राजेश जोशी की (नयी) कविताएं
May 16, 2007 at 12:32 am 4 comments
एक कवि कहता है
नामुमकिन है यह बतलाना कि एक कवि
कविता के भीतर कितना और कितना रहता है
एक कवि है
जिसका चेहरा-मोहरा, ढाल-चाल और बातों का ढब भी
उसकी कविता से इतना ज्यादा मिलता-जुलता सा है
कि लगता है कि जैसे अभी-अभी दरवाजा खोल कर
अपनी कविता से बाहर निकला है
एक कवि जो अक्सर मुझसे कहता है
कि सोते समय उसके पांव अक्सर चादर
और मुहावरों से बाहर निकल आते हैं
सुबह-सुबह जब पांव पर मच्छरों के काटने की शिकायत करता है
दिक्कत यह है कि पांव अगर चादर में सिकोड़ कर सोये
तो उसकी पगथलियां गरम हो जाती हैं
उसे हमेशा डर लगा रहता है कि सपने में एकाएक
अगर उसे कहीं जाना पड़ा
तो हड़बड़ी में वह चादर में उलझ कर गिर जायेगा
मुहावरे इसी तरह क्षमताओं का पूरा प्रयोग करने से
आदमी को रोकते हैं
और मच्छरों द्वारा कवियों के काम में पैदा की गयी
अड़चनों के बारे में
अभी तक आलोचना में विचार नहीं किया गया
ले देकर अब कवियों से ही कुछ उम्मीद बची है
कि वे कविता की कई अलक्षित खूबियों
और दिक्कतों के बारे में भी सोचें
जिन पर आलोचना के खांचे के भीतर
सोचना निषिद्ध है
एक कवि जो अक्सर नाराज रहता है
बार-बार यह ही कहता है
बचो, बचो, बचो
ऐसे क्लास रूम के अगल-बगल से भी मत गुजरो
जहां हिंदी का अध्यापक कविता पढ़ा रहा हो
और कविता के बारे में राजेंद्र यादव की बात तो
बिलकुल मत सुनो.
प्रौद्योगिकी की माया
अचानक ही बिजली गुल हो गयी
और बंद हो गया माइक
ओह उस वक्ता की आवाज का जादू
जो इतनी देर से अपनी गिरफ्त में बांधे हुए था मुझे
कितनी कमजोर और धीमी थी वह आवाज
एकाएक तभी मैंने जाना
उसकी आवाज का शासन खत्म हुआ
तो उधड़ने लगी अब तक उसके बोले गये की परतें
हर जगह आकाश
बोले और सुने जा रहे के बीच जो दूरी है
वह एक आकाश है
मैं खूंटी से उतार कर एक कमीज पहनता हूं
और एक आकाश के भीतर घुस जाता हूं
मैं जूते में अपना पांव डालता हूं
और एक आकाश मोजे की तरह चढ़ जाता है
मेरे पांवों पर
नेलकटर से अपने नाखून काटता हूं
तो आकाश का एक टुकड़ा कट जाता है
एक अविभाजित वितान है आकाश
जो न कहीं से शुरू होता है न कहीं खत्म
मैं दरवाजा खोल कर घुसता हूं, अपने ही घर में
और एक आकाश में प्रवेश करता हूं
सीढ़ियां चढ़ता हूं
और आकाश में धंसता चला जाता हूं
आकाश हर जगह एक घुसपैठिया है
चांद की आदतें
चांद से मेरी दोस्ती हरगिज न हुई होती
अगर रात जागने और सड़कों पर फालतू भटकने की
लत न लग गयी होती मुझे स्कूल के ही दिनों में
उसकी कई आदतें तो
तकरीबन मुझसे मिलती-जुलती सी हैं
मसलन वह भी अपनी कक्षा का एक बैक बेंचर छात्र है
अध्यापक का चेहरा ब्लैक बोर्ड की ओर घुमा नहीं
कि दबे पांव निकल भागे बाहर…
और फिर वही मटरगश्ती सारी रात
सारे आसमान में.
Entry filed under: कविताएं.
1.
परमजीत बाली | May 16, 2007 at 12:50 pm
रियाज जी,अच्छी रचनाएं प्रेषित की हैं ।यह रचना बचपन की शैतानियों को उजागर करने मे पूर्ण समर्थ रही है।बधाई।-
चांद से मेरी दोस्ती हरगिज न हुई होती
अगर रात जागने और सड़कों पर फालतू भटकने की
लत न लग गयी होती मुझे स्कूल के ही दिनों में
उसकी कई आदतें तो
तकरीबन मुझसे मिलती-जुलती सी हैं
मसलन वह भी अपनी कक्षा का एक बैक बेंचर छात्र है
अध्यापक का चेहरा ब्लैक बोर्ड की ओर घुमा नहीं
कि दबे पांव निकल भागे बाहर…
और फिर वही मटरगश्ती सारी रात
सारे आसमान में.
2.
anu | May 17, 2007 at 12:17 pm
thoda kamjoor kavitayen lagin, lekin anya blogees se alag sahityik mijaj ki posting dekhkar sukhad anubhuti hui.
3.
Reyaz-ul-haque | May 17, 2007 at 3:09 pm
anu apko dekh kar achha laga. Mohalle meN kuchh log apko Didi jee(bahan jee) samjh baithe hain. HA… HA… HA…
4.
anu | May 18, 2007 at 3:16 pm
aapne usaka jo jawab diya hai dil ko khush kar diya.