एक मुलाकात लतिका रेणु से
May 19, 2007 at 6:09 pm 7 comments
एक ठुमरीधर्मा जीवन का अंतर्मार्ग
रेयाज-उल-हक
राजेंद्रनगर के ब्लॉक नंबर दो में पटना इंप्रूवमेंट ट्रस्ट का एक पुराना मकान. दूसरी मंजिल पर हरे रंग का एक दरवाजा. जंग लगा एक पुराना नेम प्लेट लगा है- फणीश्वरनाथ रेणु .
एक झुर्रीदार चेहरेवाली औसत कद की एक बूढ़ी महिला दरवाजा खोलती हैं-लतिका रेणु. रेणु जी की पत्नी. मेरे साथ गये बांग्ला कवि विश्वजीत सेन को देख कर कुछ याद करने की कोशिश करती हैं. वे हमें अंदर ले जाती हैं.
कमरे में विधानचंद्र राय, नेहरू और रेणु जी की तसवीर. 1994 का एक पुराना कैलेंडर. किताबों और नटराज की प्रतिमा पर धूल जमी है. बाहर फोटो टंगे हैं-रेणु और उनके मित्रों के. घर में लगता है, रेणु का समय अब भी बचा हुआ है. एक ओर कटी सब्जी का कटोरा रखा हुआ है-शायद वे सब्जी काट रही थीं. बातें शुरू होती हैं. वे रेणु जी पर प्राय: बात नहीं करना चाहतीं. अगर मेरे साथ विश्वजीत दा नहीं होते तो उनसे बात कर पाना मुश्किल था. पुराना परिचय है उनका. काफी कुछ दिया है इस महिला ने रेणु को. प्रकारांतर से हिंदी साहित्य को. हजारीबाग के सेंट कोलंबस कॉलेज के एक प्रोफेसर की बेटी लतिका जी इंटर करने के बाद पटना आयी थीं-नर्सिंग की ट्रेनिंग के लिए. फिर पटना की ही होकर रह गयीं. पटना मेडिकल कॉलेज में ही भेंट हुई फणीश्वरनाथ रेणु से. उनके फेफड़ों में तकलीफ थी. नेपाल में राणाशाही के खिलाफ संघर्ष में शामिल थे रेणु. एक बार वे गिर गये और पुलिस ने उनकी पीठ को अपने बूटों से रौंद डाला था. तब से खराब हो गये फेफ ड़े. खून की उल्टी तभी से शुरू हुई.
लतिका जी उन दिनों को याद करते हुए कभी उदास होती हैं, कभी हंसती हैं, वैसी हंसी जैसी जुलूस की पवित्रा हंसती है. ट्रेनिंग खत्म होने के बाद पटना में ही गर्दनीबाग में चाइल्ड वेल्फेयर सेंटर में नियुक्ति हुई. छह माह बाद सब्जीबाग के सिफ्टन चाइल्ड वेल्फेयर सेंटर में आ गयीं. तब तक रेणु जी से उनकी शादी हो चुकी थी. रेणु जी ने उन्हें बताया नहीं कि उनकी एक पत्नी औराही हिंगना में भी हैं. शादी के काफी समय बाद जब वे पूर्णिया उनके घर गयीं तो पता चला. इस पर वे नाराज भी हुईं, पर मान गयीं.
इस रचना को देशबंधु पर भी पढें.
लतिका जी शादी से जुड़े इन प्रसंगों को याद नहीं करना चाहतीं. काफी कटु अनुभव हैं उनके. रेणु जी के पुत्र ने उनकी किताबों का उत्तराधिकार उनसे छीन लिया. वह यह फ्लैट भी ले लेना चाहता था, जिसमें अभी वे हैं और जिसे उन्होंने अपने पैसे से खरीदा था. रेणु जी ने इस फ्लैट के आधार पर 20000 रुपये कर्ज लिये थे बैंक से. बैंक ने कहा कि जो पैसे चुका देगा फ्लैट उसका. लतिका जी ने कैसे-कैसे वे पैसे चुकाये और फ्लैट हासिल किया.
वे भुला दी गयी हैं. अब उन किताबों पर उनका कोई अधिकार नहीं रहा, जिनकी रचना से लेकर प्रकाशन तक में उनका इतना योगदान रहा. मैला आंचल के पहले प्रकाशक ने प्रकाशन से हाथ खींच लिया, कहा कि पहले पूरा पैसा जमा करो. लतिका जी ने दो हजार दिये तब किताब छपी. नेपाल के बीपी कोइराला को किताब की पहली प्रति भेंट की गयी. उसका विमोचन सिफ्टन सेंटर में ही सुशीला कोइराला ने किया.
इसके बाद, जब उसे राजकमल प्रकाशन ने छापा तो उस पर देश भर में चर्चा होने लगी. लतिका जी बताती हैं कि रेणु दिन में कभी नहीं लिखते, घूमते रहते और गपशप करते. हमेशा रात में लिखते, मुसहरी लगा कर. इसी में उनका हेल्थ खराब हुआ. लिख लेते तो कहते-सारा काम छोड़ कर सुनो. बीच में टोकाटाकी मंजूर नहीं थी उन्हें. कितना भी काम हो वे नहीं मानते. अगर कह दिया कि अभी काम है तो गुस्सा जाते, कहते हम नहीं बोलेंगे जाओ. फिर उस दिन खाना भी नहीं खाते. जब तीसरी कसम फिल्म बन रही थी तो रेणु मुंबई गये. उनकी बीमारी का टेलीग्राम पाकर वे अकेली मुंबई गयीं. मगर रेणु ठीक थे. वहां उन्होंने फिल्म का प्रेस शो देखा. तीसरी कसम पूरी हुई. लतिका जी ने पटना के वीणा सिनेमा में रेणु जी के साथ फ़िल्म देखी. उसके बाद कभी नहीं देखी तीसरी कसम.
रेणु के निधन के बाद उनके परिवारवालों से नाता लगभग टूट ही गया. उनकी एक बेटी कभी आ जाती है मिलने. गांववाली पत्नी भी पटना आती हैं तो आ जाती हैं मिलने, पर लगाव कभी नहीं हुआ. नर्सिंग का काम छोड़ने के बाद कई स्कूलों में पढ़ाती रही हैं. अब घर पर खाली हैं. आय का कोई जरिया नहीं है. बिहार राष्ट्रभाषा परिषद 700 रुपये प्रतिमाह देता है, पर वह भी साल भर-छह महीने में कभी एक बार. पूछने पर कि इतने कम में कैसे काम चलता है, वे हंसने लगती हैं-चल ही जाता है.
अब वे कहीं आती-जाती नहीं हैं. किताबें पढ़ती रहती हैं, रेणु की भी. सबसे अधिक मैला आंचल पसंद है और उसका पात्र डॉ प्रशांत. अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में अनुदित रेणु की किताबें हैं लतिका जी के पास. खाली समय में बैठ कर उनको सहेजती हैं, जिल्दें लगाती हैं. लतिका जी ने अपने जीवन के बेहतरीन साल रेणु को दिये. अब 80 पार की अपनी उम्र में वे न सिर्फ़ अकेली हैं, बल्कि लगभग शक्तिहीन भी. उनकी सुधि लेनेवाला कोई नहीं है. रेणु के पुराने मित्र भी अब नहीं आते.
एक ऐसी औरत के लिए जिसने हिंदी साहित्य की अमर कृतियों के लेखन और प्रकाशन में इतनी बड़ी भूमिका निभायी, सरकार के पास नियमित रूप से देने के लिए 700 रुपये तक नहीं हैं. हाल ही में पटना फिल्म महोत्सव में तीसरी कसम दिखायी गयी. किसी ने लतिका जी को पूछा तक नहीं. शायद सब भूल चुके हैं उन्हें, वे सब जिन्होंने रेणु और उनके लेखन से अपना भविष्य बना लिया. एक लेखक और उसकी विरासत के लिए हमारे समाज में इतनी संवेदना भी नहीं बची है.
Entry filed under: ताकि सनद रहे, याद, समय मुरदागाडी़ नहीं .
1.
अनामदास | May 19, 2007 at 9:04 pm
रेणु ने अपने एक-एक शब्द में मानो अपनी साँस फूँकी थी, उनके सारे शब्द धड़कते थे, शायद यही वजह थी कि उनकी साँस इतनी जल्दी बंद हो गई. परती परिकथा, मैला आंचल और कलंक मुक्ति जैसे उपन्यास, तीसरी क़सम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम और एक अकहानी का सुपात्र जैसी अमर कहानियों के रचयिता रेणु को मैं दुनिया के किसी भी कालजयी साहित्यकार से रत्ती भर कम नहीं मानता. परती परिकथा मेरे लिए धर्मग्रंथ से कम आदरणीय नहीं है, मैला आंचल कई बार पढ़ा.
लतिका जी की दशा जानकर बहुत दुख हुआ, मन धिक्कारता है, हम सब ऐसे ही हैं. थोड़ी तो कृतज्ञता होनी चाहिए ऐसे लोगों के प्रति जिन्होंने हमारी संवेदना, सोच-समझ में इतना कुछ जोड़ा है.
रियाज़ भाई आपका बहुत आभारी हूँ, अगर कभी पटना जाने का मौक़ा मिला तो लतिका जी के चरण छूने जाने की कोशिश करूँगा.
2.
अभिनव | May 19, 2007 at 9:11 pm
रियाज़ भाई, हम भी आपके आभारी हैं। अनेक धन्यवाद।
3.
Udan Tashtari | May 20, 2007 at 1:17 am
सच कहा, यही हाल तो है. आपका बहुत आभार इस लेख के लिये, धन्यवाद.
4.
avinash | May 20, 2007 at 5:45 am
मार्मिक संस्मरण
5.
अनूप शुक्ला | May 20, 2007 at 8:51 am
बहुत मार्मिक संस्मरण है। जानकर दुख भी हुआ !
6.
Sanjeet Tripathi | May 20, 2007 at 10:47 am
मार्मिक।
कुर्सी की लड़ाई लड़ते राजनेता और पुरस्कार की लड़ाई लड़ते साहित्यकार, इन्हें कहां फ़ुरसत कि देख सकें कि मूर्धन्य साहित्यकारों का परिवार कहां और किस हाल में है।
इतना बड़ा मैं अपने आप को नहीं मानता कि रेणु के लेखन पर कुछ लिख सकूं लेकिन बतौर एक पाठक यही कहना चाहूंगा कि आंचलिकता की जमीन से जो जुड़ाव रेणु की रचनाओं में देखने मिलता है वह अन्यत्र शायद ही मिलता हो।
उनके पात्र , उनकी भाषा, तेवर, ……
बस अभी-अभी मैंने परती परिकथा पढ़कर रखी है, अद्भुत उपन्यास। मैला आंचल की तो बात ही क्या कहें, अब तीसरी बार पढ़ने जा रहा हूं मैला आंचल।
आपका आभार रियाज़ जी
7.
anu | May 23, 2007 at 4:27 am
behatareen sansmaran reyaz! daraasaal yah usi lekh ka hissa hona chahiye ki hum ek asahisni samaj me rah rahe hain.