भारतीय राष्ट्र की प्रसव पीडा़ 2

May 10, 2007 at 6:34 pm Leave a comment

प्रणय कृष्ण
1857 का पहला स्वाधीनता संग्राम प्रगतिशील राष्ट्रवाद का प्रस्थान बिंदु है. उसकी विरासत राष्ट्र निर्माण के कांग्रेसी मॉडल का भी सकारात्मक निषेध करती है जिसकी कमजोरियों का लाभ उठा कर सांप्रदायिक फासिस्ट ताकतें पिछले 8 दशकों से शक्ति संचय करती रही हैं. यह विरासत हमारे लिए अविस्मरणीय है क्योंकि आज भी दूसरी आजादी के लिए, साम्राज्यवाद और सांप्रदायिक फासीवाद की दोहरी चुनौतियों का सामना महज संसदीय और संवैधानिक दायरे में ही कैद रह कर नहीं किया जा सकता. 1857 के विद्रोह के पीछे 18वीं सदी से ही चली आ रही किसान और आदिवासी विद्रोहों की लंबी परंपरा थी. ये सारे विद्रोह क्षेत्रीय या स्थानीय स्तर पर घनघोर सामाजिक उत्पीड़न, सामंती जुल्म और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के संरक्षण में गांवों में जमींदार-महाजन गंठजोड़ की अमानवीय लूट खसोट के खिलाफ फूट पड़े थे. स्मरणीय है कि उन दिनों देहाती इलाकों में इसी लूट-खसोट के चलते अकालों का सिलसिला बना रहता था. यह सच है कि इन विद्रोहों के पीछे आजाद व लोकतांत्रिक भारत बनाने का कोई सचेत सिद्धांत नहीं था, लेकिन इनमें कोई ऐसी संजीदा और दमदार बात जरूर थी जो बाद के वर्षों में चले आजादी के कांग्रेसी आंदोलन में व्यापारिक तबके और उभरते मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के बड़े हिस्सों की सांठगांठ की राजनीति और नपे-तुले विरोध से इन विद्रोहों को बिल्कुल अलग दिखाती है. 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने इन विद्रोहों को एक बड़ा साम्राज्यवाद और सामंतवाद विरोधी फलक दिया और सही मायने में एक राष्ट्रीय आयाम भी. ब्रिटिश साम्राज्यवाद और ग्रामीण समाज में उसके प्रमुख स्तंभ जमींदार और महाजन विद्रोहियों के निशाने पर थे. जाहिर है कि एक ही साथ ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति और सामाजिक शक्ति संतुलन में बदलाव लाकर ग्रामीण क्षेत्रों में जमींदार-महाजनों के खिलाफ किसान जनता का वर्चस्व कायम करना विद्रोहियों का ध्येय था.
1857 की लड़ाई की सबसे बड़ी भिन्नता तो यही थी कि इसमें हिंदुस्तानियों ने सशस्त्र संघर्ष के जरिये ब्रिटिश शासन और उसके दलालों को बलपूर्वक उखाड़ फेंकने की कोशिश की थी, जबकि बाद के कांग्रेसी नेतृत्व ने आजादी की लड़ाई को निष्क्रिय प्रतिरोध, सत्याग्रह, कानून लड़ाइयों और अंग्रेजों के साथ मोल-तोल के दायरे में ही सीमित रखने की भरसक कोशिश की. 1857 की मूल चालक शक्ति किसान थे, जबकि कांग्रेसी नेतृत्ववाले स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व व्यापारिक तबकों और उभरते मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने किया. यही कारण था कि जब-जब निचली जनता और किसान-मजदूर निर्णायक हस्तक्षेप की स्थिति में पहुंचते थे, कांग्रेसी नेतृत्व आंदोलन स्थगित कर देता था. 5 फरवरी, 1922 को चौरी चौरा कांड के बाद गांधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेना इसी प्रवृत्ति का जीता-जागता उदाहरण है.

कल पढें अंतिम किस्त.
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