वे अब किसके लिए आयेंगे ?
May 25, 2007 at 1:17 am Leave a comment
डॉ. विनायक सेन का सिलसिला नहीं रूका तो…
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अनिल चमड़िया
दिल्ली के प्रेस क्लब में पूर्व न्यायाधीश राजिन्दर सच्चर, वकील प्रशांत भूषण, लेखिका अरूंधति राय, जेपी आंदोलन के नेता अख्तर हुसैन, विधायक डॉ. सुनीलम और दूसरे कई लोग मीडिया वालों से यह अनुरोध कर रहे थे कि छत्तीसगढ़ में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी (पीयूसीएल) के उपाध्यक्ष डॉ. विनायक सेन की गिरफ्तारी की सूचना छापने की कृपा करें। उन्हें चौदह मई को बिलासपुर में जन सुरक्षा विशेष कानून 2005 और गैर कानूनी गतिविधि रोधक कानून 1967 के तहत गिरफ्तार किया गया था। डॉ. विनायक सेन पहले दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में डॉक्टर थे। लेकिन छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के नेता शंकर गुहा नियोगी के आंदोलन के प्रभाव में आकर वे आदिवासियों के बीच वहां जाकर काम करने लगे। कामगारों द्वारा चलाए जाने वाला शहीद अस्पताल खड़ा किया। इन दिनों खासतौर से यह देखा जाता है कि मीडिया के पत्रकारों की मानसकिता कामगारों की तरह नहीं रही। वे अधिकारियों की तरह सोचते और हुक्म देते हैं। डॉ. विनायक सेन की गिरफ्तारी के संबंध में भी उन्हाेंने पुलिस के आरोपों की तरफ से सोचना शुरू किया। इसीलिए उनके भीतर लोकतंत्र के मूल्य बोध को जगाने की कोशिश करनी पड़ रही है। एक व्यापारी पीयूष गुहा ने पुलिस द्वारा खुद को गैरकानूनी तरीके से हिरासत में रखे जाने के दौरान यह बयान दिया है कि डॉ. विनायक सेन का माओवादियों से रिश्ता हैं। स्टिंग आपरेशन में फंसे छत्तीसगढ़ के एक सांसद संसद भवन में तो यह तक कह रहे थे कि उन्हें पुलिस के एक बड़े अधिकारी ने बताया है कि उनके पास पक्के सबूत हैं। रायपुर जेल तक उड़ाने की योजना थी। इसीलिए एक बड़े नक्सलवादी को (संभवत: नारायण सन्याल) को वहां से बिलासपुर की जेल में भेज दिया गया है। पिछले पचास-साठ वर्षों में ऐसे न जाने कितने उदाहरण मिल सकते हैं जिसमें कि सरकार और पुलिस ने लोगों के लिए लड़ने वाले या लोकतंत्र के पक्ष में बोलने वालों के खिलाफ तरह-तरह के आरोपों में मुकदमें लादे हैं। कांग्रेस की सरकारों ने शासन के ढांचे को इस दिशा में मजबूत किया। इंदिरा गांधी तानाशाही तक पहुंच गईं। आपातकाल लगाया। देश के बडे-बड़े नेताओं को बड़ौदा डायनामाइट कांड में फंसाया था। सरकार अपने विरोधियों को पकड़वाने के बाद हमेशा ही कहती है कि उसके पास पुख्ता सबूत हैं। लेकिन इस देश में क्या कभी देश के किसी बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता के खिलाफ पुख्ता सबूत साबित हो सकें?
यहां इस बात से ज्यादा चिंता हो रही है कि सरकारी मशीनरियां तेजी से फासीवाद की तरफ बढ़ रही हैं। आपातकाल लगा तो विरोध हुआ। न्यायपालिका ने घुटने टेके। लेकिन मीडिया के कम से कम एक हिस्से ने तो लड़ाई लड़ी। कई पत्रकार जेल गए। संसदीय राजनीतिक पाटयों से लेकर नक्सलवादियों तक ने तानाशाही के खिलाफ एकजुटता दिखाई। लेकिन आपातकाल के बाद सत्ता मशीनरी ने दमन के साथ-साथ उसके विरोध की ताकतों को तरह-तरह से अलग-थलग किया और अब अमेरिकी शासन शैली को स्वीकृति मिलने के बाद तो वह आक्रमकता की स्थिति में आ गई है। मीडिया की पूरी मानसिकता इस तरह से तैयार की जा रही है कि वह सरकारी मशीनरी की तरह सोचे। वह लोकतंत्र का कोई सवाल ही नहीं खड़ा करें। सरकारी नीतियों की वजह से संघर्ष की परिस्थितियां खड़ी हो तो वह नीतियों के बजाय संघर्ष को विकास विरोधी बताने की मुहिम में शामिल हो। संघर्षों को राष्ट्र विरोधी तक करार करने के तर्कों में मददगार हो। शासन व्यवस्था के पास एक बड़ा हथियार पहले ही मौजूद है। किसी संघर्ष को हिंसक बताकर उसे कानून एवं व्यवस्था के समस्या के रूप में खड़ी करे। वह शांति की एकतरफा जिम्मेदारी स्थापित करने में कामयाब होती रही है। इस गणतांत्रिक ढांचे में यह भी किया गया है कि राय और केन्द्र की नीतियों को एक रूप करने के तरीके खोजे गए। छत्तीसगढ़ की सरकार जब दमन करे तो केन्द्र सरकार कानून एवं व्यवस्था को राय का विषय बता दे और जब छत्तीसगढ़ में कानून एवं व्यवस्था के नाम पर दमन की कार्रवाइयां चलाने के लिए फौज की जरूरत हो तो केन्द्र सरकार उसे अपना राष्ट्रीय और संवैधानिक कर्तव्य बताए। डॉ. विनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद केन्द्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल से एक प्रतिनिधिमंडल मिला तो उन्होंने कहा कि ये छत्तीसगढ़ का मामला है और वे केवल सरकार को लिखकर पूछ सकते हैं। प्रतिनिधिमंडल चाहें तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और न्यायालय में जा सकता है। देश का गृहमंत्री किन मामलों में लाचार दिखने लगा है?
छत्तीसगढ़ एक ऐसा उदाहरण है जहां संसदीय लोकतंत्र में संस्थाओं के स्तर पर दिखने वाले भेद मिट गए हैं। छत्तीसगढ़ आदिवासियों के राय के रूप में अलग हुआ। आदिवासी विधायक बहुमत में चुनाव जीते लेकिन सरकार का नेतृत्व गैर आदिवासी करता है। भाजपा की सरकार है और सलवा-जुडूम कांग्रेस के नेतृत्व चलता में हैं। सलवा-जुडूम के जुर्मों के खिलाफ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग चुप है। न्यायालय में इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने वहां की स्थितियां बयान की है। अनुभव रहा है कि सत्ता मशीनरी जिस संघर्ष को राष्ट्र विरोधी, विकास विरोधी और हिंसक के रूप में स्थापित करने के तर्कों को समाज के मध्य वर्ग तक ले जाने में सफल हो जा रहा है तो उसके खिलाफ तमाम संस्थाओं की राय एक सी बन जाती है। सरकारी मशीनरियों को कौन सा एक आक्रमक विचार संचालित कर रहा है?
छत्तीसगढ़ में जन सुरक्षा विशेष कानून 2005 बना है, वह पोटा से भी ज्यादा दमनकारी है। लेकिन उसे लेकर कोई मतभेद छत्तीसगढ़ की दोनों सत्ताधारी पाटयों के बीच नहीं दिखा। दरअसल कांग्रेस और भाजपा की नीतियों में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। कांग्रेस ने जो दमनकारी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया है, भाजपा उसका इस्तेमाल ही नहीं करना चाहती है बल्कि उसे और मजबूत करना चाहती है। कांग्रेस ने टाडा लगाया तो भाजपा ने पोटा लगाया। पोटा खत्म किया तो राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर गैरकानूनी गतिविधि रोधक कानून 1967 में उसके प्रावधानों को जोड़ दिया गया। दोनों ही पाटयों का सामाजिक, आथक और राजनीतिक आधार एक है। कांग्रेस के जमाने में जिस तरह से दलितों और आदिवासियों को नक्सलवादी के नाम पर मारा गया है उसी तरह से भाजपा शासित रायों में भी मारा गया है। छत्तीसगढ़ में सलवा-जुडूम की ज्यादतियों को लेकर देश के उन बड़े अधिकारियों एवं न्यायाधीशों ने कई कई रिपोटर्ें पेश की हैं जो भारत सरकार के महत्वपूर्ण ओहदे पर रह चुके हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में काम करने वाले प्रोफेसर्स, पत्रकारों, वकीलों ने बताया कि कैसे छत्तीसगढ़ में आदिवासी मारे जा रहे हैं। अमेरिका ने कहा था कि जो हमारे साथ नहीं है वह आतंकवाद के साथ है। छत्तीसगढ़ में इसी वाक्य को दोहराया गया कि जो सलवा-जुडूम के साथ नहीं है वो माओवादियों के साथ है। जब राजनैतिक सत्ता इस तरह से आक्रमक हो जाए तो उससे क्या उम्मीद की जा सकती है। यहां तो सरकार के साथ हां में हां नहीं मिलाने वाले सभी के सभी माओवादी माने जा सकते हैं। संसदीय लोकतंत्र का ढांचा इस तरह का समझा जाता रहा है कि लोकतांत्रिक सिद्धांतों और मूल्यों पर हमलों पर अंकुश लगाने की गुंजाइश रहती है। लेकिन अनुभव बताता है कि पूरा ढांचा एकरूप हो चुका है। ऐसी स्थितियों के लिए ही मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है। मीडिया भी जब सरकारी संस्थाओं की तरह सोचने लगे तो लोकतंत्र में लोग अपनी बात कहने के लिए कहां जा सकते हैं? जब लोकतंत्र ही नहीं बचेगा तो मीडिया अपनी ताकत को कैसे बचाकर रख सकेगा। लोकतंत्र एक सिद्धांत है और यह सोचना कि वह किसी मामले में तो लोकतंत्र की आवाज उठाएगा और किसी में नहीं तो वह गफलत में है। स्टार न्यूज के मुंबई दफ्तर पर हमले के बाद पिछले दिनों दिल्ली के प्रेस क्लब में हुई विरोध सभा में चंद ही लोग जमा हो सके।
लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने के लिए पिछले वर्षों में जो कुछ हासिल किया उस पर तेजी से हमले हो रहे है। लोकतंत्र के मूल्यों पर हमले के लिए राष्ट्रवाद और शांति की आड़ ली जाती है। सत्ता मशीनरी बराबर इस किस्म की दुविधा पैदा करने की कोशिश करती है। राष्ट्र चाहिए या लोकतंत्र? लेकिन जागरूकता इसी में सिद्ध होती है कि वह दो में से एक के चुनाव करने के प्रश्न के तरीके को ही ध्वस्त कर दे। राष्ट्र अपनी व्यवस्था के लिए जाना जाता है। राष्ट्र की जब व्यवस्था ही लोकतांत्रिक नहीं होगी तो उसका क्या अर्थ रह जाता है? लगातार शांतिपूर्ण संघर्षों की उपेक्षा जानबूझकर की जा रही है। उन बुद्धिजीवियों को ठिकाने लगाने का है जो जन संघर्षों के साथ रहते हैं। छत्तीसगढ़ भारतीय समाज व्यवस्था की भविष्य की नीति की जमीन तैयार कर रहा है। देश का बड़ा हिस्सा आदिवासियों जैसा ही होता जा रहा है। यह सोचना कि वहां आदिवासी मारे जा रहे हैं, ऐसा नहीं है। आदिवासी जैसे हालात में रहने वाले लोग मारे जा रहे हैं।
Entry filed under: आओ बहसियाएं, खबर पर नज़र.
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