क्या पंत और तुलसी का तीन चौथाई काव्य कूड़ा है?

May 21, 2007 at 12:16 am 4 comments

नामवर (वाचिक) आलोचक नामवर सिंह ने पंत काव्य को कूडा़ कहा और वहीं डा सदानंद शाही ने तुलसी साहित्य को भी ऐसा ही कुछ कहा. हम यह मानते हैं कि किसी लेखक को उसकी प्रतिबद्धता और अपने समय को उसके उथलपुथल के साथ दर्ज़ करने की काबिलियत ही उसे महान बनाती है. तुलसी और पंत में ये दोनों ही नहीं हैं. पंत, केवल कल्पना लोक के कवि हैं तो दूसरी ओर तुलसी समाज को रूढियों और सामंती मूल्यों से (ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी…आदि, आदि) लैस करते हैं. यही वजह है कि पंत अब चर्चा से बाहर रह्ते हैं और तुलसी धर्म की सीमा में कैद रह गये. किसी साहित्यिक रचना का धर्मग्रंथ बन जाना उसकी कमजोरी को दिखाता है. इसका मतलब है कि आप उस पर साहित्यिक कसौटियों के साथ विचार करने को स्वतंत्र नहीं रह जाते हैं. यह किसी विचार को धर्मविधान बना देने जैसा ही है. मगर हमारा यह भी मानना है कि किसी लेखक पर इस तरह का फ़ैसला देने का काम लिखित तौर पर होना चाहिए न कि वाचिक तौर पर. और नामवर सिंह जिस तरह हवा का रुख देख कर भाषा बदलते रहते हैं हम उसका भी समर्थन नहीं करते. वे एक समय में नेरुदा को लाल सलाम कहते हैं तो अगले ही पल सहारा राय को सहारा प्रणाम. मगर इसी के साथ हम उनपर हुए मुकदमों का भी विरोध करते हैं. रविभूषण का यह लेख प्रभात खबर में भी छप चुका है.
रविभूषण
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के महिला अध्ययन एवं विकास केंद्र, भारत कला भवन और बनारस के प्रेमचंद साहित्य संस्थान द्वारा आयोजित दो दिवसीय `महादेवी जन्मशती महोत्सव’ (5-6 मई, 2007) में नामवर सिंह द्वारा सुमित्रानंदन पंत पर की गयी टिप्पणी बनारस और बनारस के बाहर आजकल चर्चा में है. संगोष्ठी महादेवी वर्मा : वेदना और विद्रोह पर केंद्रित थी.नामवर सिंह ने जयशंकर प्रसाद और निराला के बाद महादेवी को स्थान देते हुए पंत काव्य में तीन चौथाई कूड़ा होने की बात कही. उन्होंने महादेवी को पंत से बड़ा कवि घोषित किया. उनकी आपत्ति महादेवी को `वेदना और विद्रोह’ में बांध देने और सीमित करने पर भी थी.

जिस महादेवी ने जीवन को `विरह का जलजात’ कहा और वेदना में जन्म, करुणा में मिला आवास के द्वारा विरह, करुणा और वेदना को व्यापक अर्थों में ग्रहण किया था, उसे नामवर ने दुख के सीमित अर्थ में रख दिया. स्वयं महादेवी ने अपने निबंधों में `वेदना’ पर जो विचार किया है, उसे देखने से यह स्पष्ट हो जायेगा कि महादेवी की वेदना सामान्य और सीमित नहीं थी. उसके दुख को निजी दुख समझना भी गलत है. इस संगोष्ठी में केदरनाथ सिंह, राजेंद्र कुमार, पीएन सिंह आदि ने जो बातें कहीं, उनकी ओर, और नामवर ने भारतीय कविता पर जो विचार किया, उसकी अनदेखी की गयी और यह टिप्पणी विशेष प्रमुख हो गयी कि पंत साहित्य का तीन चौथाई कूड़ा है. कूड़ा और कूड़ेदान किसी को प्रिय नहीं हैं. फालतू व महत्वहीन की तुलना में कूड़ा शब्द ज्यादा तीखा और बेधक है.
बनारस से प्रकाशित दैनिक हिंदुस्तान ने इसे एक मुद्दा बना कर बनारस के कवियों, लेखकों, आलोचकों और प्राध्यापकों से नामवर की टिप्पणी पर प्रतिक्रियाएं छापीं. बच्च्न सिंह, चंद्रबली सिंह, ज्ञानेंद्रपति, चौथी राम यादव, पीएन सिंह, कुमार पंकज, अवधेश प्रधान, वाचस्पति, बलराज पांडेय, सदानंद शाही, सुरेंद्र प्रताप, चंद्रकला त्रिपाठी, श्रीप्रकाश शुक्ल आदि में से कुछ ने नामवर के कथन से सहमति प्रकट की और कुछ ने उनकी इस टिप्पणी की आलोचना की. बच्चन सिंह को कूड़ा शब्द के प्रयोग पर घोर आपत्ति है और पीएन सिंह इस शब्द को `मंचीय अभिव्यक्ति’ कह कर इसे गंभीरता से न लेने की बात कहते हैं. ज्ञानेंद्रपति के अनुसार नामवर अवसरानुकूल बयान देते हैं.

हिंदी दैनिक अमर उजाला ने इस पर संपादकीय (आठ मई) भी लिखा. चंद्रबली सिंह ने नामवर के कथन में उनका दंभ देखा. एक समय चंद्रबली सिंह ने भी पंत की तीखी आलोचना की थी, पर उनके लेखन को कूड़ा नहीं कहा था. अब अक्सर निजी बातचीत में नामवर के कथन को गंभीरता से न लेने की बात कही जाती है. नामवर सदैव गंभीर बातें नहीं करते, पर उनका कथन सदैव तथ्यहीन भी नहीं होता. कविता को वे खेल मानते हैं और अब आलोचना भी उनके लिए खेल है. वे कुशल खिलाड़ी हैं और करीब 60 वर्ष से हिंदी आलोचना के केंद्र में विद्यमान हैं. मीडिया में भी वे सदैव उपस्थित रहते हैं और उनके कथन पर टीका-टिप्पणी होती रहती है. कभी मृणाल पांडे ने नामवर को हिंदी का अमिताभ बच्चन कहा था और अब भाजपा के कुछ प्रबुद्ध उन्हें `हिंदी साहित्य का राखी सावंत’ कह रहे हैं. स्पष्ट है, वैचारिकता व गंभीरता का लोप हो रहा है. दूसरों को आहत करना शिक्षित समुदाय का स्वभाव बन गया है.
पंत अपनी परवर्ती रचनाओं के प्रति आलोचकों के विचार से अवगत थे. उन्होंने कई स्थलों पर इस संबंध में लिखा है. नंद दुलारे वाजपेयी ने सर्वप्रथम छापावाद की `बृहत्रयी’ प्रस्तुत की थी. महादेवी इस बृहत्रयी से बाहर थीं. बाद में एक लघुत्रयी भी बनायी गयी और उसमें महादेवी के साथ रामकुमार वर्मा और भगवती चरण वर्मा को शामिल किया गया. इसे कुछ लोगों ने `वर्मा-त्रयी’ भी कहा. छायावाद को पंत कवि चतुष्टम तक ही सीमित नहीं रखते थे. भगवती चरण वर्मा और रामकुमार वर्मा के साथ उन्होंने छायावाद के षड्मुख व्यक्तित्व की चर्चा की है. महादेवी की काव्य-रचना प्रसाद, निराला, पंत के बाद आरंभ हुई. नीहार (1930) का प्रकाशन अनामिका, पल्लव और परिमल के प्रकाशन के बाद हुआ.
छायावादी कवियों में एक दूसरे के प्रति स्नेह व सम्मान का भाव था. महादेवी ने निराला, प्रसाद और पंत को `पथ के साथी’ कहा है. तुलनात्मक आलोचना बहुत पहले मुरझा चुकी है. महादेवी वर्मा का सुमित्रानंदन पंत से परिचय धीरेंद्र वर्मा ने अपने विवाह के अवसर पर कराया था. वैसे महादेवी ने पंत को पहली बार हिंदू बोर्डिंग हाउस में हुए एक कवि-सम्मेलन में देखा था. महादेवी के अनुसार पंत के जीवन पर संघर्षों ने `अपनी रुक्षता और कठोरता का इतिहास’ नहीं लिखा है. महादेवी की दृष्टि में पंत चिर सृजनशील कलाकार और नये प्रभात के अभिनंदन के लिए उन्मुख थे उन्होंने पंत की `अनंत सृजन संभावनाओं’ की बात कही है. जिन कृतियों से आलोचक पंत में विचलन-फिसलन देखते हैं, महादेवी का ध्यान उधर भी गया था. पंत की ग्राम्या, युगवाणी आदि काव्य कृतियों के संबंध में महादेवी ने लिखा है, `उन्होंने अपनी सद्य: प्राप्त यथार्थ भूमि की संभावनाओं को स्वर-चित्रित करने का प्रयत्न किया है.’

पंत के सामने उनकी काव्य कृतियों का विरोध आरंभ हो चुका था. उस समय आज की तरह `कूड़ा’ शब्द प्रयुक्त नहीं होता था. पंत ने स्वयं अपने विरोधी आलोचकों के दृष्टिकोण का उल्लेख किया है कि वे विचार और दर्शन को आत्मसात न कर, केवल उसके बौद्धिक प्रभावों को अपनी कृतियों में दुहराते हैं. लोकातयन के प्रकाशन (1965) के बाद इलाहाबाद में विवेचना की गोष्ठी में पंत की उपस्थिति में विजयदेव नारायण साही को जब `लोकायतन’ की चर्चा में बोलने को कहा गया, तब उन्होंने खड़े होकर कहा था `यह कृति न मैंने पढ़ी है और न पढूंगा.’ हल्ला मचा कि साही के कथन से पंत का `वध’ हो गया. साही साही थे. उनकी आलोचना में गंभीरता थी. बाद में हो-हल्ला होने पर साही ने अपने कथन का उत्तरांश (और न पढ़ूंगा) वापस ले लिया था.
नामवर अपना कथन वापस नहीं लेंगे. वे तीन चौथाई का तर्क दे सकते हैं और संख्या भी गिना सकते हैं. विजयदेव नारायण साही ने लोकायतन पर ध्यान नहीं दिया. पर पंत को इसी पर सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार मिला. साही इस पुरस्कार की आलोचना कर सकते थे. नामवर कैसे करेंगे? वे पुरस्कार देनेवालों में रहे हैं.
पंत ने लिखा है कि प्रसाद के आंसू के दूसरे संस्करण में उनकी कविता चांदनी की कुछ कल्पनाओं तथा बिंबों का समावेश है और निराला की यमुना में उनकी कविता स्वप्न व छाया आदि की `स्पष्ट अनुगूंज’ है. फिर भी उनका कथन है, `हम यह प्रमाणित नहीं कर सकते कि हमने एक दूसरे का अनुगमन या अनुकरण किया है.’ उन्होंने स्वीकारा है कि `मेरे तुम आती हो में महादेवी के जो तुम आ जाते एक बार का अप्रत्यक्ष प्रभाव परिलक्षित होता है.’
पंत ने छायावाद : पुनमूल्यांकन में महादेवी की बहुत प्रशंसा की है. उन्होंने महादेवी को `छायावाद के वसंत वन की सबसे मधुर, भाव-मुखर पिकी’ कहा है. पंत ने शुक्लजी के शब्दों में `कूल की रूह सूंघनेवाले’ आलोचकों की भी बात कही है.
कला और बूढ़ा चांद और चिदंबरा क्या पंत की `तीन चौथाई’ में शामिल होनेवाली रचनाएं हैं? पहले पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और दूसरे पर भारतीय ज्ञानपीठ. पुरस्कार महत्वपूर्ण नहीं हैं, पर क्या नामवर इन पुरस्कारों को खारिज करेंगे? किसी कवि की सभी रचनाएं एक समान नहीं होतीं. खारिजी आलोचना का भी महत्व है, पर यह लिखित रूप में होनी चाहिए.
शांतिप्रिय द्विवेदी ने पंत पर एक मोटी पुस्तक ज्योति विहंग लिखी थी. द्विवेदी की जन्मशती बीत गयी. उन्हें किसी ने याद नहीं किया. तुलसीदास की भी सभी रचनाएं कविता की कसौटी पर खरी नहीं उतरेगी. पर नामवर की भाषा में उन रचनाओं को भी कूड़ा कहना, जैसा कि सदानंद शाही ने कहा है, उचित नहीं है. बनारस के अपने रंग और और ठाठ हैं. मस्ती और फिकरेबाजी है. नामवर सिंह और सदानंद शाही के खिलाफ लंका (बनारस) थाने में तहरीर दाखिल करना सस्ते किस्म की प्रचारप्रियता है. मगर फिलहाल यही हो रहा है. आलोचना का स्तर खुद आलोचक गिरा रहे हैं और आलम यह है कि हमारे समय में आलोचना से अधिक टिप्पणियां महत्वपूर्ण बन रही हैं.

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जनता के अधिकारों का क्या हो? जनता के अधिकारों का क्या हो?

4 Comments Add your own

  • 1. अनूप शुक्ला  |  May 21, 2007 at 7:14 am

    यह आलेख यहां पढ़वाने के लिये आभार! नामवरजी तो विवादास्पद बयानों के आचार्य हैं। हम उनको क्या कहें! 🙂

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  • 2. Sanjeet Tripathi  |  May 21, 2007 at 10:33 pm

    आपका आभार!
    दर-असल व्यक्ति जब अपने आप को व्यवस्था/अपने आसपास से उपर समझने लगता है तब जो हालत होती है उसे अहं कहते है, और शायद नामवरजी में यह अहं अब मुखर होता जा रहा है

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  • 3. avinash  |  May 21, 2007 at 10:54 pm

    अच्‍छा है… इस मुद्दे पर बहस कराइए… हम साथ हैं… पटना के लोगों से लिखवाइए… हम एक असहिष्‍णु समाज के हिस्‍से नहीं हो सकते… हमें समाज बदलना ही होगा…

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  • 4. चन्द्रिका  |  May 24, 2007 at 12:42 am

    हम्मै लागथै कि कबहुँ नामवर सिंह लिखि के तहलका मचावत रहिन अब बोलि कै मचावै चाहथिन तुलसी दास की तरह वनहुँ किलियर नाय बाटिन तुलसीदास एक जगह लिख~थिन ढोल गवार शूद्र पशु नारी तव दुसरी जगह पराधीन सपनेहुँ सच नाहीं(नारीन के लिये लिखे बाटे) बहरहाल समय होत तौ हम जरूर कुछ लिखित लेकिन ……….

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