Archive for May 14, 2007
बंगाल में विकास का मिथ : दावों की असलियत
दावे उतने सच भी नहीं
रेयाज-उल-हक /सुष्मिता गोस्वामी
नंदीग्राम नरसंहार को जायज ठहराने का बंगाल सरकार ने एक आसान रास्ता अपनाया था, यह दावा करके कि राज्य में कृषि का विकास इस हद तक हो चुका है कि अब वहां औद्योगिक विकास ही एक मात्र रास्ता बचता है. कृषि से जो अतिरिक्त आय हो रही है और जो अतिरिक्त रोजगार पैदा हुआ है, उसकी खपत उद्योगों में ही हो सकती है और इसीलिए उद्योग इतने जरूरी हैं. सरकार वहां जो कर रही है वह ठीक -ठीक यही है और उसका विरोध कर रही शक्तियां दर असल समाज को पीछे ले जाना चाहती हैं. मगर वास्तव में यह जितना आसान रास्ता था उतना ही क मजोर भी. खुद आंकड़े सीपीएम के दावों पर सवाल उठाते हैं. माकपा पश्चिम बंगाल में कृषि विकास के दावे करती नहीं थकती. लेकिन कृषि से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि पश्चिम बंगाल में इस क्षेत्र में स्थिति भारत से बहुत अलग नहीं है. 1971 से 1981 एवं 1981 से 1991 में भूमिहीन किसानों की वृद्धि दर जमीनवाले किसानों के आंकड़े को भी पार कर गयी. दूसरी तरफ सीमांत किसानों की प्रतिशतता में वृद्धि हुई है. मध्यम एवं छोटे किसानों की संख्या में गिरावट आयी है. छह अक्टूबर, 2005 का गणशक्ति (सीपीएम के बांग्ला मुखपत्र) में कहा गया है कि कृषि के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद इसके विकास का बहुत छोटा हिस्सा भी खेत मजदूरों तक नहीं पहुंचा है. अनुसूचित जाति/जनजातियों एवं अन्य पिछड़ी जातियों से आनेवाले मजदूर सामाजिक व आर्थिक दोनों रूप से पिछड़ रहे हैं. 2001 की जनगणना के अनुसार पश्चिम बंगाल में किसानों की कुल संख्या 129.64 लाख थी. इस गणना में वे सीमांत किसान शामिल नहीं थे, जिन्होंने साल में छह महीने से कम काम किया था. उनमें 56.13 लाख किसान सरकारी रिकार्ड में हैं. दूसरे शब्दों में वे या तो जमीन के मालिक हैं या बंटाईदार हैं. बाकी 73.51 लाख भूमिहीन किसान हैं. इस प्रकार किसानों का 53.7 प्रतिशत खेत मजदूर हैं. 1991 में खेत मजदूरों का प्रतिशत 46.11 प्रतिशत था एवं उनकी संख्या 54.82 लाख थी. इस प्रकार वाम मोरचा सरकार का कृषि विकास का दावा खुद ही खारिज हो जाता है. इसके अलावा ऐसे खेत मजदूरों को सामान्यत: साल में तीन महीने से अधिक भी काम नहीं मिलता है. विकास के इस तथाकथित पहिये ने गरीब किसानों को बुरी तरह बरबाद कि या है. 1971 में भूमिहीन खेत मजदूरों की संख्या 32.72 लाख थी. 1981 में 38.92 लाख एवं 1999 में यह बढ़ कर 50.55 लाख हो गयी. अभी बंगाल में भूमिहीन खेत मजदूर 73 लाख 18 हजार हैं. पश्चिम बंगाल में 26 साल के वाम मोरचा शासन काल के दौरान 1977-78 से 2003-04 के बीच अन्न उत्पादन 89.70 लाख टन से बढ़ कर 160 लाख टन हो गया-प्रतिवर्ष 2.3 प्रतिशत से भी कम वृद्धि दर पर. वाम मोरचा सरकार यह दावा करती है कि इसके शासन काल में पश्चिम बंगाल देश में पहले नंबर पर आ गया है. आंकड़े बताते हैं कि 2002-03 में पश्चिम बंगाल 144 लाख टन के साथ देश में चौथे नंबर पर था, (367 लाख टन के साथ उत्तरप्रदेश पहले नंबर पर था). राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (1999-2000) यह स्पष्ट करता है कि भारतीय गांवों में ग्रामीण आबादी का लगभग 27.1 प्रतिशत जीवनयापन करने योग्य स्तर से भी नीचे जी रहा था. पश्चिम बंगाल में यह आंकड़ा राष्ट्रीय औसत से भी बदतर है-वह़ां 31.85 प्रतिशत लोग जीवनयापन योग्य स्तर से भी नीचे जी रहे हैं. सर्वेक्षण यह भी बताता है कि प्रति व्यक्ति ग्रामीण रोजगार की राष्ट्रीय दर 1.3 प्रतिशत के उलट पश्चिम बंगाल में यह सिर्फ 1.2 प्रतिशत थी. इस दौरान राज्य में प्रतिव्यक्ति खर्च 454 रुपये था, जबकि संपूर्ण भारत के लिए यह आंकड़ा 486 रुपये था. वाम मोरचे की सरकार का दावा है कि भूमि सुधार का फायदा लगभग 41 फीसदी ग्रामीणों को मिला है (25.44 पट्टेदार एवं 14.88 लाख पंजीकृत बंटाईदार). लेकि न राज्य के सर्वेक्षण पर एक स्वतंत्र अध्ययन के अनुसार पट्टेदार एवं बंटाईदारों की जमीन में सिंचाई की उपलब्धता आधी जमीन में भी बहुत कम है. उनमें से एक बड़ा हिस्सा आवश्यक खाद का भी इस्तेमाल नहीं कर पाता. इनमें 10 से 15 प्रतिशत लोगों को ही प्राथमिक कृषि समितियों से ऋण मिलता है. छोटी जोत के कारण 90 फीसदी पट्टेदार व 83 प्रतिशत बंटाईदार काम के लिए दूसरे जगहों पर जाने को बाध्य होते हैं. उनमें से 60 प्रतिशत पट्टेदार एवं 52 प्रतिशत बंटाईदार साल में छह महीने कहीं दूसरी जगह काम करते हैं. ये आंकड़े बताते हैं बंगाल की वामपंथी सरकार झूठ के सहारे गढे गये विकास के मिथ की असलियत बताते हैं. अब भी यह सरकार सेज़ के लिए नये इलाकों की तलाश में है.
हाथी सबका साथी
बहुजन समाज से सर्वजन समाज तक
रविभूषण
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम उन लोगों को मालूम थे, जिन्होंने प्रदेश के मतदाताओं को नजदीक से देखा था. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के अतिथि गृह में गत 10 मई को रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर के मनोविज्ञान के प्रोफेसर डॉ वंशगोपाल सिंह दो-तीन बार यह कह चुके थे कि मायावती को बहुमत प्राप्त होगा. वे गोरखपुर के इलाके से लौटे थे और बसपा को बहुमत मिलने के प्रति आश्वस्त थे. एक्जिट पोल के अनुमान गलत सिद्ध हुए और चुनाव विश्लेषकों तक को इस अदभुत परिणाम का अनुमान नहीं था. पंडितों ने शंख बजाये और हाथी आगे बढ़ता गया. अब मायावती आंबेडकर व कांशीराम के बाद देश में दलितों की सर्वमान्य नेता हैं. 14 अप्रैल, 1984 को कांशीराम ने जब बहुजन समाज पार्टी बनायी थी, मायावती एक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में उपस्थित हुई थीं. समय के अनुसार उन्होंने अपने विचार बदले और राजनीतिक रूप से निरंतर परिपक्व होती गयीं. 1989 तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का शासन था. ब्राह्मण, मुसलिम और कमजोर वर्ग उसके साथ थे. 1989 के बाद बदले राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस की हालत निरंतर पतली होती गयी. बसपा पहले आक्रामक थी. मायावती ब्राह्मणों और मनुवादियों को कोसती और फटकारती थीं, पर राजनीतिक अनुभवों ने उनकी आक्रामकता कम की और अब वे परिपक्व राजनीतिज्ञ के रूप में राजनीतिक रंगमंच पर उपस्थित हैं. पहले उनका नारा था `तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार.’ यह नारा बदल गया और हाथी को गणेश रूप में प्रस्तुत किया गया- `हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है.’ राज्य के 15वें विधानसभा चुनाव में मायावती ने 139 सवर्णों को बसपा का प्रत्याशी बनाया था. इनमें 86 ब्राह्मण थे. इन 86 स्थानों पर बसपा के 70 ब्राह्मण प्रत्याशी विजयी हुए हैं. ब्राह्मण और दलित कांग्रेस के पुराने वोट बैंक रहे हैं. कांग्रेस से ये दूर होते गये और उत्तर प्रदेश के इस बार के विधानसभा चुनाव में `एमबीडी फैक्टर’-मुसलिम, ब्राह्मण औप दलित महत्वपूर्ण रहा. प्रदेश में दलित 21 प्रतिशत, ब्राहम्ण 9 प्रतिशत, राजपूत 8 प्रतिशत, जाटव 13 प्रतिशत, यादव 9 प्रतिशत, वैश्य, कुर्मी, लोध, गरड़िया, कहार और केवट 2-2 प्रतिशत तथा मुसलिम 16 प्रतिशत हैं. मायावती ने ब्राह्मण- दलित पुल बनाया और बहुजन समाज से सर्वजन समाज तक की यात्रा की. उत्तर प्रदेश की सामान्य जनता ही नहीं, भारत की सामान्य जनता भी गंठजोड़ की छीना-झपटीवाली राजनीति से परेशान हो चुकी है. उत्तर प्रदेश के चुनावी परिणाम आगामी दिनों में पूरे देश में असरदायक हो सकते हैं. राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं और उसके साथ देश का राजनीतिक परिदृश्य भी बदल सकता है. उत्तर प्रदेश के चुनावी परिणाम देश की राजनीति के लिए अधिक महत्वपूर्ण होंगे. उत्तर प्रदेश में लगभग 16 वर्ष बाद किसी एक राजनीतिक दल की सरकार बन रही है. आजादी के बाद अब तक वहां किसी मुख्यमंत्री ने पांच वर्ष का अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया है. मायावती पहली बार 5 महीने, दूसरी बार 7 महीने और तीसरी बार 16 महीने मुख्यमंत्री रही हैं. 1993 के बाद राज्य में पहली बार बहुमत की सरकार बन रही है. इसे मतदाताओं की राजनीतिक परिपक्वता के रूप में देखा जाना चाहिए. अमर सिंह, अमिताभ बच्चन और सुंदर अभिनेत्रियों से सामान्य जनता को कोई मतलब नहीं है. उसे कैबरे डांस देखने की इच्छा नहीं है. भाजपा की `इंडिया शाइनिंग’ और `फील गुड’ की तरह के तारे फिर धूल में मिल गये. बीसवीं सदी का महानायक सब की दृष्टि में झूठा था, क्योंकि उत्तर प्रदेश उत्तम प्रदेश नहीं था और यूपी में जुर्म कम नहीं था. बिग बी के नारे हवा हो गये और चुनाव में होनेवाले भोंडे प्रदर्शन कामयाब नहीं हो सके. मतदाताओं ने उत्तर प्रदेश को खंडित नहीं, स्पष्ट जनादेश दिया. वर्षों पहले हिंदी की एक फिल्म हिट हुई थी- `हाथी मेरे साथी.’ अब हाथी सबका साथी है. मायावती ने विभेद और विभाजन की राजनीति छोड़ कर समन्वय तथा सहयोग की राजनीति को महत्व दिया. पहले से चले आते हुए जातीय राजनीतिक समीकरण नष्ट हुए और एक नया राजनीतिक-सामाजिक समीकरण बना. उत्तर प्रदेश के चुनाव ने मंडल-कमंडल की राजनीति को किनारे कर दिया है. 1990-91 से अब तक जाति और धर्म की राजनीति ने जो सामाजिक क्षति पहुंचायी है, वह सबके सामने है. क्या इस चुनाव परिणाम से राष्ट्रीय स्तर पर एक नया राजनीतिक समीकरण बनने की संभावना नहीं है? कॉरपोरेट राजनीतिक संस्कृति पर भी पुनर्विचार की आवश्यकता है. भाजपा इसी में फिसली, गिरी और पराजित हुई. सपा को भी अमर सिंह ने इसी कॉरपोरेट संस्कृति से क्षतिग्रस्त किया. बसपा ने इस चुनाव में किसी का दामन नहीं पकड़ा. उसने 402 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किये थे और उसके 206 प्रत्याशी विजयी हुए. बसपा के इस राजनीतिक आत्मविश्वास को समझने की जरूरत है, क्योंकि प्राय: सभी राजनीतिक दल अपना आत्मविश्वास खो चुके हैं. बीते 18 वर्ष में उत्तर प्रदेश में बसपा के विधायकों की संख्या में लगभग 16 गुना वृद्धि हुई है. पिछले चुनाव की तुलना में उसका वोट लगभग सात प्रतिशत बढ़ा है. 1989 से अब तक के पांच विधानसभा चुनावों में उसके जनाधार में वृद्धि होती गयी है. 1993 का मध्यावधि चुनाव बसपा ने सपा के साथ मिल कर लड़ा था. 1996 में वह कांग्रेस के साथ चुनाव में उतरी थी. इस बार वह अकेले लड़ी और विजयी हुई. मतदाताओं ने छोटे दलों और निर्दलीयों में रुचि नहीं ली. इस बार निर्दलीयों की संख्या बहुत घटी है. इस चुनाव में सपा, भाजपा और कांग्रेस का अपना अलग-अलग गंठबंधन था-छोटा ही सही. सपा के साथ माकपा, लोकतांत्रिक कांग्रेस और कुछ निर्दलीय थे. भाजपा के साथ जदयू और अपना दल था. कांग्रेस के साथ समाजवादी क्रांति दल, भारतीय किसान दल और राजद था. तीनों गंठजोड़ों का हश्र सामने है. बसपा केवल विधानसभा चुनाव में ही नहीं, प्रदेश की तीन संसदीय सीटों पर भी विजयी हुई है. चुनाव में मीडिया का खेल-तमाशा अधिक नहीं चला. मंच पर डांस का कोई फायदा नहीं हुआ. धन बल की भी अधिक भूमिका नहीं रही. परिवार का जयगान और राहुल गांधी का रोड शो भी प्रभावशाली नहीं बन सका. जयललिता ने 23 अप्रैल, 2007 को इलाहाबाद की एक चुनाव सभा में मुलायम सिंह के नेतृत्व की प्रशंसा करते हुए कहा था-`एक है मुलायम इस वतन में, एक है चंदा जैसे गगन में.’ यह सब धरा का धरा रह गया और अब मुलायम सिंह अपनी हार का सारा दोष चुनाव आयोग को दे रहे हैं. उत्तर प्रदेश में गुंडाराज था और मुलायम सिंह ने बिहार में लालू प्रसाद की हार से कुछ भी नहीं सीखा. मुलायम सिंह द्वारा त्याग पत्र दिये जाने के बाद उत्तर प्रदेश के संसदीय कार्य और नगर विकास मंत्री मोहम्मद आजम खां के कार्यालय में उनके स्टॉफ द्वारा सरकारी फाइलों को जलाने की घटना को उत्तर प्रदेश के सुशासन के रूप में लिया जाना चाहिए या कुशासन के रूप में? मुलायम सिंह का कन्या विद्या धन और बेरोजगारी भत्ता भी कुछ नहीं कर सका. कांग्रेस, भाजपा और सपा को आत्ममंथन करना चाहिए. केशरीनाथ त्रिपाठी, रामनरेश यादव, जगदंबिका पाल, हरिशंकर तिवारी, बेनी प्रसाद वर्मा और चंद्रशेखर के भतीजे प्रवीण सिंह बब्बू की हार सामान्य नहीं है. हालांकि कुछ बाहुबली फिर जीते हैं. वाम दलों ने बसपा को भाजपा की कोटि में रखा था और इसे बुरी बताया था. उत्तर प्रदेश के चुनावी परिणाम स्पष्ट हैं. जनता खिचड़ी सरकार नहीं चाहती. एकदलीय सरकार में उसकी निष्ठा है. ऐसी सरकार अपनी विफलता के लिए किसी दूसरे राजनीतिक दल को दोषी नहीं ठहरा सकती. गंठबंधन की सरकार पर उत्तर प्रदेश में प्रश्न चिह्र लगा दिया है. ऐसी सरकार विकास कार्य नहीं कर सकती. सहयोगी दलों के तीसरे मोरचे व संयुक्त मोरचे की सरकारें बन- बिगड़ चुकी हैं. क्या अब दलित, आदिवासी और वामपंथी दलों का कोई व्यापक राष्ट्रीय मोरचा बन सकता है? मायावती को इसकी जरूरत नहीं है. बसपा आज राष्ट्रीय परिदृश्य पर विराजमान है और जाहिर है कि वह बहुजन समाज से सर्वजन समाज की ओर बढ़ चुकी है.
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