अरुण कमल की तीन कविताएँ
March 1, 2007 at 3:29 pm Leave a comment
लगातार
लगातार बारिश हो रही है लगातार तार-तार
कहीं घन नहीं न गगन बस बारिश एक धार
भींग रहे तरुवर तट धान के खेत मिट्टी दीवार
बाँस के पुल लकश मीनार स्तूप
बारिश लगातार भुवन में भरी ज्यों हवा ज्यों धूप
कोई बरामदे में बैठी चाय पी रही है पाँव पर पाँव धर
सोखती है हवा अदरक की गंध
मेरी भींगी बरौनियाँ उठती हैं और सोचता हूँ
देखूँ और कितना जल सोखता है मेरा शरीर
तुम इंद्रधनुष हो.
वापस
घूमते रहोगे भीड़ भरे बाज़ार में
एक गली से दूसरी गली एक घर से दूसरे घर
बेवक़्त दरवाजा खटखटाते कुछ देर रुक फिर बाहर भागते
घूमते रहोगे बस यूँ ही
लगेगा भूल चुके हो लगेगा अंधेरे में सब दब चुका है
पर अचानक करवट बदलते कुछ चुभेगा
और फिर वो हवा काँख में दबाए तुम्हें बाहर ले जाएगी
दूर तारे हैं ऐसा प्रकाश अंधकार से भरा हुआ
कहीं कोई उल्का पिंड गिर रहा है
ऐसी कौंध कि देख न सको कुछ भी
दूर तक चलते चले जाओगे पेड़ों के नीचे लंबी सड़क पर
पेड़ तुम पर झुकते आते
चाँद दिखेगा और खो जाएगा
और तुम लौटोगे वापस थक कर.
शायर की कब्र
(नज़ीर अक़बराबादी के प्रति)
न वहाँ छतरी थी न घेरा
बस एक क़ब्र थी मिट्टी से उठती
मानों कोई सो गया हो लेटे-लेटे
जिस पर उतनी ही धूप पड़ती जितनी बाकी धरती पर
उतनी ही ओस और बारिश
और दो पेड़ थे आसपास बेरी और नीम के.
मेमने बच्चे और गौरैया दिन भर कूदते वहाँ
और शाम होते पूरा मुहल्ला जमा हो जाता
तिल के लड्डू गंडे-ताबीज वाले
और डुगडुगी बजाता जमूरा लिए रीछ का बच्चा
और रात को थका मांदा कोई मँगता सो रहता सट कर.
और वो सब कुछ सुनता
एक-एक तलवे की धड़कन एक कीड़े की हरकत
हर रेशे का भीतर ख़ाक में सरकना
और ऊपर उड़ते पतंगों की सिहरन
हर बधावे हर मातम में शामिल.
वह महज़ एक क़ब्र थी एक शायर की क़ब्र
जहाँ हर बसंत में लगते हैं मेले
जहाँ दो पेड़ हैं पास-पास बेरी के नीम के.
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