यह ठीक-ठीक एक युद्ध है और हर पक्ष अपने हथियार चुन रहा है : अरुंधति राय
April 5, 2007 at 10:59 pm 4 comments
प्रख्यात लेखिका और समाजकर्मी अरुंधति राय ने लगातार बदलते वैश्विक परिदृश्य और घटनाक्रम के साथ जिस तरह अपने को मोडिफ़ाइ किया है, और अपने सोच को विकसित किया है, उसका उदाहरण है यह बातचीत. इसमें अरुंधति ने अपने पहले के कई नज़रियों पर नये सिरे से विचार किया है और ज़रूरत पड़ने पर उनको एक दूसरी दिशा भी दी है. जैसे कि उनमें पहले अहिंसक प्रतिरोध की का व्यापक आग्रह दिखता था. वे मानतीं थीं कि प्रतिरोध हिंसक होने से उसकी सुंदरता नष्ट होती है. मगर इस बार वे सरकार द्वारा अहिंसक प्रतिरोधों को नज़रअंदाज़ किये जाने और उनको अपमानित किये जाने से काफ़ी क्षुब्ध दिखती हैं. उनमे अब अहिंसक प्रतिरोध का वह आग्रह नहीं दिखता और वे काफ़ी हद तक देश में चल रहे सशस्त्र आंदोलनों के पक्ष में बोलती दिखती हैं. उनका यह बदलाव उन जड़ बुद्धि महामानवों, इसी युग के, के लिए एक नज़ीर है, जिन्होंने एक बार एक ढेरी चुन ली तो जीवन भर उस पर कुंडली मारे बैठे रहते हैं, उसकी गर्द साफ़ करने को भी उससे नहीं डोलते. अंगरेज़ी साप्ताहिक तहलका में छपी यह बातचीत हिंदी में जन विकल्प के अप्रैल अंक में प्रकाशित हुई है. यहां इसकी साभार प्रस्तुति.
- अनुवाद : रेयाज-उल-हक
शोमा चौधरी : पूरे देश में बढ़ती हुई हिंसा का माहौल है. आप संकेतों को किस तरह ले रही हैं? इन्हें किस परिप्रेक्ष्य में लेना चाहिए?
अरुंधति राय : आप उतने प्रतिभासंपन्न नहीं हो सकते कि आप संकेतों को पढ़ सकें. हमारे पास उग्र उपभोक्तावाद और आक्रामक लिप्सा पर पलता हुआ एक बढ़ता मध्यवर्ग है. पश्चिमी देशों के औद्योगीकरण के विपरीत, जिनके पास उनके उपनिवेश थे, जहां से वे संसाधन लूटते थे और इस प्रक्रिया की खुराक के लिए दास मजदूर पैदा करते थे, हमने खुद को ही, अपने निम्नतम हिस्सों को, अपना उपनिवेश बना लिया है. हमने अपने अंगों को ही खाना शुरू कर दिया है. लालच, जो पैदा हो रही है (और जो एक मूल्य की तरह राष्ट्रवाद के साथ घालमेल करते हुए बेची जा रही है ) केवल अशक्त लोगों से भूमि, जल और संसाधनों की लूट से ही शांत हो सकती है. हम जिसे देख रहे हैं वह स्वतंत्र भारत में लड़ा गया सबसे सफल अलगाववादी संघर्ष है-मध्यवर्ग और उच्चवर्ग का बाकी देश से अलगाव. यह एक स्पष्ट अलगाव है न कि छुपा हुआ. वे इस धरती पर मौजूद दुनिया के अभिजात के साथ मिल जाने के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं. वे सेनापति और संसाधनों का प्रबंध कर चुके हैं, कोयला, खनिज, बक्साइट, पानी और बिजली. अब वे अधिक जमीन चाहते हैं, अधिक कारें, अधिक बम, अधिक माइंस-नयी महाशक्ति के नये महानागरिकों के लिए महाखिलौने-बनाने के लिए. इसलिए यह ठीक-ठीक युद्ध है और दोनों तरफ के लोग अपने हथियार चुन रहे हैं. सरकार और निगम संरचनागत समायोजन के लिए पहुंच गये हैं, विश्वबैंक, एडीबी, एफडीआइ, दोस्ताना अदालती आदेश, दोस्ताना नीति निर्माता, कार्पोरेट मीडिया और पुलिस बल की दोस्ताना मदद इन सब को गरीब आदमियों के गले में बांध देंगे. जो इस प्रक्रिया का विरोध करना चाहते हैं, अब तक धरना, भूख हड़ताल, सत्याग्रह, अदालत और दोस्ताना मीडिया का सहारा लेते रहे हैं, मगर अब अधिक-से-अधिक लोग बंदूकों के साथ जा रहे हैं. क्या हिंसा बढ़ेगी? जी हां, यदि ‘वृद्धि दर` और सेंसेक्स सरकार द्वारा प्रगति और लोगों की बेहतरी मापने के बैरोमीटर बने रहेंगे तब निस्संदेह, यह होगा. मैं संकेतों को कैसे पढ़ती हूं? आकाश पर लिखी चीज पढ़ना मुश्किल नहीं है. वहां जो वाक्य बड़े-बड़े अक्षरों में अंकित है, वह यह है कि मल जाकर पंखे से चिपक गया है (गरीब लोग सिर चढ़ गये हैं – अनु.).
शोमा चौधरी : आपने एक बार टिप्पणी की थी कि आप खुद हालांकि हिंसा का आश्रय नहीं लेंगी, आप सोचती हैं कि देश की वर्तमान परिस्थतियों में इसकी निंदा करना अनैतिक हो गया है. क्या आप अपने इस नजरिये को विस्तृत कर सकती हैं?
अरुंधति राय : एक गुरिल्ले के रूप में मैं बोझ भर रह जाऊंगी. मुझे संदेह है कि मैंने शब्द ‘अनैतिक` का प्रयोग किया होगा-नैतिकता एक भ्रामक विचार है, मौसम की तरह बदलनेवाला. जो मैं महसूस करती हूं वह यह है कि अहिंसक आंदोलन दशकों से देश की प्रत्येक
लोकतांत्रिक संस्था का दरवाजा खटखटा चुके हैं और ठुकराये और अपमानित हो चुके हैं. भोपाल गैस कांड के पीड़ितों और नर्मदा बचाओ आंदोलन को देखिए. एनबीए के पास क्या नहीं है? बहुचर्चित नेतृत्व, मीडिया कवरेज, किसी भी दूसरे जनांदोलन से अधिक संसाधन. क्या गलती हुई? लोग अपनी रणनीति पर फिर से सोचने को बाध्य किये जा रहे हैं. जब सोनिया गांधी दाओस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम से सत्याग्रह को प्रोत्साहित करने की शुरुआत करती हैं, यह हमारे लिए बैठ कर सोचने का समय होता है. जैसे कि क्या आम सिविल नाफरमानी एक लोकतांत्रिक राष्ट्र राज्य की संरचना के अंतर्गत संभव है? क्या यह गलत सूचनाओं और कारपोरेट नियंत्रित मास मीडिया के युग में संभव है? क्या भूख हड़तालों की नाभिनाल सेलिब्रिटी पॉलिटिक्स से जुड़ी हुई है? क्या कोई परवाह करेगा यदि नागला माछी या भट्टी माइंस के लोग भूख हड़ताल पर चले जायें? इरोम शर्मिला पिछले छह वर्षों से भूख हड़ताल पर है. यह हमलोगों में से कइयों के लिए एक सबक होना चाहिए. मैंने हमेशा महसूस किया है कि यह एक मजाक ही है कि भूख हड़ताल को ऐसी जगह में एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाये, जहां अधिकतर लोग किसी-न-किसी तरीके से भूखे रहते हों. हमलोग एक भिन्न समय और स्थान में हैं. हमारे सामने एक भिन्न, अधिक जटिल शत्रु है. हम एनजीओ युग में दाखिल हो चुके हैं- या क्या मुझे कहना चाहिए पालतू शेरों के युग में-जिसमें जन कार्रवाई एक जोखिमभरा (अविश्वसनीय) काम हो गया है. प्रदर्शन अब फंडेड होते हैं, धरना और सोशल फोरम प्रायोजित होते हैं, जो तेवर तो काफी उग्र दिखाते हैं मगर जो वे उपदेश देते हैं, उन पर कभी चलते नहीं. हमारे यहां ‘वर्चुअल` प्रतिरोध की तमाम किस्में मौजूद हैं. सेज के खिलाफ मीटिंग सेज के सबसे बड़े प्रमोटर द्वारा प्रायोजित होती है. पर्यावरण एक्टिविज्म और सामुदायिक कार्रवाइयों को सम्मान और अनुदान उन कारपोरेशनों द्वारा दिये जाते हैं जो पूरे पारिस्थितिक तंत्र की तबाही के लिए जिम्मेवार हैं. ओड़िशा के जंगलों में बक्साइट की खुदाई करनेवाली एक कंपनी, वेदांत, अब एक यूनिवर्सिटी खोलना चाहती है. टाटा के पास दो दाता ट्रस्ट हैं, जो सीधे या छुपे तौर पर देश भर के एक्टिविस्टों और जनांदोलनों को धन देते हैं। क्या यही वजह नहीं है कि सिंगुर में नंदीग्राम के मुकाबले कम आकर्षण है? निस्संदेह टाटाओं और बिड़लाओं ने गांधी तक को धन दिया-शायद वह हमारा पहला एनजीओ था. मगर अब हमारे पास ऐसे एनजीओ हैं, जो खूब शोर मचाते हैं, खूब रिपोर्टें लिखते हैं, मगर जिनके साथ सरकार अधिक राहत महसूस करती है. कैसे हम इन सब को उचित ठहरा सकते हैं? असली राजनीतिक कार्रवाइयों को मटियामेट करनेवाले सर्वत्र किलबिला रहे हैं. ‘वर्चुअल` प्रतिरोध अब बोझ बन गये हैं.
एक समय था जब जनांदोलन न्याय के लिए अदालतों की ओर देखते थे. अदालतों ने ऐसे फैसलों की झड़ी लगा दी, जो इतने अन्यायपूर्ण, इतने अपमानजनक थे, गरीबों के लिए उनके द्वारा इस्तेमाल की जानेवाली भाषा इतनी अपमानजनक थी कि सुन कर सांस रुक-सी जाती है. सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले, जिसमें वसंत कुंज मॉल को कंस्ट्रक्शन पुन: शुरू करने की अनुमति दी गयी है और जिसमें जरूरी स्पष्टता नहीं है, में बार-बार कहा गया है कि कार्पोरेशंस की अपराध में लिप्तता का सवाल ही नहीं उठता. कार्पोरेट ग्लोबलाइजेशन के दौर में, कार्पोरेट भूमि लूट, एनरॉन, मोनसेंटो, हेलीबर्टन और बेकटेल के दौर में ऐसा कहने का गहरा अर्थ है. यह इस देश में सर्वोच्च शक्तिशाली संस्थानों के वैचारिक मानस को उजागर करता है. न्यायपालिका, कार्पोरेट प्रेस के साथ अब उदारवादी परियोजना की धुरी की कील लगने लगी है. इस तरह की परिस्थिति में जब लोग महसूस करते हैं कि वे हार रहे हैं, अंतत: केवल अपमानित होने के लिए इन बेहद लंबी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में थका दिये जा रहे हैं, तब उनसे क्या आशा की जा सकती है? निस्संदेह, क्या यह ऐसा नहीं है मानो रास्ते हां या ना में हों-हिंसा बनाम अहिंसा. कई राजनीतिक दल हैं जो सशस्त्र संघर्ष में यकीन रखते हैं, पर अपनी समग्र राजनीतिक रणनीति के एक हिस्से के रूप में. इन संघर्षों के राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ क्रूर व्यवहार होता है, उनकी हत्या कर दी जाती है, वे पीटे जाते हैं, झूठे आरोपों में कैद कर लिये जाते हैं. लोग इस बात से पूरी तरह अवगत हैं कि हथियार उठाने मतलब है भारतीय राजसत्ता की हर तरह की हिंसा को न्योता देना. जिस पल हथियारबंद लड़ाई एक रणनीति बन जाती है, आपकी पूरी दुनिया सिकुड़ जाती है और रंग फीके पड़ कर काले और सफेद में बदल जाते हैं. लेकिन जब लोग ऐसा कदम उठाने का फैसला करते हैं, क्योंकि हरेक दूसरा रास्ता निराशा में बंद हो चुका हो, तो क्या हमें इसकी निंदा करनी चाहिए? क्या कोई यकीन करेगा कि नंदीग्राम के लोग धरना पर बैठ जाते और गीत गाते तो पश्चिम बंगाल सरकार पीछे हट जाती? हम ऐसे समय में रह रहे हैं जब निष्प्रभावी रहने का मतलब है -यथास्थिति का समर्थन करना (जो बेशक हममें से कइयों के अनुकूल है). और प्रभावी होना एक भयावह कीमत पर होता है. मैं उनकी निंदा करना कठिन समझती हूं, जो ये कीमत चुकाने को तैयार हैं.
शोमा चौधरी : आपने विभिन्न जगहों के दौरे किये हैं. क्या आपने जिन समस्याओं को पाया उनके अनुभव हमें बता सकती हैं? क्या आप इन जगहों में लड़ी जानेवाली लड़ाइयों का खाका खींच सकती हैं?
अरुंधति राय : बड़ा सवाल है-मैं क्या कह सकती हूं? कश्मीर में सैन्य कब्जा, गुजरात में नव फासीवाद, छत्तीसगढ़ में गृह युद्ध, बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा ओड़िशा का बलात्कार, नर्मदा घाटी में सैकड़ों गांवों को जलमग्न कर दिया जाना, भुखमरी के कगार पर जीते लोग, वन भूमि का विध्वंस, भोपाल गैस कांड पीड़ितों का पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा नंदीग्राम में यूनियन कार्बाइड, जो अब खुद को दाउ केमिकल्स कहती है, की फिर से चिरौरी करते देखने के लिए जीवित रहना. मैं हाल में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र नहीं गयी हूं, मगर हम जानते हैं कि सैकड़ों-हजारों किसानों ने खुद को मार डाला. इनमें से प्रत्येक जगह का अपना इतिहास रहा है, अर्थव्यवस्था रही है, पारिस्थितिक तंत्र रहा है. किसी की भी सरलीकृत ढंग से व्याख्या नहीं की जा सकती. और कुछ जुड़े हुए तार हैं, बड़े अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक और आर्थिक दबाव हैं, जो उन पर डाले जा रहे हैं. मैं कैसे हिंदुत्व परियोजना के बारे में बात नहीं कर सकती जो एक बार फिर फूट पड़ने की प्रतीक्षा में निरंतर अपना जहर फैला रही है? मैं कहूंगी कि हमारा सबसे बड़ा दोष यही है कि हम अब भी एक देश हैं, संस्कृति हैं, एक समाज हैं, जो लगातार अस्पृश्यता की धारणा को पोषित करता है और व्यवहार में लाता है. जब हमारे अर्थशात्री आंकड़ों की जुगाली करते हैं और वृद्धि दर के बारे में डींग हांकते हैं, दस लाख लोग-मैला ढोनेवाले-अपनी जीविका चलाते हैं-रोज अपने सिर पर दूसरों का कई किलो मल ढोकर. और अगर वे अपने सर पर पाखाना न ढोयें तो वे भूखे मर जायेंगे.
शोमा चौधरी : बंगाल में हालिया सरकारी और पुलिसिया हिंसा को कैसे देखा जाये?
अरुंधति राय : कहीं भी पुलिस और सरकारी हिंसा में कोई फर्क नहीं होता, दोगलेपन और दोमुंहेपन का मुद्दा भी इसमें शामिल है, जिन्हें सभी राजनीतिक दल, मुख्यधारा के वामपंथ सहित सभी, व्यवहार में लाते हैं. क्या एक कम्यूनिस्ट गोली पूंजीवादी गोली से अलग होती है? अजीब घटनाएं घट रही हैं. सऊदी अरब में बर्फ पड़ी. उल्लू दिन के उजाले में बाहर आये. चीनी सरकार ने निजी संपत्ति को मंजूरी देनेवाला बिल स्वीकृत किया. मैं कुछ नहीं जानती यदि इन सबका लेना-देना जलवायु परिवर्तन से है. चीनी कम्यूनिस्ट 21 वीं सदी के सबसे बड़े पूंजीवादी बनने की ओर अग्रसर हैं. हमें क्यों अपने यहां के संसदीय वामपंथ से कुछ अलग होने की उम्मीद करनी चाहिए? नंदीग्राम और सिंगुर स्पष्ट संकेत हैं. यह आपको आश्चर्य में डाल देगा-क्या हरेक क्रांति का अंतिम पड़ाव पूंजीवाद को और आगे बढ़ा देता है? इसके बारे में सोचें-फ्रांसीसी क्रांति, रूसी क्रांति, चीनी क्रांति, वियतनाम युद्ध, रंगभेदविरोधी संघर्ष, और मान लेते हैं कि भारत में गांधीवादी स्वतंत्रता संग्राम, किस अंतिम पड़ाव पर वे पहुंचे? क्या यह कल्पना का अंत है?
शोमा चौधरी : बीजापुर में माओवादी हमला- ५५ पुलिसकर्मियों की मौत. क्या विद्रोही राजसत्ता के ही दूसरे पहलू हैं?
अरुंधति राय : विद्रोही कैसे राज्य के दूसरे पहलू हो सकते हैं? क्या कोई कह सकता है कि जो रंगभेद के विरुद्ध लड़े-फिर भी उनके तरीके क्रूर थे-राज्य के दूसरे पहलू थे? उनके बारे में क्या जो अल्जीरिया में फ्रांस से लड़े? या वे जो नाजियों से लडे? या वे जो औपनिवेशिक शासन से लड़े? या वे जो इराक पर अमेरिकी कब्जे से लड़ रहे हैं? क्या ये राज्य के दूसरे पहलू हैं? यह सतही, नव खबरचालित `मानवाधिकार` विमर्श है, यह निरर्थक निंदा खेल, जिसे खेलने के लिए हम बाध्य किये जा रहे हैं, हमें राजनीतिज्ञ बनाता है और सही राजनीति को हमसे छीनता है. छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा प्रायोजित और निर्मित गृहयुद्ध चल रहा है, जो खुलेआम बुश डॉक्ट्रिन का हिमायती है-अगर आप हमारे साथ नहीं हैं तो आप आतंकवादियों के साथ हैं. इस युद्ध की धुरी की कील औपचारिक सुरक्षा बलों के अतिरिक्त सलवा जुडूम है, उन आम लोगों की सरकार पोषित मिलिशिया, जो हथियार उठाने और विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) बनने को बाध्य कर दिये गये. भारतीय राजसत्ता इसे कश्मीर, मणिपुर, नागालैंड में आजमा चुकी है. दसियों हजार मारे जा चुके हैं, हजारों ने यातनाएं सही हैं, हजारों गायब कर दिये गये हैं. कोई भी बनाना रिपब्लिक इन तथ्यों पर गर्व करेगा. अब सरकार इन विफल रणनीतियों को देश के हृदयस्थल में उठा कर ले आयी है. हजारों आदिवासी अपनी खनिज संपन्न जमीन से पुलिस कैंपों में जबरन भेज दिये गये. सैकड़ों गांव जबरन उजाड़ दिये गये. यह भूमि लौह अयस्क से भरपूर है, जिस पर टाटा और एस्सार जैसे कार्पोरेशनों की आंख गड़ी हुई है. एमओयू पर हस्ताक्षर किये जा चुके हैं, पर कोई नहीं जानता कि उनमें क्या है. भूमि अधिग्रहण शुरू हो चुका है. जिन देशों में ऐसी घटनाएं घटी हैं, जैसे कि कोलंबिया, वे दुनिया के सबसे तबाह देशों में से हैं. जब हरेक की नजर सरकार पोषित मिलिशिया और गुरिल्ला दस्तों की निरंतर हिंसा पर लगी थी, बहुराष्ट्रीय कार्पोरेशन बड़ी खामोशी से खनिज संपदा चुरा कर भाग रहे थे. यह उस नाटक का एक छोटा-सा हिस्सा है, जो छत्तीसगढ़ में हमारे लिए रचा गया है.
बेशक यह भयावह है कि 55 पुलिसकर्मी मार दिये गये. मगर वे उसी तरह सरकारी नीतियों के शिकार हुए जैसा दूसरा कोई होता है. सरकार और कार्पोरेशनों के लिए वे तोप का चारा भर हैं- जहां से वे आये थे, वहां इसकी भरमार है. घड़ियाली आंसू बहाये जायेंगे, प्राइम टीवी एंकर हम पर रोब जमायेंगे और तब चारे की और अधिक सप्लाई का इंतजाम कर लिया जायेगा. माओवादी गुरिल्लों के लिए, पुलिस और एसपीओ, जिनको उन्होंने मारा, भारतीय राजसत्ता के सशस्त्र आदमी थे, दमन, यातना, हिरासती हत्याओं और झूठे मुकदमों के मुख्य कर्ताधर्ता थे. कल्पना के किसी भी विस्तार में वे निर्दोष नागरिक, अगर ऐसी कोई चीज होती हो, नहीं थे. मुझे कोई संदेह नहीं कि माओवादी आतंक, और जबरदस्ती के भी, वाहक हो सकते हैं. मुझे कोई संदेह नहीं कि वे अवर्णनीय अत्याचारों के भी आरोपित हैं. मुझे कोई संदेह नहीं कि वे स्थानीय जनता के निर्विवाद समर्थन का दावा नहीं कर सकते, पर कौन कर सकता है? फिर भी कोई गुरिल्ला आर्मी बिना स्थानीय समर्थन के नहीं टिक सकती. यह असंभव है. आज माओवादियों के प्रति समर्थन बढ़ रहा है, न कि घट रहा है. वे कुछ कहते हैं, लोगों के पास रास्ता नहीं है, लेकिन वे उस तरफ हो जाते हैं, जिसे वे कम खराब समझते हैं.
लेकिन तीव्र अन्याय से जूझते प्रतिरोध आंदोलन की तुलना सरकार से करना, जो अन्याय थोपती है, बेतुका है. सरकार ने अहिंसक प्रतिरोध की हरेक कोशिश के सामने दरवाजा भिड़ा दिया है. जब लोग हथियार ले लेते हैं, हर तरह की हिंसा शुरू हो जाती है-क्रांतिकारी, लंपट और एकदम आपराधिक भी. सरकार इस डरावनी स्थिति के लिए खुद जिम्मेवार है.
शोमा चौधरी : ‘नक्सल`, ‘माओवादी, ‘बाहरी`, ये वे शब्द हैं जो इन दिनों व्यापकता से प्रयुक्त हो रहे हैं.
अरुंधति राय : ‘बाहरी` एक आम अभियोग था, जिसका उपयोग सरकारें दमन के शुरुआती दिनों में करती थीं, जो अपनी लोकप्रियता में यकीन रखती थीं और यह कल्पना नहीं कर सकती थीं कि उनके अपने लोग उनके खिलाफ उठ खड़े होंगे. इस समय बंगाल में सीपीएम की यही स्थिति है, हालांकि कुछ लोग कहेंगे कि बंगाल में दमन नया नहीं है, यह केवल चरम पर पहुंच गया है. किसी मामले में ‘बाहरी` क्या होता है? सीमाएं कौन तय करेगा? क्या वे गांव की सीमाएं हैं? तहसील? प्रखंड? जिला? राज्य? क्या संकीर्ण क्षेत्रीय और जातिवादी राजनीति नया कम्यूनिस्ट मंत्र है? नक्सलियों और माओवादियों के बारे में-अच्छा… भारत लगभग एक पुलिस स्टेट बन गया है, जिसमें हरेक, जो वर्तमान हालात से असहमत है, आतंकवादी होने का जोखिम उठाता है. इसलामी आतंकवादियों को इसलामी होना होगा-अत: यह हम सबको अपने में समेटने के लिए बेहतर नहीं है. वे एक बड़ा कैचमेंट एरिया चाहते हैं. इसलिए परिभाषाओं को ढीला, अपरिभाषित, छोड़ना प्रभावी रणनीति है, क्योंकि वह समय दूर नहीं जब हम सभी माओवादी या नक्सलवादी, आतंकवादी या आतंकवादियों के हमदर्द कहे जायें और लोगों द्वारा मार दिये जायें, जो ये वास्तव में नहीं जानते या परवाह करते कि कौन माओवादी या नक्सलवादी है. गांवों में, निस्संदेह, यह सब शुरू हो चुका है, देश भर में हजारों लोग जेलों में बंद पड़े हैं, सरकार को उखाड़ फेंकने की कोशिश करनेवाले आतंकवादी होने के ढीले-ढाले आरोपों के तहत. असली माओवादी या नक्सलवादी कौन है? मेरा इस विषय पर बहुत अधिकार नहीं है, लेकिन यह एक बेहद प्राथमिक इतिहास है.
भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी-भाकपा, 1925 में बनी थी. भाकपा (मार्क्सवादी), जिसे हम सीपीएम कहते हैं, 1964 में भाकपा से टूटी थी और एक नयी पार्टी बनी थी. दोनों निस्संदेह, संसदीय राजनीतिक दल थे. 1967 में सीपीएम कांग्रेस से अलग हुए एक समूह के साथ बंगाल में शासन में आयी. उस समय देहातों में भारी भुखमरी चल रही थी. स्थानीय सीपीएम नेताओं, कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने नक्सलबाड़ी जिले में किसान विद्रोह का नेतृत्व किया, जहां से नक्सलवादी शब्द आया है. 1969 में सरकार गिर गयी और कांग्रेस सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व में सत्ता में आयी. नक्सली उभार निर्दयता से कुचल दिया गया. महाश्वेता देवी ने इस दौर पर सशक्त ढंग से लिखा है. 1969 में सीपीआइ (एमएल)-मार्क्सवादी लेनिनवादी सीपीएम से टूटी. कुछ समय बाद, 1971 के आसपास, सीपीआइ (एमएल) अनेक पार्टियों में विभक्त हो गयी; मुख्यत: बिहार में केंद्रित सीपीआइ-एमएल (लिबरेशन), आंध्रप्रदेश और बिहार के अधिकतर हिस्सों में कार्यरत सीपीआइ-एमएल (न्यू डेमोक्रेसी) और मुख्यत: बंगाल में सीपीआइ-एमएल (क्लास स्ट्रगल). ये पार्टियां सामान्यत: नक्सलाइट कही गयीं. वे खुद को मार्क्सवादी लेनिनवादी के तौर पर देखती रहीं, न कि माओवादी के रूप में. वे चुनाव, जन कार्रवाई-और जब उन्हें विवश किया गया या उन पर हमला किया गया-तो सशस्त्र संघर्ष में यकीन रखती हैं. तब मुख्यत: बिहार में सक्रिय एमसीसी-माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर 1968 में बना था. हाल में, 2004 में, एमसीसी और पीपुल्स वार ने आपस में विलय कर सीपीआइ- माओवादी का गठन किया. वे एकदम सशस्त्र संघर्ष और राजसत्ता को उखाड़ फेंकने में यकीन रखते हैं. वे चुनाव में भाग नहीं लेते. यह वह पार्टी है जो बिहार, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में गुरिल्ला युद्ध चला रही है.
शोमा चौधरी : भारतीय राजसत्ता और मीडिया समान्यत: माओवादियों को एक ‘आंतरिक सुरक्षा’ के खतरे के रूप में देखते हैं. क्या उन्हें देखने का यह तरीका है?
अरुंधति राय : मैं इसको लेकर निश्चित हूं कि माओवादी खुद को इस तरीके से देखे जाने से खुश ही होंगे.
शोमा चौधरी : माओवादी राजसत्ता को गिराना चाहते हैं. इन निरंकुश सिद्धांतों से, जिनसे वे प्रेरणा लेते हैं, वे क्या विकल्प बना पायेंगें? क्या उनका शासन उत्पीड़क, निरंकुश, अहिंसक नहीं होगा? क्या उनकी कार्रवाई पहले से ही आम जनता की उत्पीड़क नहीं है?
अरुंधति राय : मैं सोचती हूं कि यह जानना हमारे लिए महत्वपूर्ण है कि माओ और स्टालिन दोनों हत्यारे अतीत के संदिग्ध नायक रहे हैं. करोड़ों लोग उनके शासनकाल में मारे गये. जो चीन और सोवियत संघ में हुआ उसके अलावा, पोलपोट ने चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी के समर्थन से (जब पश्चिम जान-बूझ कर दूसरी ओर देख रहा था) 20 लाख लोगों को कंबोडिया से भगा दिया और लाखों लोगों को बीमारियों और भुखमरी से विलुप्त होने की कगार पर पहुंचा दिया. क्या हम यह दावा कर सकते हैं कि सांस्कृतिक क्रांति नहीं हुई होती. अथवा सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के लाखों लोग लेबर कैंपों, यातना कक्षों, जासूसों और मुखबिरों के जाल और खुफिया पुलिस के शिकर न हुए होते. इन शासनकालों का इतिहास उतना ही काला है, जितना कि पश्चिमी साम्राज्यवाद का इतिहास, अपवाद स्वरूप यह तथ्य है कि उनका जीवनकाल बेहद छोटा रहा है. हम इराक, फलस्तीन और कश्मीर पर कब्जे की निंदा नहीं कर सकते हैं, यदि हम तिब्बत और चेचेन्या के बारे में चुपी साधे रहें. मैं माओवादियों-नक्सलवादियों-के लिए कल्पना करूंगी, उसी तरह जैसे मुख्यधारा के वामपंथ के लिए, अपने अतीत के प्रति ईमानदार होने की, जो कि लोगों में भविष्य के प्रति विश्वास को मजबूत करने के लिए महत्वपूर्ण है. हम उम्मीद कर सकते हैं कि इतिहास दोहराया नहीं जायेगा, लेकिन यह दावा करना कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं, आत्मविश्वास बढ़ाने में मदद नहीं करेगा. इस पर भी नेपाल में माओवादियों ने राजशाही के खिलाफ एक बहादुराना और सफल लड़ाई लड़ी. अभी भारत में माओवादी और विभिन्न मार्क्सवादी-लेनिनवादी समूह तीव्र अन्याय के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व कर रहे हैं. वे केवल राजसत्ता से ही नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि सामंती जमींदारों और उनकी सशस्त्र सेना से भी. वे अकेले लोग हैं जो कुछ सार्थक कर रहे हैं. और मैं इसकी प्रशंसक हूं. यह हो सकता है कि जब वे सत्ता में आयें, जैसा आप कह रही हैं, वे निर्दयी, अन्यायी और निरंकुश हो जायें, या वर्तमान सरकार से भी बदतर हो जायें. हो सकता है, मगर मैं इसे इतना पहले से मान लेने को तैयार नहीं हूं. यदि वे वैसा हुए तो हम उनके खिलाफ लड़ेंगे. और यह ज्यादा संभव है कि मेरे जैसा ही कोई वह पहला आदमी होगा, जिसे वे नजदीक के पेड़ पर लटकायेंगे. लेकिन फिर भी, यह जानना महत्वपूर्ण है कि वे प्रतिरोध के अग्रिम मोरचे का आवेग झेल रहे हैं. हममें से अनेक ऐसी स्थिति में हैं, जहां हम खुद को उनकी तरफ खिंचते हुए पाते हैं, जिनके धर्म में या विचारधारात्मक परिकल्पना में हमारे लिए कोई जगह नहीं है. यह सही है कि हरेक आदमी तेजी से बदलता है, जब वह सत्ता में आता है-मंडेला की एएनसी को देखिए. भ्रष्ट, पूंजीवादी, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के सामने दंडवत, गरीबों को उनके घरों खदेड़नेवाले, लाखों कम्यूनिस्टों के हत्यारे सुहार्तो को दक्षिण अफ्रीका के सबसे बड़े नागरिक सम्मान से सम्मानित करती है. किसने सोचा था कि ऐसा हो सकता है? लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि दक्षिण अफ्रीकियों को रंगभेद के खिलाफ संघर्ष से पीछे हट जाना चाहिए था? या उन्हें इस पर पछताना चाहिए? क्या इसका मतलब यह है कि अल्जीरिया को फ्रांसीसी उपनिवेश बने रहना चाहिए था, कि कश्मीरियों, इराकियों और फलस्तीनियों को सैन्य कब्जा स्वीकार कर लेना चाहिए? उन लोगों को, जिनकी गरिमा अपमानित हुई हो, लड़ना चाहिए, क्योंकि वे लड़ाई में नेतृत्व के लिए संतों को नहीं पा सकते.
शोमा चौधरी : क्या हमारे समाज में परस्पर संवाद भंग हुआ है?
अरुंधति राय : हां.
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1.
ज्ञानदत्त पाण्डेय Gyandutt Pandey | April 6, 2007 at 8:58 am
युद्ध है पर लोगों के खेमे स्पष्ट नहीं हैं.
जो दबा कुचला नहीं है, उसके साथ सहानुभूति हो सकती है, पर उसका पक्ष तर्क सन्गत हो, यह जरूरी नहीं.
लोगों के साथ अन्याय न हो और विकास तेजी से हो – क्या यह सम्भव नहीं है मित्र?
2.
Murari | April 7, 2007 at 4:59 am
Fast development with the help of MNCs and the lack of injustice to people are impossible to seperate. It will be better if Mr. Gyandutt could make it clearer as what he thinks of ‘Tez Vikas’. Does it mean huge capital investments by the MNCs, some may call it infrastructure development, and loot of the indigenous resources and reducing a large chunk of population to misery and beggery? Or does it mean an equitable and sustainable development, universal education, inculcation of humanitatian values in the people, promotion of agriculture etc. by the state and Indian people? If Mr Gyandutt holds first for the definition of his ‘tez vikas’ then I must remind him that introduction of Railways, Postal services etc. by the British might also be taken as the examples of such development which catered to the needs of colonisers’ need not of the colonised.
3.
reyaz-ul- | April 8, 2007 at 12:05 am
सही है मुरारी भाई. लोग इस कदर सतही तरीके से देखने के आदी बना दिये गये हैं या खुद बन गये हैं या जान-बूझ कर इस तरह देखते हैं कि वे चीज़ों का आपस में रिश्ता ही नहीं जोड़ पाते.वे यह देख नहीं पाते कि तेज़ विकास की कीमत आखिर कौन चुकायेगा. बस उन्हें तो अपनी राजधानी एक्स. को सरपट दौडा़ये चलते रहना है.चाहे इससे कोई कुचले या जो हो.
4. बंगाल में वाममोर्चा नहीं, ब्राह्मणवाद का राज है। « Palashbiswaskl’s Weblog | May 31, 2008 at 7:45 pm
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