सदी के अंतिम भाग से लेकर 20 वीं सदी के मध्य तक जो स्वाधीनता संग्राम कांग्रेसी नेतृत्व में चला, उस पर समझौतापरस्त उद्योगपति वर्ग और मध्यमवर्गीय बौद्धिक तत्वों का दबदबा रहा. दुर्भाग्य की बात है कि उनके लिए भी 1857 शुरू से ही दु:स्वप्न बना रहा. इसी वजह से कांग्रेसी धारा किसानों, मजदूरों के संगठित क्रांतिकारी आंदोलनों तथा भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी देशभक्तों के राष्ट्रवाद से उसी तरह भयभीत रही जैसे कि अंगरेज. आजादी के आंदोलन की जो क हानी सरकारी तौर पर प्रचारित की जाती रही है, उसके अनुसार देश की आजादी अहिंसात्मक आंदोलन द्वारा प्राप्त की गयी थी. इस कहानी का सीधा सा मतलब यह है कि आजादी के आंदोलन में 1857 से लेकर भगत सिंह और नौसैनिक विद्रोह (1946) तक का कोई खास योगदान नहीं है. साम्राज्यवाद के खिलाफ सशस्त्र और सक्रिय प्रतिरोध से जन्मे किसानों व मजदूरों के तमाम आंदोलनों का कोई खास महत्व नहीं है. भारत की आजादी में अगर कहीं आम आदमी, मजदूर या किसान को जगह भी दी गयी तो महज संख्या के बतौर. बिना चेहरेवाले के गुमनाम लोगों की संख्या के बतौर. जाहिर है कि मेहनतकश जनता को न सिर्फ वर्तमान में उनके हक से वंचित कि या जा रहा है वरन अतीत में उनकी भूमिका को नकारा भी जा रहा है. आज अपनी इस शानदार विरासत का पुनरुद्धार करने और भारतीय जनता की अस्मिता के न्यायोचित गौरव को पुनर्स्थापित करने का कार्यभार इसलिए भी जरूरी हो उठा है, क्योंकि देश की सत्ता पर काबिज रही ताकतें न सिर्फ हमारे पूरे इतिहास को विकृत करने पर आमादा हैं बल्कि हमारी राष्ट्रीय भावना को, आजादी के आंदोलन के सारे मूल्यों को ही मटियामेट कर रही है. 1857 ने जिस राष्ट्रवाद का आगाज किया था, उसकी विरोधी शक्तियां आजाद भारत में सत्ता के शिखर पर पहुंच चुकी हैं. यानी पहली जंग-ए-आजादी ने नया हिंदुस्तान बनाने की जो चुनौतियां हमारे सामने उपस्थित की थीं, जो लक्ष्य निर्धारित किये थे, जो सपने देखे थे, वे आज न सिर्फ अधूरे हैं बल्कि सबसे बड़ी बाधा का सामना कर रहे हैं.

जारी

May 10, 2007 at 12:18 am Leave a comment


calander

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