एक मुलाकात लतिका रेणु से
एक ठुमरीधर्मा जीवन का अंतर्मार्ग
रेयाज-उल-हक
राजेंद्रनगर के ब्लॉक नंबर दो में पटना इंप्रूवमेंट ट्रस्ट का एक पुराना मकान. दूसरी मंजिल पर हरे रंग का एक दरवाजा. जंग लगा एक पुराना नेम प्लेट लगा है- फणीश्वरनाथ रेणु .
एक झुर्रीदार चेहरेवाली औसत कद की एक बूढ़ी महिला दरवाजा खोलती हैं-लतिका रेणु. रेणु जी की पत्नी. मेरे साथ गये बांग्ला कवि विश्वजीत सेन को देख कर कुछ याद करने की कोशिश करती हैं. वे हमें अंदर ले जाती हैं.
कमरे में विधानचंद्र राय, नेहरू और रेणु जी की तसवीर. 1994 का एक पुराना कैलेंडर. किताबों और नटराज की प्रतिमा पर धूल जमी है. बाहर फोटो टंगे हैं-रेणु और उनके मित्रों के. घर में लगता है, रेणु का समय अब भी बचा हुआ है. एक ओर कटी सब्जी का कटोरा रखा हुआ है-शायद वे सब्जी काट रही थीं. बातें शुरू होती हैं. वे रेणु जी पर प्राय: बात नहीं करना चाहतीं. अगर मेरे साथ विश्वजीत दा नहीं होते तो उनसे बात कर पाना मुश्किल था. पुराना परिचय है उनका. काफी कुछ दिया है इस महिला ने रेणु को. प्रकारांतर से हिंदी साहित्य को. हजारीबाग के सेंट कोलंबस कॉलेज के एक प्रोफेसर की बेटी लतिका जी इंटर करने के बाद पटना आयी थीं-नर्सिंग की ट्रेनिंग के लिए. फिर पटना की ही होकर रह गयीं. पटना मेडिकल कॉलेज में ही भेंट हुई फणीश्वरनाथ रेणु से. उनके फेफड़ों में तकलीफ थी. नेपाल में राणाशाही के खिलाफ संघर्ष में शामिल थे रेणु. एक बार वे गिर गये और पुलिस ने उनकी पीठ को अपने बूटों से रौंद डाला था. तब से खराब हो गये फेफ ड़े. खून की उल्टी तभी से शुरू हुई.
लतिका जी उन दिनों को याद करते हुए कभी उदास होती हैं, कभी हंसती हैं, वैसी हंसी जैसी जुलूस की पवित्रा हंसती है. ट्रेनिंग खत्म होने के बाद पटना में ही गर्दनीबाग में चाइल्ड वेल्फेयर सेंटर में नियुक्ति हुई. छह माह बाद सब्जीबाग के सिफ्टन चाइल्ड वेल्फेयर सेंटर में आ गयीं. तब तक रेणु जी से उनकी शादी हो चुकी थी. रेणु जी ने उन्हें बताया नहीं कि उनकी एक पत्नी औराही हिंगना में भी हैं. शादी के काफी समय बाद जब वे पूर्णिया उनके घर गयीं तो पता चला. इस पर वे नाराज भी हुईं, पर मान गयीं.
इस रचना को देशबंधु पर भी पढें.
लतिका जी शादी से जुड़े इन प्रसंगों को याद नहीं करना चाहतीं. काफी कटु अनुभव हैं उनके. रेणु जी के पुत्र ने उनकी किताबों का उत्तराधिकार उनसे छीन लिया. वह यह फ्लैट भी ले लेना चाहता था, जिसमें अभी वे हैं और जिसे उन्होंने अपने पैसे से खरीदा था. रेणु जी ने इस फ्लैट के आधार पर 20000 रुपये कर्ज लिये थे बैंक से. बैंक ने कहा कि जो पैसे चुका देगा फ्लैट उसका. लतिका जी ने कैसे-कैसे वे पैसे चुकाये और फ्लैट हासिल किया.
वे भुला दी गयी हैं. अब उन किताबों पर उनका कोई अधिकार नहीं रहा, जिनकी रचना से लेकर प्रकाशन तक में उनका इतना योगदान रहा. मैला आंचल के पहले प्रकाशक ने प्रकाशन से हाथ खींच लिया, कहा कि पहले पूरा पैसा जमा करो. लतिका जी ने दो हजार दिये तब किताब छपी. नेपाल के बीपी कोइराला को किताब की पहली प्रति भेंट की गयी. उसका विमोचन सिफ्टन सेंटर में ही सुशीला कोइराला ने किया.
इसके बाद, जब उसे राजकमल प्रकाशन ने छापा तो उस पर देश भर में चर्चा होने लगी. लतिका जी बताती हैं कि रेणु दिन में कभी नहीं लिखते, घूमते रहते और गपशप करते. हमेशा रात में लिखते, मुसहरी लगा कर. इसी में उनका हेल्थ खराब हुआ. लिख लेते तो कहते-सारा काम छोड़ कर सुनो. बीच में टोकाटाकी मंजूर नहीं थी उन्हें. कितना भी काम हो वे नहीं मानते. अगर कह दिया कि अभी काम है तो गुस्सा जाते, कहते हम नहीं बोलेंगे जाओ. फिर उस दिन खाना भी नहीं खाते. जब तीसरी कसम फिल्म बन रही थी तो रेणु मुंबई गये. उनकी बीमारी का टेलीग्राम पाकर वे अकेली मुंबई गयीं. मगर रेणु ठीक थे. वहां उन्होंने फिल्म का प्रेस शो देखा. तीसरी कसम पूरी हुई. लतिका जी ने पटना के वीणा सिनेमा में रेणु जी के साथ फ़िल्म देखी. उसके बाद कभी नहीं देखी तीसरी कसम.
रेणु के निधन के बाद उनके परिवारवालों से नाता लगभग टूट ही गया. उनकी एक बेटी कभी आ जाती है मिलने. गांववाली पत्नी भी पटना आती हैं तो आ जाती हैं मिलने, पर लगाव कभी नहीं हुआ. नर्सिंग का काम छोड़ने के बाद कई स्कूलों में पढ़ाती रही हैं. अब घर पर खाली हैं. आय का कोई जरिया नहीं है. बिहार राष्ट्रभाषा परिषद 700 रुपये प्रतिमाह देता है, पर वह भी साल भर-छह महीने में कभी एक बार. पूछने पर कि इतने कम में कैसे काम चलता है, वे हंसने लगती हैं-चल ही जाता है.
अब वे कहीं आती-जाती नहीं हैं. किताबें पढ़ती रहती हैं, रेणु की भी. सबसे अधिक मैला आंचल पसंद है और उसका पात्र डॉ प्रशांत. अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में अनुदित रेणु की किताबें हैं लतिका जी के पास. खाली समय में बैठ कर उनको सहेजती हैं, जिल्दें लगाती हैं. लतिका जी ने अपने जीवन के बेहतरीन साल रेणु को दिये. अब 80 पार की अपनी उम्र में वे न सिर्फ़ अकेली हैं, बल्कि लगभग शक्तिहीन भी. उनकी सुधि लेनेवाला कोई नहीं है. रेणु के पुराने मित्र भी अब नहीं आते.
एक ऐसी औरत के लिए जिसने हिंदी साहित्य की अमर कृतियों के लेखन और प्रकाशन में इतनी बड़ी भूमिका निभायी, सरकार के पास नियमित रूप से देने के लिए 700 रुपये तक नहीं हैं. हाल ही में पटना फिल्म महोत्सव में तीसरी कसम दिखायी गयी. किसी ने लतिका जी को पूछा तक नहीं. शायद सब भूल चुके हैं उन्हें, वे सब जिन्होंने रेणु और उनके लेखन से अपना भविष्य बना लिया. एक लेखक और उसकी विरासत के लिए हमारे समाज में इतनी संवेदना भी नहीं बची है.
एक मुलाकात लतिका रेणु से
एक ठुमरीधर्मा जीवन का अंतर्मार्ग
रेयाज-उल-हक
राजेंद्रनगर के ब्लॉक नंबर दो में पटना इंप्रूवमेंट ट्रस्ट का एक पुराना मकान. दूसरी मंजिल पर हरे रंग का एक दरवाजा. जंग लगा एक पुराना नेम प्लेट लगा है- फणीश्वरनाथ रेणु .
एक झुर्रीदार चेहरेवाली औसत कद की एक बूढ़ी महिला दरवाजा खोलती हैं-लतिका रेणु. रेणु जी की पत्नी. मेरे साथ गये बांग्ला कवि विश्वजीत सेन को देख कर कुछ याद करने की कोशिश करती हैं. वे हमें अंदर ले जाती हैं.
कमरे में विधानचंद्र राय, नेहरू और रेणु जी की तसवीर. 1994 का एक पुराना कैलेंडर. किताबों और नटराज की प्रतिमा पर धूल जमी है. बाहर फोटो टंगे हैं-रेणु और उनके मित्रों के. घर में लगता है, रेणु का समय अब भी बचा हुआ है. एक ओर कटी सब्जी का कटोरा रखा हुआ है-शायद वे सब्जी काट रही थीं. बातें शुरू होती हैं. वे रेणु जी पर प्राय: बात नहीं करना चाहतीं. अगर मेरे साथ विश्वजीत दा नहीं होते तो उनसे बात कर पाना मुश्किल था. पुराना परिचय है उनका. काफी कुछ दिया है इस महिला ने रेणु को. प्रकारांतर से हिंदी साहित्य को. हजारीबाग के सेंट कोलंबस कॉलेज के एक प्रोफेसर की बेटी लतिका जी इंटर करने के बाद पटना आयी थीं-नर्सिंग की ट्रेनिंग के लिए. फिर पटना की ही होकर रह गयीं. पटना मेडिकल कॉलेज में ही भेंट हुई फणीश्वरनाथ रेणु से. उनके फेफड़ों में तकलीफ थी. नेपाल में राणाशाही के खिलाफ संघर्ष में शामिल थे रेणु. एक बार वे गिर गये और पुलिस ने उनकी पीठ को अपने बूटों से रौंद डाला था. तब से खराब हो गये फेफ ड़े. खून की उल्टी तभी से शुरू हुई.
लतिका जी उन दिनों को याद करते हुए कभी उदास होती हैं, कभी हंसती हैं, वैसी हंसी जैसी जुलूस की पवित्रा हंसती है. ट्रेनिंग खत्म होने के बाद पटना में ही गर्दनीबाग में चाइल्ड वेल्फेयर सेंटर में नियुक्ति हुई. छह माह बाद सब्जीबाग के सिफ्टन चाइल्ड वेल्फेयर सेंटर में आ गयीं. तब तक रेणु जी से उनकी शादी हो चुकी थी. रेणु जी ने उन्हें बताया नहीं कि उनकी एक पत्नी औराही हिंगना में भी हैं. शादी के काफी समय बाद जब वे पूर्णिया उनके घर गयीं तो पता चला. इस पर वे नाराज भी हुईं, पर मान गयीं.
इस रचना को देशबंधु पर भी पढें.
लतिका जी शादी से जुड़े इन प्रसंगों को याद नहीं करना चाहतीं. काफी कटु अनुभव हैं उनके. रेणु जी के पुत्र ने उनकी किताबों का उत्तराधिकार उनसे छीन लिया. वह यह फ्लैट भी ले लेना चाहता था, जिसमें अभी वे हैं और जिसे उन्होंने अपने पैसे से खरीदा था. रेणु जी ने इस फ्लैट के आधार पर 20000 रुपये कर्ज लिये थे बैंक से. बैंक ने कहा कि जो पैसे चुका देगा फ्लैट उसका. लतिका जी ने कैसे-कैसे वे पैसे चुकाये और फ्लैट हासिल किया.
वे भुला दी गयी हैं. अब उन किताबों पर उनका कोई अधिकार नहीं रहा, जिनकी रचना से लेकर प्रकाशन तक में उनका इतना योगदान रहा. मैला आंचल के पहले प्रकाशक ने प्रकाशन से हाथ खींच लिया, कहा कि पहले पूरा पैसा जमा करो. लतिका जी ने दो हजार दिये तब किताब छपी. नेपाल के बीपी कोइराला को किताब की पहली प्रति भेंट की गयी. उसका विमोचन सिफ्टन सेंटर में ही सुशीला कोइराला ने किया.
इसके बाद, जब उसे राजकमल प्रकाशन ने छापा तो उस पर देश भर में चर्चा होने लगी. लतिका जी बताती हैं कि रेणु दिन में कभी नहीं लिखते, घूमते रहते और गपशप करते. हमेशा रात में लिखते, मुसहरी लगा कर. इसी में उनका हेल्थ खराब हुआ. लिख लेते तो कहते-सारा काम छोड़ कर सुनो. बीच में टोकाटाकी मंजूर नहीं थी उन्हें. कितना भी काम हो वे नहीं मानते. अगर कह दिया कि अभी काम है तो गुस्सा जाते, कहते हम नहीं बोलेंगे जाओ. फिर उस दिन खाना भी नहीं खाते. जब तीसरी कसम फिल्म बन रही थी तो रेणु मुंबई गये. उनकी बीमारी का टेलीग्राम पाकर वे अकेली मुंबई गयीं. मगर रेणु ठीक थे. वहां उन्होंने फिल्म का प्रेस शो देखा. तीसरी कसम पूरी हुई. लतिका जी ने पटना के वीणा सिनेमा में रेणु जी के साथ फ़िल्म देखी. उसके बाद कभी नहीं देखी तीसरी कसम.
रेणु के निधन के बाद उनके परिवारवालों से नाता लगभग टूट ही गया. उनकी एक बेटी कभी आ जाती है मिलने. गांववाली पत्नी भी पटना आती हैं तो आ जाती हैं मिलने, पर लगाव कभी नहीं हुआ. नर्सिंग का काम छोड़ने के बाद कई स्कूलों में पढ़ाती रही हैं. अब घर पर खाली हैं. आय का कोई जरिया नहीं है. बिहार राष्ट्रभाषा परिषद 700 रुपये प्रतिमाह देता है, पर वह भी साल भर-छह महीने में कभी एक बार. पूछने पर कि इतने कम में कैसे काम चलता है, वे हंसने लगती हैं-चल ही जाता है.
अब वे कहीं आती-जाती नहीं हैं. किताबें पढ़ती रहती हैं, रेणु की भी. सबसे अधिक मैला आंचल पसंद है और उसका पात्र डॉ प्रशांत. अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में अनुदित रेणु की किताबें हैं लतिका जी के पास. खाली समय में बैठ कर उनको सहेजती हैं, जिल्दें लगाती हैं. लतिका जी ने अपने जीवन के बेहतरीन साल रेणु को दिये. अब 80 पार की अपनी उम्र में वे न सिर्फ़ अकेली हैं, बल्कि लगभग शक्तिहीन भी. उनकी सुधि लेनेवाला कोई नहीं है. रेणु के पुराने मित्र भी अब नहीं आते.
एक ऐसी औरत के लिए जिसने हिंदी साहित्य की अमर कृतियों के लेखन और प्रकाशन में इतनी बड़ी भूमिका निभायी, सरकार के पास नियमित रूप से देने के लिए 700 रुपये तक नहीं हैं. हाल ही में पटना फिल्म महोत्सव में तीसरी कसम दिखायी गयी. किसी ने लतिका जी को पूछा तक नहीं. शायद सब भूल चुके हैं उन्हें, वे सब जिन्होंने रेणु और उनके लेखन से अपना भविष्य बना लिया. एक लेखक और उसकी विरासत के लिए हमारे समाज में इतनी संवेदना भी नहीं बची है.
फ्रांस : सरकोजी की जीत का मतलब
हरि किशोर सिंह
फ़्रांस में राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव पर पूरे विश्व की नजर थी. सिर्फ इसलिए नहीं कि फ्रांस के इतिहास में सत्ता के सर्वोच्च् पद पर पहली बार किसी महिला के स्थापित होने की संभावना थी, बल्कि इसलिए भी नजर थी कि फ्रांस इस दफा अनुदारपंथियों के चंगुल से छुटकारा पा सकेगा या नहीं. 1958 में पांचवें गणतंत्र के गठन के बाद फांसवां मित्तरां के अलावा कोई उदारवादी प्रगतिशील, समाजवादी नेता इस पद पर आसीन नहीं हो पाया था. मित्तरां के बाद बीते 12 वर्ष से इस पद पर अनुदार (कंजरवेटिव) जॉक शिराक का आधिपत्य रहा. वे तीसरी बार भी राष्ट्रपति बनने की इच्छा रखते थे. लेकिन इसके लिए पर्याप्त् माहौल के अभाव में उन्होंने गृह मंत्री सरकोजी के लिए मैदान खुला छोड़ दिया था. इस प्रकार निकोलस सरकोजी के लिए पूरे दक्षिणपंथ के समर्थन का खुला द्वार मिला, जिससे द्वितीय मतदान में उन्हें अपने समाजवादी प्रतिद्वंद्वी सेगल रोयाल को प्रभावशाली बहुमत से पराजित करने का अवसर मिल गया.
हंगेरियन पिता और ग्रीक-यहूदी मां के पुत्र 51 वर्षीय सरकोजी अपने दृढ़ विचार और अविलंब कार्रवाई के लिए प्रसिद्ध रहे हैं. जर्मन फासीवाद से आक्रांत उनके पिता 1941 में हंगरी से पलायन कर फ्रांस में आ बसे थे. लेकिन पुत्र सरकोजी आव्रजन के संबंध में कठोर नीति के लिए काफी मशहूर रहे हैं. पिछले वर्षोंा में पेरिस के उपनगर में नस्लभेद के प्रश्न पर हुए दंगों को भी उन्होंने गृह मंत्री की हैसियत से काफी कठोरता से नियंत्रित करने में सफलता प्राप्त् की थी. इस कारण इन इलाकों में दंगे की आशंका से प्रशासन भयभीत था. इसलिए भारी संख्या में दंगा दमन दल और सेना की टुक़़डियों की भारी तैनाती की गयी थी. इस चुनाव में लगभग 85 फीसदी मतदाताआें ने हिस्सा लिया था और चुनाव परिणाम की घोषणा के बाद पेरिस सहित फ्रांस के विभिन्न शहरों में जश्न के माहौल से स्पष्ट है कि निकोलस सरकोजी का राष्ट्रपति काल अपने दक्षिणपंथी रुझान के लिए प्रसिद्धि प्राप्त् करने के लिए सचेष्ट रहेगा. निकोलस सरकोजी फ्रांस की राष्ट्रीय अस्मिता की आव्रजक नीति में कठोरता, कर में छूट और सामाजिक सुरक्षा के मद में दी जाने वाली सुविधाआें में भारी कटौती, नयी कार्य संस्कृति और भारी भरकम फ्रांस की प्रशासकीय ढांचे में प्रभावशाली सुधार पर हर प्रकार के प्रयास के लिए पहल करने में जरा भी नहीं हिचकेंगे.
विदेश नीति के संदर्भ में यूरोपीय संगठन की एकता और अमेरिका से दोस्ताना संबंधों की प्रगाढ़ता होगी. साथ ही फ्रेंच भाषी उत्तरी और पश्चिमी अफ्रीकी देशों से गहरे आर्थिक संबंधों को ठोस रूप देने का भी उनका प्रयास रहेगा. विजय की घोषणा के बाद उन्होंने अपने संक्षिप्त् भाषण में वाशिंगटन के प्रति मित्रता का उद्गार व्यक्त करने में जरा भी कोताही नहीं की. उन्होंने स्पष्ट तौर पर घोषणा की कि अब अमेरिका फ्रांस को अपना एक विश्वसनीय दोस्त के रूप में देख सकेगा. उनका स्पष्ट संकेत राष्ट्रपति जॉक शिराक द्वारा इराक पर अमेरिकी आक्रमण के विरोध की ओर था. मगर उन्होंने ग्लोबल वार्मिंग के प्रति अमेरिकी नेतृत्व से अपेक्षा के संबंध में भी अपनी भावना उजागर की है. स्पष्ट है कि अब फ्रांस पर्यावरण के संबंध में क्योटो घोषणा पत्र को लागू कराने में प्रयासरत रहेगा. फिर भी अंतरराष्ट्रीय मंचों विशेषतौर पर संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद के स्तर पर फ्रांस जो स्वतंत्र रूप से निर्णय लिया करता था, अब अमेरिकी नीति से प्रभावित रहेगा.
विकासशील देशों के लिए निकोलस सरकोजी का राष्ट्रपति बनना बहुत शुभ नहीं कही जा सकता. भारत और चीन को व्यापारिक क्षेत्र में नयी व्यवस्था के अंतर्गत काफी कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि चुनाव अभियान के दौरान निकोलस ने यह पूरी तरह स्पष्ट कर दिया था कि विजय की स्थिति में उनकी सरकार चीन और भारत के माल के खिलाफ आयात कर में भारी वृद्धि कर अपने देश की उत्पादित वस्तुआें का बचाव करेंगे. उनका कहना है कि ये देश फ्रांस के बाजार में अपने देश की उत्पादित वस्तुआें को सस्ते दर पर निर्यात करते हैं, अत: फ्रांस सरकार को यह अधिकार है कि वह स्वदेशी माल की रक्षा में करे.
निश्चय ही यह विश्व व्यापार में खुलेपन के लिए एक स्पष्ट चुनौती होगी, जिसका भारत और चीन को संयुक्त रूप से सामना करना पड़ेगा. अत: भारत को नये राष्ट्रपति की रीति नीति के प्रति सावधानी बरतनी पड़ेगी. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता के प्रति फ्रांस की पिछली सरकार काफी उत्साहित थी. अब देखना है कि नयी सरकार इस संबंध में क्या नीति अपनाती है. इसी प्रकार भारत की आणविक क्लब की सदस्यता का सवाल है, इस संदर्भ में जॉक शिराक भारत के एक अति उत्साही समर्थक माने जाते थे. देखना है कि नयी सरकार का इस संबंध में क्या रुख होता है.
निकोलस सरकोजी की चुनावी सफलता से एक बात स्पष्ट हो गयी है कि जर्मनी के पिछले चुनाव में दक्षिणपंथियों की सफलता से अनुदारपंथियों की सफलता की जो शुरुआत हुई थी, वह अब फ्रांस की राजनीति में प्रभावशाली तौर पर अपनी जड़ें जमा चुकी है. शीघ्र ही ब्रिटेन में भी नेतृत्व परिवर्तन होनेवाला है. अभी तक जॉर्ज ब्राउन का 10, डाउनिंग स्ट्रीट में जाना तय माना जा रहा है. उनकी भी लेबर पार्टी में बहुत उदारवादी छवि नहीं है. ब्रिटेन में स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम ने कंजरवेटिव पार्टी को काफी प्रोत्साहित किया है. लेबर पार्टी की त्रासदी देखने लायक है. फिलहाल फ्रांस में संसदीय चुनाव अगले छह सप्तहों में होनेवाले हैं. अगर उन चुनावों में भी अनुदारपंथियों का बोलबाला रहा तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि जर्मनी से दक्षिणपंथी शुरुआत का असर यूरोपीय राजनीति पर और भी व्यापक होगा.
विरोध पक्ष की नेता सेगल रोयाल ने भी चुनाव में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी थी. इसलिए समाजवादियों में आयी हताशा स्वाभाविक है. इस चुनाव परिणाम ने वामपंथियों की उम्मीदों पर पूरी तरह पानी फेर दिया है. यूरोप में आयी समृद्धि के असर से वामपंथी विचारधारा के प्रति आम जनता के आकर्षण में कमी आयी है. इस दृष्टि से यूरोप के समाजवादियों के लिए वर्तमान परिस्थिति काफी चुनौतीपूर्ण है. उन्हें अपने अस्तित्व की रक्षा के २१ वीं सदी की चुनौतियों के अनुकूल नीति अपनानी होगी.
मारग्रेट थैचर के नेतृत्व से लगातार विफलता पाने पर ब्रिटेन की लेबर पार्टी ने अपने नये नेता टोनी ब्लेयर के नेतृत्व में न्यू लेबर के सिद्धांत को अपना कर अरसे के बाद 10, डाउनिंग स्ट्रीट पर अपना आधिपत्य जमाया था. वे तीन बार आम चुनाव में लेबर पार्टी को सफलता की राह पर ले गये. परंतु इराक के संदर्भ में अमेरिकापरस्त नीति के कारण उनकी लोकप्रियता में भारी गिरावट आयी और पार्टी के अंदर उन पर पद त्याग करने का दबाव उत्तरोत्तर बढ़ता गया. उन्हें अपना पद छोड़ने की घोषणा करनी पड़ी और अब वे 5 जून को अपने पद से मुक्त हो रहे हैं. लेबर पार्टी के नये नेता चांसलर ऑफ एक्सचेकर जॉर्ज ब्राउन के लिए अपनी पार्टी की गिरती लोकप्रियता को न केवल विराम लगाना होगा, बल्कि उसे ब्रिटिश जनमानस में पुन: इस तरह प्रतिस्थापित करना होगा कि उसे फिर से शासन की पार्टी के तौर पर ब्रिटिश जनता के समक्ष पेश किया जा सके.
यूरोपीय समाजवादियों की इस त्रासदी और यूरोपीय जनता के रुझान से विकासशील देशों के जनतांत्रिक तत्वों को भी सबक लेना होगा. भारत जैसे देश में अभी 24 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने पर मजबूर हो रहे हैं. देश के विभिन्न हिस्सों में गरीबी तथा जीवन यापन के लिए रोजगार के अवसर की कमी से उत्पन्न समस्याआें के समाधान में व्यवस्था की विफलता ने ही हिंसात्मक आंदोलन को जन्म दिया है. नेपाल में जनतांत्रिक, वामपंथी एवं माओवादी तत्वों का आपसी समझौता इस दिशा में आशा की एक किरण के तौर पर दिखायी पड़ रहा है. उम्मीद की जानी चाहिए कि नेपाल में चल रहे प्रयास को सफलता मिलेगी. जहां तक फ्रांस की नयी सरकार का प्रश्न है, विकासशील दुनिया को इंतजार करना पड़ेगा कि वह अपने पत्ते किस प्रकार खोलता है.
प्रभात खबर से साभार.
फ्रांस : सरकोजी की जीत का मतलब
हरि किशोर सिंह
फ़्रांस में राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव पर पूरे विश्व की नजर थी. सिर्फ इसलिए नहीं कि फ्रांस के इतिहास में सत्ता के सर्वोच्च् पद पर पहली बार किसी महिला के स्थापित होने की संभावना थी, बल्कि इसलिए भी नजर थी कि फ्रांस इस दफा अनुदारपंथियों के चंगुल से छुटकारा पा सकेगा या नहीं. 1958 में पांचवें गणतंत्र के गठन के बाद फांसवां मित्तरां के अलावा कोई उदारवादी प्रगतिशील, समाजवादी नेता इस पद पर आसीन नहीं हो पाया था. मित्तरां के बाद बीते 12 वर्ष से इस पद पर अनुदार (कंजरवेटिव) जॉक शिराक का आधिपत्य रहा. वे तीसरी बार भी राष्ट्रपति बनने की इच्छा रखते थे. लेकिन इसके लिए पर्याप्त् माहौल के अभाव में उन्होंने गृह मंत्री सरकोजी के लिए मैदान खुला छोड़ दिया था. इस प्रकार निकोलस सरकोजी के लिए पूरे दक्षिणपंथ के समर्थन का खुला द्वार मिला, जिससे द्वितीय मतदान में उन्हें अपने समाजवादी प्रतिद्वंद्वी सेगल रोयाल को प्रभावशाली बहुमत से पराजित करने का अवसर मिल गया.
हंगेरियन पिता और ग्रीक-यहूदी मां के पुत्र 51 वर्षीय सरकोजी अपने दृढ़ विचार और अविलंब कार्रवाई के लिए प्रसिद्ध रहे हैं. जर्मन फासीवाद से आक्रांत उनके पिता 1941 में हंगरी से पलायन कर फ्रांस में आ बसे थे. लेकिन पुत्र सरकोजी आव्रजन के संबंध में कठोर नीति के लिए काफी मशहूर रहे हैं. पिछले वर्षोंा में पेरिस के उपनगर में नस्लभेद के प्रश्न पर हुए दंगों को भी उन्होंने गृह मंत्री की हैसियत से काफी कठोरता से नियंत्रित करने में सफलता प्राप्त् की थी. इस कारण इन इलाकों में दंगे की आशंका से प्रशासन भयभीत था. इसलिए भारी संख्या में दंगा दमन दल और सेना की टुक़़डियों की भारी तैनाती की गयी थी. इस चुनाव में लगभग 85 फीसदी मतदाताआें ने हिस्सा लिया था और चुनाव परिणाम की घोषणा के बाद पेरिस सहित फ्रांस के विभिन्न शहरों में जश्न के माहौल से स्पष्ट है कि निकोलस सरकोजी का राष्ट्रपति काल अपने दक्षिणपंथी रुझान के लिए प्रसिद्धि प्राप्त् करने के लिए सचेष्ट रहेगा. निकोलस सरकोजी फ्रांस की राष्ट्रीय अस्मिता की आव्रजक नीति में कठोरता, कर में छूट और सामाजिक सुरक्षा के मद में दी जाने वाली सुविधाआें में भारी कटौती, नयी कार्य संस्कृति और भारी भरकम फ्रांस की प्रशासकीय ढांचे में प्रभावशाली सुधार पर हर प्रकार के प्रयास के लिए पहल करने में जरा भी नहीं हिचकेंगे.
विदेश नीति के संदर्भ में यूरोपीय संगठन की एकता और अमेरिका से दोस्ताना संबंधों की प्रगाढ़ता होगी. साथ ही फ्रेंच भाषी उत्तरी और पश्चिमी अफ्रीकी देशों से गहरे आर्थिक संबंधों को ठोस रूप देने का भी उनका प्रयास रहेगा. विजय की घोषणा के बाद उन्होंने अपने संक्षिप्त् भाषण में वाशिंगटन के प्रति मित्रता का उद्गार व्यक्त करने में जरा भी कोताही नहीं की. उन्होंने स्पष्ट तौर पर घोषणा की कि अब अमेरिका फ्रांस को अपना एक विश्वसनीय दोस्त के रूप में देख सकेगा. उनका स्पष्ट संकेत राष्ट्रपति जॉक शिराक द्वारा इराक पर अमेरिकी आक्रमण के विरोध की ओर था. मगर उन्होंने ग्लोबल वार्मिंग के प्रति अमेरिकी नेतृत्व से अपेक्षा के संबंध में भी अपनी भावना उजागर की है. स्पष्ट है कि अब फ्रांस पर्यावरण के संबंध में क्योटो घोषणा पत्र को लागू कराने में प्रयासरत रहेगा. फिर भी अंतरराष्ट्रीय मंचों विशेषतौर पर संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद के स्तर पर फ्रांस जो स्वतंत्र रूप से निर्णय लिया करता था, अब अमेरिकी नीति से प्रभावित रहेगा.
विकासशील देशों के लिए निकोलस सरकोजी का राष्ट्रपति बनना बहुत शुभ नहीं कही जा सकता. भारत और चीन को व्यापारिक क्षेत्र में नयी व्यवस्था के अंतर्गत काफी कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि चुनाव अभियान के दौरान निकोलस ने यह पूरी तरह स्पष्ट कर दिया था कि विजय की स्थिति में उनकी सरकार चीन और भारत के माल के खिलाफ आयात कर में भारी वृद्धि कर अपने देश की उत्पादित वस्तुआें का बचाव करेंगे. उनका कहना है कि ये देश फ्रांस के बाजार में अपने देश की उत्पादित वस्तुआें को सस्ते दर पर निर्यात करते हैं, अत: फ्रांस सरकार को यह अधिकार है कि वह स्वदेशी माल की रक्षा में करे.
निश्चय ही यह विश्व व्यापार में खुलेपन के लिए एक स्पष्ट चुनौती होगी, जिसका भारत और चीन को संयुक्त रूप से सामना करना पड़ेगा. अत: भारत को नये राष्ट्रपति की रीति नीति के प्रति सावधानी बरतनी पड़ेगी. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता के प्रति फ्रांस की पिछली सरकार काफी उत्साहित थी. अब देखना है कि नयी सरकार इस संबंध में क्या नीति अपनाती है. इसी प्रकार भारत की आणविक क्लब की सदस्यता का सवाल है, इस संदर्भ में जॉक शिराक भारत के एक अति उत्साही समर्थक माने जाते थे. देखना है कि नयी सरकार का इस संबंध में क्या रुख होता है.
निकोलस सरकोजी की चुनावी सफलता से एक बात स्पष्ट हो गयी है कि जर्मनी के पिछले चुनाव में दक्षिणपंथियों की सफलता से अनुदारपंथियों की सफलता की जो शुरुआत हुई थी, वह अब फ्रांस की राजनीति में प्रभावशाली तौर पर अपनी जड़ें जमा चुकी है. शीघ्र ही ब्रिटेन में भी नेतृत्व परिवर्तन होनेवाला है. अभी तक जॉर्ज ब्राउन का 10, डाउनिंग स्ट्रीट में जाना तय माना जा रहा है. उनकी भी लेबर पार्टी में बहुत उदारवादी छवि नहीं है. ब्रिटेन में स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम ने कंजरवेटिव पार्टी को काफी प्रोत्साहित किया है. लेबर पार्टी की त्रासदी देखने लायक है. फिलहाल फ्रांस में संसदीय चुनाव अगले छह सप्तहों में होनेवाले हैं. अगर उन चुनावों में भी अनुदारपंथियों का बोलबाला रहा तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि जर्मनी से दक्षिणपंथी शुरुआत का असर यूरोपीय राजनीति पर और भी व्यापक होगा.
विरोध पक्ष की नेता सेगल रोयाल ने भी चुनाव में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी थी. इसलिए समाजवादियों में आयी हताशा स्वाभाविक है. इस चुनाव परिणाम ने वामपंथियों की उम्मीदों पर पूरी तरह पानी फेर दिया है. यूरोप में आयी समृद्धि के असर से वामपंथी विचारधारा के प्रति आम जनता के आकर्षण में कमी आयी है. इस दृष्टि से यूरोप के समाजवादियों के लिए वर्तमान परिस्थिति काफी चुनौतीपूर्ण है. उन्हें अपने अस्तित्व की रक्षा के २१ वीं सदी की चुनौतियों के अनुकूल नीति अपनानी होगी.
मारग्रेट थैचर के नेतृत्व से लगातार विफलता पाने पर ब्रिटेन की लेबर पार्टी ने अपने नये नेता टोनी ब्लेयर के नेतृत्व में न्यू लेबर के सिद्धांत को अपना कर अरसे के बाद 10, डाउनिंग स्ट्रीट पर अपना आधिपत्य जमाया था. वे तीन बार आम चुनाव में लेबर पार्टी को सफलता की राह पर ले गये. परंतु इराक के संदर्भ में अमेरिकापरस्त नीति के कारण उनकी लोकप्रियता में भारी गिरावट आयी और पार्टी के अंदर उन पर पद त्याग करने का दबाव उत्तरोत्तर बढ़ता गया. उन्हें अपना पद छोड़ने की घोषणा करनी पड़ी और अब वे 5 जून को अपने पद से मुक्त हो रहे हैं. लेबर पार्टी के नये नेता चांसलर ऑफ एक्सचेकर जॉर्ज ब्राउन के लिए अपनी पार्टी की गिरती लोकप्रियता को न केवल विराम लगाना होगा, बल्कि उसे ब्रिटिश जनमानस में पुन: इस तरह प्रतिस्थापित करना होगा कि उसे फिर से शासन की पार्टी के तौर पर ब्रिटिश जनता के समक्ष पेश किया जा सके.
यूरोपीय समाजवादियों की इस त्रासदी और यूरोपीय जनता के रुझान से विकासशील देशों के जनतांत्रिक तत्वों को भी सबक लेना होगा. भारत जैसे देश में अभी 24 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने पर मजबूर हो रहे हैं. देश के विभिन्न हिस्सों में गरीबी तथा जीवन यापन के लिए रोजगार के अवसर की कमी से उत्पन्न समस्याआें के समाधान में व्यवस्था की विफलता ने ही हिंसात्मक आंदोलन को जन्म दिया है. नेपाल में जनतांत्रिक, वामपंथी एवं माओवादी तत्वों का आपसी समझौता इस दिशा में आशा की एक किरण के तौर पर दिखायी पड़ रहा है. उम्मीद की जानी चाहिए कि नेपाल में चल रहे प्रयास को सफलता मिलेगी. जहां तक फ्रांस की नयी सरकार का प्रश्न है, विकासशील दुनिया को इंतजार करना पड़ेगा कि वह अपने पत्ते किस प्रकार खोलता है.
प्रभात खबर से साभार.
महाश्वेता देवी की एक ज़रूरी अपील : यह आप सभी के लिए है
प्रख्यात लेखिका महाश्वेता देवी नंदीग्राम के शहीदों के नाम पर एक शहीद अस्पताल बनवाना चाहती हैं. इसके लिए उन्हें सभी संवेदनशील लोगों से मदद चाहिए. अगर आप डाक्टर या चिकित्सा सेवा से जुडे़/जुडी़ हैं तब और बेहतर है. इस सिलसिले में मुझे हाल ही में उनकी एक अपील मिली है जिसे मैं यहां डाल रहा हूं. अपील महाश्वेता देवी की हस्तलिपि में ही है. इसे (पीडीएफ़ में) डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें.
स्वनिर्मित चुनाव समीक्षक : एक्जिट पोल?
एक्जिट पोल?
एमजे अकबर
आप मिराज जहाज बेचकर कितना पैसा बना सकते हैं? शायद बहुत ज्यादा. फिर भी इसे टेलीविजन कैमरे के सामने छद्म तरीके से गंभीर मुखाकृति बनाकर ही साबित करने की कोशिश की जाती है. जब वास्तविक तथ्य सामने आते हैं, तो सबसे आसान तरीका होता है, वहां से बचकर निकल जाना. क्योंकि इससे आपके मोटे चेक पर कोई असर नहीं पड़ता. चुनाव समीक्षकों के भी वास्तविक बैंक बैलेंस पर अब तक नजर नहीं रखी गयी है. कोई यह अंदेशा लगा सकता है कि इन सारे उच्च् वेतनभोगी स्वनिर्मित चुनाव समीक्षक, जिन्होंने उत्तर प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा की भविष्यवाणी की थी, अपने लैंपपोस्ट से लटक गये होंगे. लेकिन इसमें मुझे संदेह ही है. इस तरह के जीवों की यह खासियत होती है कि वे कब्र से उठकर भी वापस आ सकते हैं. ये लोग इस बात से फायदा उठाते हैं कि ओपिनियन पोल दो तरह के होते हैं. दोनों पैसे बनाते हैं. सौभाग्य से धोखेबाज बहुत कम हंै, लेकिन लोगों की पहुंच से दूर भी नहीं है. राजनीतिज्ञों के साथ उनका गुप्त समझौता रहता है. वे ओपिनियन पोल के पीछे के रिसर्च को पैसा लगानेवालों के योग्य बनाते हैं और नतीजे को मोटी फीस लेकर प्रसारित करते हैं. राजनीतिज्ञ पैसा इसलिए देते हैं कि ओपिनियन पोल द्वारा मतदान के दौरान सकारात्मक माहौल बनाया जा सके. चुनाव पैसा बनाने का खेल हो गया है. जबसे एक्जिट पोल और ओपिनियन पोल टेलीविजन पर आने लगे हैं, न्यूज चैनलों को विज्ञापन बहुत ज्यादा मिलने लगा है. हमलोग यानी प्रिंट मीडिया ओपिनियन पोल से सबसे ज्यादा बुद्धू बने हैं, क्योंकि हम बिना किसी विज्ञापन के इसके नतीजे छापते हैं. चुनाव आयोग अब चुनाव के छोटे से छोटे विवरण को कंट्रोल में रखता है. उत्तर प्रदेश का चुनाव जो कि एक माह से ज्यादा खिंचा, एक तरीके से दृढ़ता और धैर्य का ही प्रतीक था. चुनाव परिणाम का प्रबंधन पारदर्शिता और ईमानदारी से घोषित किया गया, हालांकि कभी-कभी इसमें चुनाव आयोग का अनाधिकार प्रवेश भी था. कोई नहीं कह सकता है कि वोटिंग में तिकड़म हुआ या सत्ताधारी पार्टी द्वारा प्रशासन के सहयोग से बूथ लूटा गया. यद्यपि जनवरी में चुनाव में धांधली किये जाने के आरोप के आधार पर मुलायम की सरकार को बर्खास्त करने की कोशिशंे हुई थीं. लेकिन चुनाव आयोग भी ओपिनियन पोल के मुद्दे पर लाचार है. हाल ही में फ्रांस में आम चुनाव हुए हैं. एक्जिट पोल और ओपिनियन पोल को चुनाव पूर्व संध्या या चुनाव के दौरान प्रतिबंधित कर दिया गया था. जबसे यह खुद को ज्यादा सही साबित करने लगा है, एक्जिट पोल बहुत खतरनाक हो रहे हैं. लेकिन भ्रामक सूचनाआें को लगातार ये विश्वसनीय बनाने पर तुले रहते हैं. एक्जिट पोल में महारत हासिल करनेवाले चैनल का एक उदाहरण लेते हैं.
एनडीटीवी ने अपने अंतिम एक्जिट पोल के बाद बसपा को 117 से 127 सीटें दी थीं. एक्जिट पोल में तीन फीसदी गलती को लोग स्वीकार करते हैं, मगर 403 सीटोंवाली विधानसभा में 80 से 90 सीटों का अंतर आना बहुत ही आश्चर्यजनक है. दूसरी तरफ इसने कांग्रेस को 35 से 45 सीटें एक्जिट पोल में दी थीं,पर उसे पूर्वानुमान से आधी सीटें ही मिलीं. शायद एनडीटीवी ने उत्तर प्रदेश के बजाय दूसरे राज्य में अपना रिसर्च किया था. उसने भाजपा और उसके सहयोगी दलों को 108 से 118 सीटें मिलने का अनुमान किया था. भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह बहुत खुश होते यदि भाजपा को एनडीटीवी के अनुमान के मुताबिक सीटें मिलतीं. वास्तविकता यह है कि भाजपा को अनुमान से आधी सीटें ही मिलीं. दूसरे चैनल भी अच्छे नहीं रहे. स्टार टीवी ने भाजपा को 108 सीटें दी थीं. भाजपा और कांग्रेस खुद को राष्ट्रीय पार्टी मानती हैं, जिसे दिल्ली में बैठे कुछ लोग भी हवा देते रहते हैं. दोनों पार्टियां सपने देखा करती हैं कि देश में दो पार्टी सिस्टम हो, जिसमें सिर्फ वे दोनों ही हों. उत्तर प्रदेश में इन पार्टियों की स्थिति देखें. भाजपा के पास डेढ़ जिलों पर एक विधायक है, जबकि कांग्रेस के पास तीन जिलों पर एक. यदि आप रायबरेली और अमेठी को हटा दें, तो औसत और भी कम हो जायेगा. दोनों राष्टीय पार्टियां अपने अपने खेल रही थीं. भाजपा मुसलिमों के विरुद्ध घृणा फैलानेवाली सीडी बांट रही थी, जबकि कांग्रेस अपनी सभी ताकतों का इस्तेमाल एक परिवार के करिश्मे को भुनाने पर कर रही थी. यह जानना दिलचस्प है कि कैसे एलिट क्लास मायावती और मुलायम को पिछड़ा और एंटी मॉडर्न बता रहा था, जबकि कांग्रेस और भाजपा द्वारा मध्यकालीन राजनीति की जा रही थी. हिंदू और मुसलिम वोटर मायावती के चुनावी योजनाआें में शामिल थे. भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टी इस योग्य भी नहीं है कि वे उत्तर प्रदेश में नंबर दो की हैसियत रखें. मौलाना मुलायम आसानी से नंबर दो बनें. क्या उत्तर प्रदेश भाजपा को बढ़ाने में मदद करेगा? पांच साल तक यूपी में विपक्ष में रहने तथा तीन साल से दिल्ली में सत्ता में रहने के बावजूद कांग्रेस परिवार पिछली बार से तीन सीटें कम ही निकाल पाया. आप खुद ही निष्कर्ष निकाल सकते हैं, राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव में एक दिलचस्प पैटर्न देखने को मिल रहा है, जो राष्ट्रीय पार्टियों के लिए बुरी खबर हो सकती है, अगर यह आगामी आम चुनावों तक मौजूद रह जाता है. कांग्रेस और भाजपा, ज्यादातर जगहों पर जहां दूसरी पार्टियां नहीं हंै, एक-दूसरे से सीटों की अदला-बदली करती रहती हैं. मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़ और कुछ हद तक महाराष्ट्र जहां सहयोगी दलों के बीच लड़ाई चलती रहती है. उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, तमिलनाडु जैसे राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां काफी मजबूत हैं और राष्ट्रीय पार्टियां वहां पिछलग्गू बनी रहती हंै. बिहार में भाजपा को नीतीश कुमार की जरूरत होती है और कांग्रेस अगर झारखंड और हरियाणा में क्षेत्रीय पार्टियों को ज्यादा सीटें नहीं देगी, तो उसे हार का सामना करना पड़ेगा. कांग्रेस पार्टी पंजाब में शायद ही उभरकर सामने आये, यदि अकाली दल के अलावा किसी दूसरी क्षेत्रीय पार्टी का उदय वहां हो. महाराष्ट्र में कांग्रेस और शरद पवार को एक-दूसरे की आवश्यकता है. देवगौडा की पकड़ कर्नाटक में मजबूत है और एम करुणानिधि तमिलनाडु में कांग्रेस के वोटों पर अपनी सरकार बनाते हैं. भारतीय जनता पार्टी नवीन पटनायक के बिना ओड़िशा में मृतप्राय है. अगर पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादियों को कोई टक्कर दे रही है तो यह ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस है, जो कि एक क्षेत्रीय पार्टी ही है. भाजपा और कांगे्रस के लिए दायरे सिमट रहे हैं, जिसके लिए वे खुद ही दोषी हैं. कांग्रेस पार्टी आश्चर्यजनक रूप से एक ऐसी आर्थिक नीति को लागू करने की कोशिश कर रही है, जो कभी-कभी लगता है कि ये नीति वर्ल्ड बैंक के लिए है, न कि भारतीय मतदाताआें के लिए. भारतीय मतदाताआें की दो मांगें हैं- आर्थिक न्याय और सामाजिक सहयोग. यह दोनों भारत के लिए बेहद जरूरी है, अगर भारत को उम्मीद के मुताबिक विकास करना है. राजनीतिक दल अब मतदाताआें का नेतृत्व नहीं कर रहे हैं, बल्कि मतदाता उनकी सफलता के लिए मानक का निर्धारण कर रहे हैं. अब मतदाता राजनीतिक दलों से ज्यादा परिपक्व हो गये हैं और यह बेहतरीन खबर है. यद्यपि इससे ज्यादा खुशी की बात कुछ नहीं हो सकती कि आम मतदाता भी ओपिनियन पोल करनेवालों को मूर्ख बनाने लगे हैं. मैं मानता हूं कि ओपिनियन पोल के लिए हजारों लोगों से बात की जाती होगी, जैसा कि प्रचार में भी बार-बार इसकी विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए कहा जाता है. फिर भी यह कैसे बिना रुके हुए और हास्यास्पद ढंग से चल रहा है? बहुत ही साधारण बात है. मतदाता एक जवान लड़के को हाथ में प्रश्नों के फॉर्म लेकर आते देखता है, वह उसकी मदद इन प्रश्नों का जवाब देकर करता है, क्योंकि मतदाता जानता है कि यह लड़के की रोजी-रोटी का सवाल है. जवाब पाकर प्रश्न पूछनेवाला लड़का संतुष्ट होकर चला जाता है और उसके बाद जवाब देनेवाला मतदाता जोर-जोर से हंसने लगता है. उसे पता होता है कि उसने टेलीविजन से बदला ले लिया है.
महाश्वेता देवी की एक ज़रूरी अपील : यह आप सभी के लिए है
प्रख्यात लेखिका महाश्वेता देवी नंदीग्राम के शहीदों के नाम पर एक शहीद अस्पताल बनवाना चाहती हैं. इसके लिए उन्हें सभी संवेदनशील लोगों से मदद चाहिए. अगर आप डाक्टर या चिकित्सा सेवा से जुडे़/जुडी़ हैं तब और बेहतर है. इस सिलसिले में मुझे हाल ही में उनकी एक अपील मिली है जिसे मैं यहां डाल रहा हूं. अपील महाश्वेता देवी की हस्तलिपि में ही है. इसे (पीडीएफ़ में) डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें.
स्वनिर्मित चुनाव समीक्षक : एक्जिट पोल?
एक्जिट पोल?
एमजे अकबर
आप मिराज जहाज बेचकर कितना पैसा बना सकते हैं? शायद बहुत ज्यादा. फिर भी इसे टेलीविजन कैमरे के सामने छद्म तरीके से गंभीर मुखाकृति बनाकर ही साबित करने की कोशिश की जाती है. जब वास्तविक तथ्य सामने आते हैं, तो सबसे आसान तरीका होता है, वहां से बचकर निकल जाना. क्योंकि इससे आपके मोटे चेक पर कोई असर नहीं पड़ता. चुनाव समीक्षकों के भी वास्तविक बैंक बैलेंस पर अब तक नजर नहीं रखी गयी है. कोई यह अंदेशा लगा सकता है कि इन सारे उच्च् वेतनभोगी स्वनिर्मित चुनाव समीक्षक, जिन्होंने उत्तर प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा की भविष्यवाणी की थी, अपने लैंपपोस्ट से लटक गये होंगे. लेकिन इसमें मुझे संदेह ही है. इस तरह के जीवों की यह खासियत होती है कि वे कब्र से उठकर भी वापस आ सकते हैं. ये लोग इस बात से फायदा उठाते हैं कि ओपिनियन पोल दो तरह के होते हैं. दोनों पैसे बनाते हैं. सौभाग्य से धोखेबाज बहुत कम हंै, लेकिन लोगों की पहुंच से दूर भी नहीं है. राजनीतिज्ञों के साथ उनका गुप्त समझौता रहता है. वे ओपिनियन पोल के पीछे के रिसर्च को पैसा लगानेवालों के योग्य बनाते हैं और नतीजे को मोटी फीस लेकर प्रसारित करते हैं. राजनीतिज्ञ पैसा इसलिए देते हैं कि ओपिनियन पोल द्वारा मतदान के दौरान सकारात्मक माहौल बनाया जा सके. चुनाव पैसा बनाने का खेल हो गया है. जबसे एक्जिट पोल और ओपिनियन पोल टेलीविजन पर आने लगे हैं, न्यूज चैनलों को विज्ञापन बहुत ज्यादा मिलने लगा है. हमलोग यानी प्रिंट मीडिया ओपिनियन पोल से सबसे ज्यादा बुद्धू बने हैं, क्योंकि हम बिना किसी विज्ञापन के इसके नतीजे छापते हैं. चुनाव आयोग अब चुनाव के छोटे से छोटे विवरण को कंट्रोल में रखता है. उत्तर प्रदेश का चुनाव जो कि एक माह से ज्यादा खिंचा, एक तरीके से दृढ़ता और धैर्य का ही प्रतीक था. चुनाव परिणाम का प्रबंधन पारदर्शिता और ईमानदारी से घोषित किया गया, हालांकि कभी-कभी इसमें चुनाव आयोग का अनाधिकार प्रवेश भी था. कोई नहीं कह सकता है कि वोटिंग में तिकड़म हुआ या सत्ताधारी पार्टी द्वारा प्रशासन के सहयोग से बूथ लूटा गया. यद्यपि जनवरी में चुनाव में धांधली किये जाने के आरोप के आधार पर मुलायम की सरकार को बर्खास्त करने की कोशिशंे हुई थीं. लेकिन चुनाव आयोग भी ओपिनियन पोल के मुद्दे पर लाचार है. हाल ही में फ्रांस में आम चुनाव हुए हैं. एक्जिट पोल और ओपिनियन पोल को चुनाव पूर्व संध्या या चुनाव के दौरान प्रतिबंधित कर दिया गया था. जबसे यह खुद को ज्यादा सही साबित करने लगा है, एक्जिट पोल बहुत खतरनाक हो रहे हैं. लेकिन भ्रामक सूचनाआें को लगातार ये विश्वसनीय बनाने पर तुले रहते हैं. एक्जिट पोल में महारत हासिल करनेवाले चैनल का एक उदाहरण लेते हैं.
एनडीटीवी ने अपने अंतिम एक्जिट पोल के बाद बसपा को 117 से 127 सीटें दी थीं. एक्जिट पोल में तीन फीसदी गलती को लोग स्वीकार करते हैं, मगर 403 सीटोंवाली विधानसभा में 80 से 90 सीटों का अंतर आना बहुत ही आश्चर्यजनक है. दूसरी तरफ इसने कांग्रेस को 35 से 45 सीटें एक्जिट पोल में दी थीं,पर उसे पूर्वानुमान से आधी सीटें ही मिलीं. शायद एनडीटीवी ने उत्तर प्रदेश के बजाय दूसरे राज्य में अपना रिसर्च किया था. उसने भाजपा और उसके सहयोगी दलों को 108 से 118 सीटें मिलने का अनुमान किया था. भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह बहुत खुश होते यदि भाजपा को एनडीटीवी के अनुमान के मुताबिक सीटें मिलतीं. वास्तविकता यह है कि भाजपा को अनुमान से आधी सीटें ही मिलीं. दूसरे चैनल भी अच्छे नहीं रहे. स्टार टीवी ने भाजपा को 108 सीटें दी थीं. भाजपा और कांग्रेस खुद को राष्ट्रीय पार्टी मानती हैं, जिसे दिल्ली में बैठे कुछ लोग भी हवा देते रहते हैं. दोनों पार्टियां सपने देखा करती हैं कि देश में दो पार्टी सिस्टम हो, जिसमें सिर्फ वे दोनों ही हों. उत्तर प्रदेश में इन पार्टियों की स्थिति देखें. भाजपा के पास डेढ़ जिलों पर एक विधायक है, जबकि कांग्रेस के पास तीन जिलों पर एक. यदि आप रायबरेली और अमेठी को हटा दें, तो औसत और भी कम हो जायेगा. दोनों राष्टीय पार्टियां अपने अपने खेल रही थीं. भाजपा मुसलिमों के विरुद्ध घृणा फैलानेवाली सीडी बांट रही थी, जबकि कांग्रेस अपनी सभी ताकतों का इस्तेमाल एक परिवार के करिश्मे को भुनाने पर कर रही थी. यह जानना दिलचस्प है कि कैसे एलिट क्लास मायावती और मुलायम को पिछड़ा और एंटी मॉडर्न बता रहा था, जबकि कांग्रेस और भाजपा द्वारा मध्यकालीन राजनीति की जा रही थी. हिंदू और मुसलिम वोटर मायावती के चुनावी योजनाआें में शामिल थे. भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टी इस योग्य भी नहीं है कि वे उत्तर प्रदेश में नंबर दो की हैसियत रखें. मौलाना मुलायम आसानी से नंबर दो बनें. क्या उत्तर प्रदेश भाजपा को बढ़ाने में मदद करेगा? पांच साल तक यूपी में विपक्ष में रहने तथा तीन साल से दिल्ली में सत्ता में रहने के बावजूद कांग्रेस परिवार पिछली बार से तीन सीटें कम ही निकाल पाया. आप खुद ही निष्कर्ष निकाल सकते हैं, राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव में एक दिलचस्प पैटर्न देखने को मिल रहा है, जो राष्ट्रीय पार्टियों के लिए बुरी खबर हो सकती है, अगर यह आगामी आम चुनावों तक मौजूद रह जाता है. कांग्रेस और भाजपा, ज्यादातर जगहों पर जहां दूसरी पार्टियां नहीं हंै, एक-दूसरे से सीटों की अदला-बदली करती रहती हैं. मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़ और कुछ हद तक महाराष्ट्र जहां सहयोगी दलों के बीच लड़ाई चलती रहती है. उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, तमिलनाडु जैसे राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां काफी मजबूत हैं और राष्ट्रीय पार्टियां वहां पिछलग्गू बनी रहती हंै. बिहार में भाजपा को नीतीश कुमार की जरूरत होती है और कांग्रेस अगर झारखंड और हरियाणा में क्षेत्रीय पार्टियों को ज्यादा सीटें नहीं देगी, तो उसे हार का सामना करना पड़ेगा. कांग्रेस पार्टी पंजाब में शायद ही उभरकर सामने आये, यदि अकाली दल के अलावा किसी दूसरी क्षेत्रीय पार्टी का उदय वहां हो. महाराष्ट्र में कांग्रेस और शरद पवार को एक-दूसरे की आवश्यकता है. देवगौडा की पकड़ कर्नाटक में मजबूत है और एम करुणानिधि तमिलनाडु में कांग्रेस के वोटों पर अपनी सरकार बनाते हैं. भारतीय जनता पार्टी नवीन पटनायक के बिना ओड़िशा में मृतप्राय है. अगर पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादियों को कोई टक्कर दे रही है तो यह ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस है, जो कि एक क्षेत्रीय पार्टी ही है. भाजपा और कांगे्रस के लिए दायरे सिमट रहे हैं, जिसके लिए वे खुद ही दोषी हैं. कांग्रेस पार्टी आश्चर्यजनक रूप से एक ऐसी आर्थिक नीति को लागू करने की कोशिश कर रही है, जो कभी-कभी लगता है कि ये नीति वर्ल्ड बैंक के लिए है, न कि भारतीय मतदाताआें के लिए. भारतीय मतदाताआें की दो मांगें हैं- आर्थिक न्याय और सामाजिक सहयोग. यह दोनों भारत के लिए बेहद जरूरी है, अगर भारत को उम्मीद के मुताबिक विकास करना है. राजनीतिक दल अब मतदाताआें का नेतृत्व नहीं कर रहे हैं, बल्कि मतदाता उनकी सफलता के लिए मानक का निर्धारण कर रहे हैं. अब मतदाता राजनीतिक दलों से ज्यादा परिपक्व हो गये हैं और यह बेहतरीन खबर है. यद्यपि इससे ज्यादा खुशी की बात कुछ नहीं हो सकती कि आम मतदाता भी ओपिनियन पोल करनेवालों को मूर्ख बनाने लगे हैं. मैं मानता हूं कि ओपिनियन पोल के लिए हजारों लोगों से बात की जाती होगी, जैसा कि प्रचार में भी बार-बार इसकी विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए कहा जाता है. फिर भी यह कैसे बिना रुके हुए और हास्यास्पद ढंग से चल रहा है? बहुत ही साधारण बात है. मतदाता एक जवान लड़के को हाथ में प्रश्नों के फॉर्म लेकर आते देखता है, वह उसकी मदद इन प्रश्नों का जवाब देकर करता है, क्योंकि मतदाता जानता है कि यह लड़के की रोजी-रोटी का सवाल है. जवाब पाकर प्रश्न पूछनेवाला लड़का संतुष्ट होकर चला जाता है और उसके बाद जवाब देनेवाला मतदाता जोर-जोर से हंसने लगता है. उसे पता होता है कि उसने टेलीविजन से बदला ले लिया है.
राजेश जोशी की (नयी) कविताएं
एक कवि कहता है
नामुमकिन है यह बतलाना कि एक कवि
कविता के भीतर कितना और कितना रहता है
एक कवि है
जिसका चेहरा-मोहरा, ढाल-चाल और बातों का ढब भी
उसकी कविता से इतना ज्यादा मिलता-जुलता सा है
कि लगता है कि जैसे अभी-अभी दरवाजा खोल कर
अपनी कविता से बाहर निकला है
एक कवि जो अक्सर मुझसे कहता है
कि सोते समय उसके पांव अक्सर चादर
और मुहावरों से बाहर निकल आते हैं
सुबह-सुबह जब पांव पर मच्छरों के काटने की शिकायत करता है
दिक्कत यह है कि पांव अगर चादर में सिकोड़ कर सोये
तो उसकी पगथलियां गरम हो जाती हैं
उसे हमेशा डर लगा रहता है कि सपने में एकाएक
अगर उसे कहीं जाना पड़ा
तो हड़बड़ी में वह चादर में उलझ कर गिर जायेगा
मुहावरे इसी तरह क्षमताओं का पूरा प्रयोग करने से
आदमी को रोकते हैं
और मच्छरों द्वारा कवियों के काम में पैदा की गयी
अड़चनों के बारे में
अभी तक आलोचना में विचार नहीं किया गया
ले देकर अब कवियों से ही कुछ उम्मीद बची है
कि वे कविता की कई अलक्षित खूबियों
और दिक्कतों के बारे में भी सोचें
जिन पर आलोचना के खांचे के भीतर
सोचना निषिद्ध है
एक कवि जो अक्सर नाराज रहता है
बार-बार यह ही कहता है
बचो, बचो, बचो
ऐसे क्लास रूम के अगल-बगल से भी मत गुजरो
जहां हिंदी का अध्यापक कविता पढ़ा रहा हो
और कविता के बारे में राजेंद्र यादव की बात तो
बिलकुल मत सुनो.
प्रौद्योगिकी की माया
अचानक ही बिजली गुल हो गयी
और बंद हो गया माइक
ओह उस वक्ता की आवाज का जादू
जो इतनी देर से अपनी गिरफ्त में बांधे हुए था मुझे
कितनी कमजोर और धीमी थी वह आवाज
एकाएक तभी मैंने जाना
उसकी आवाज का शासन खत्म हुआ
तो उधड़ने लगी अब तक उसके बोले गये की परतें
हर जगह आकाश
बोले और सुने जा रहे के बीच जो दूरी है
वह एक आकाश है
मैं खूंटी से उतार कर एक कमीज पहनता हूं
और एक आकाश के भीतर घुस जाता हूं
मैं जूते में अपना पांव डालता हूं
और एक आकाश मोजे की तरह चढ़ जाता है
मेरे पांवों पर
नेलकटर से अपने नाखून काटता हूं
तो आकाश का एक टुकड़ा कट जाता है
एक अविभाजित वितान है आकाश
जो न कहीं से शुरू होता है न कहीं खत्म
मैं दरवाजा खोल कर घुसता हूं, अपने ही घर में
और एक आकाश में प्रवेश करता हूं
सीढ़ियां चढ़ता हूं
और आकाश में धंसता चला जाता हूं
आकाश हर जगह एक घुसपैठिया है
चांद की आदतें
चांद से मेरी दोस्ती हरगिज न हुई होती
अगर रात जागने और सड़कों पर फालतू भटकने की
लत न लग गयी होती मुझे स्कूल के ही दिनों में
उसकी कई आदतें तो
तकरीबन मुझसे मिलती-जुलती सी हैं
मसलन वह भी अपनी कक्षा का एक बैक बेंचर छात्र है
अध्यापक का चेहरा ब्लैक बोर्ड की ओर घुमा नहीं
कि दबे पांव निकल भागे बाहर…
और फिर वही मटरगश्ती सारी रात
सारे आसमान में.
राजेश जोशी की (नयी) कविताएं
एक कवि कहता है
नामुमकिन है यह बतलाना कि एक कवि
कविता के भीतर कितना और कितना रहता है
एक कवि है
जिसका चेहरा-मोहरा, ढाल-चाल और बातों का ढब भी
उसकी कविता से इतना ज्यादा मिलता-जुलता सा है
कि लगता है कि जैसे अभी-अभी दरवाजा खोल कर
अपनी कविता से बाहर निकला है
एक कवि जो अक्सर मुझसे कहता है
कि सोते समय उसके पांव अक्सर चादर
और मुहावरों से बाहर निकल आते हैं
सुबह-सुबह जब पांव पर मच्छरों के काटने की शिकायत करता है
दिक्कत यह है कि पांव अगर चादर में सिकोड़ कर सोये
तो उसकी पगथलियां गरम हो जाती हैं
उसे हमेशा डर लगा रहता है कि सपने में एकाएक
अगर उसे कहीं जाना पड़ा
तो हड़बड़ी में वह चादर में उलझ कर गिर जायेगा
मुहावरे इसी तरह क्षमताओं का पूरा प्रयोग करने से
आदमी को रोकते हैं
और मच्छरों द्वारा कवियों के काम में पैदा की गयी
अड़चनों के बारे में
अभी तक आलोचना में विचार नहीं किया गया
ले देकर अब कवियों से ही कुछ उम्मीद बची है
कि वे कविता की कई अलक्षित खूबियों
और दिक्कतों के बारे में भी सोचें
जिन पर आलोचना के खांचे के भीतर
सोचना निषिद्ध है
एक कवि जो अक्सर नाराज रहता है
बार-बार यह ही कहता है
बचो, बचो, बचो
ऐसे क्लास रूम के अगल-बगल से भी मत गुजरो
जहां हिंदी का अध्यापक कविता पढ़ा रहा हो
और कविता के बारे में राजेंद्र यादव की बात तो
बिलकुल मत सुनो.
प्रौद्योगिकी की माया
अचानक ही बिजली गुल हो गयी
और बंद हो गया माइक
ओह उस वक्ता की आवाज का जादू
जो इतनी देर से अपनी गिरफ्त में बांधे हुए था मुझे
कितनी कमजोर और धीमी थी वह आवाज
एकाएक तभी मैंने जाना
उसकी आवाज का शासन खत्म हुआ
तो उधड़ने लगी अब तक उसके बोले गये की परतें
हर जगह आकाश
बोले और सुने जा रहे के बीच जो दूरी है
वह एक आकाश है
मैं खूंटी से उतार कर एक कमीज पहनता हूं
और एक आकाश के भीतर घुस जाता हूं
मैं जूते में अपना पांव डालता हूं
और एक आकाश मोजे की तरह चढ़ जाता है
मेरे पांवों पर
नेलकटर से अपने नाखून काटता हूं
तो आकाश का एक टुकड़ा कट जाता है
एक अविभाजित वितान है आकाश
जो न कहीं से शुरू होता है न कहीं खत्म
मैं दरवाजा खोल कर घुसता हूं, अपने ही घर में
और एक आकाश में प्रवेश करता हूं
सीढ़ियां चढ़ता हूं
और आकाश में धंसता चला जाता हूं
आकाश हर जगह एक घुसपैठिया है
चांद की आदतें
चांद से मेरी दोस्ती हरगिज न हुई होती
अगर रात जागने और सड़कों पर फालतू भटकने की
लत न लग गयी होती मुझे स्कूल के ही दिनों में
उसकी कई आदतें तो
तकरीबन मुझसे मिलती-जुलती सी हैं
मसलन वह भी अपनी कक्षा का एक बैक बेंचर छात्र है
अध्यापक का चेहरा ब्लैक बोर्ड की ओर घुमा नहीं
कि दबे पांव निकल भागे बाहर…
और फिर वही मटरगश्ती सारी रात
सारे आसमान में.
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