इराक : उम्मीद से हताशा तक का सफ़र
March 30, 2007 at 3:51 am Leave a comment
बग़दाद की गलियों में सबसे अधिक आवाज़ छोटे जेनरेटरों के शोर की सुनाई देती है. पुलिस और सेना के रोड ब्लॉक के अलावा सबसे ज़्यादा काले बैनर दिखाई देते हैं जिसपर लोगों के मरने का जिक्र होता है.
और सबसे आम भावना लोगों में आक्रोश और उदासी की दिखाई देती है.
ये सारी चीजें ये बताती हैं कि इराक़ियों में चार साल पहले जो आशा और उम्मीदें बंधी थीं वे ख़त्म हो चुकी है.
जेनरेटर के शोर इस बात के गवाह हैं कि अमरीका और इराक़ की सरकारें बिजली समस्या का हल निकालने में विफल रही हैं.
लगातार हो रही मौतें इस बात का प्रमाण है कि वे यहाँ शांति स्थापित नहीं कर सके हैं.
शायद ये भूलना आसान है कि एक समय इराक़ के लोगों को कितनी उम्मीदें थी.
उम्मीद
बग़दाद में अमरीकी सेना के घुसने के एक दिन बाद वहाँ हाइफ़ा स्ट्रीट के एक दुकानदार ने मुझसे कहा था, ”मुझे यह सोचकर अच्छा नहीं लग रहा है कि मेरे देश पर हमला हुआ है लेकिन भगवान का शुक्र है कि यह अमरीकियों ने किया है. अमरीका दुनिया का सबसे धनी देश है और वे अब हमारी मदद करेंगे.”
लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. वे मंत्रालयों, सार्वजनिक भवनों और संग्रहालयों को भी लुटने से नहीं बचा सके.
हमनें एक फ़िल्म शूट की है जिसमें चोर अस्पताल से महंगे उपकरण चोरी करके भाग रहे हैं और लोग एक अमरीकी सेना से कुछ करने की गुहार लगा रहे हैं लेकिन वह अपना मुंह फेर लेता है.
हमले के बाद पहले साल अव्यवस्था और अमरीकी ठेकेदारों और इराक़ी नेताओं की खुलेआम चोरी से लोगों में काफ़ी आक्रोश था.
बदल चुका है मंज़र
जब मैं मई, 2003 में हाइफ़ा स्ट्रीट दुकानदार से मिलने पहुँचा तो अकेले गया था और वहाँ छोटे हथियारों से फ़ायरिंग की आवाज़ आ रही थी. कुछ लोग नाराज़गी भरी निगाह से मेरी ओर देख रहे थे लेकिन मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मेरी जान को ख़तरा है.
दो दिन पहले मैं हाइफ़ा स्ट्रीट फिर गया. यहाँ कुछ दिनों पहले ही सुन्नियों और अमरीकी और इराक़ी सेना के बीच संघर्ष हुआ था.
अब एक पश्चिमी व्यक्ति के लिए बिना हथियार के यहाँ पहुँचना काफ़ी कठिन हो चुका है. मुझे खिड़कियों पर पर्दे लगे गाड़ियों में दो ब्रिटिश सैनिकों की सुरक्षा में जाना पड़ा.
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अमरीकी सेना इराक के लोगों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी |
जिस दुकानदार से चार साल पहले मैं मिला था उसकी बात छोड़ दीजिए वहाँ सारी दुकानें बंद हो चुकी थीं और कोई भी नहीं था जिससे मैं कुछ पूछ सकूं.
अगली सुबह मैं शहर के एक बड़े अस्पताल में पहुँचा. मेरे एक घंटा वहाँ रुकने के दौरान छह शव लाए गए जो गलियों में सुबह से मिले थे. अब यह यहाँ सामान्य बात है.
जब बग़दाद पर हमला हुआ था और एक या दो लोग भी मरते थे तो मैं सैटेलाइट फ़ोन से लंदन को इसकी सूचना देता था. उस समय यह बड़ी ख़बर होती थी.
निर्दयी शहर
गत गुरुवार को मध्य बग़दाद में जहाँ बीबीसी का ऑफिस है एक विस्फोट हुआ और उसमें कम से कम आठ लोग मारे गए और 25 घायल हो गए.
हमारे पास इसकी अच्छी तस्वीरें भी थीं लेकिन मैंने लंदन को फ़ोन करके रिपोर्ट करने की जहमत नहीं उठाई.
आज ख़बर बनने के लिए काफ़ी लोगों को मरना होगा. अभी यह आँकड़ा 60 या 70 है और मैं दावे से कह सकता हूँ कि यह लीड ख़बर नहीं होगी.
ऐसा इसलिए नहीं है कि संपादकों को परवाह नहीं है बल्कि ऐसी घटनाएं अब इतनी हो रही हैं कि ख़बर नहीं लगती.
अमरीकी नियंत्रण के चार साल बाद बग़दाद अब ख़तरनाक, निर्दयी, भयभीत और चिंतित शहर है.
अमरीकी सैनिकों की संख्या बढ़ने से हिंसा में जो कमी आई है उसे लेकर लोग सशंकित है.
ज़्यादातर लोगों का मानना है कि कई विद्रोही समूह जो अभी शांत हैं बाद में अमरीकी सेना की वापसी के बाद सिर उठा सकते हैं.
लेकिन ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ शंका और आक्रोश की ही भावनाएं है.
मैंने अस्पताल में एक डॉक्टर से पूछा था, “आपके बहुत सारे साथियों ने देश छोड़ दिया है क्या आप भी ऐसा करना चाहते हैं”?
तो उन्होंने जवाब दिया, ”अगर मुझे यह पता हो कि कल मेरी हत्या हो जाएगी तो भी मैं यही रहूँगा. ये मेरा कर्तव्य है.”
इस तरह के लोग और यह जज़्बा एक बार फिर इराक़ को गौरवशाली देश बनाएगा लेकिन हाल-फ़िलहाल तो ऐसा होता नहीं दिख रहा है.
बीबीसी से साभार
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